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Showing posts from 2010

जलता और पकाता चूल्हा

(विंध्यवासिनी मंदिर के ऊपर एक छज्जे पर बैठे दो कबूतरों की बातचीत (एक नर, एक मादा)  ज्ञातव्य हो की दर्शन की बेला है और दोनों बातचीत में बार-बार अपने चोंच और नज़र को सीढ़ियों पर चढ़ते लोग की तरह इशारा कर रहे हैं ) एक घर होता है जहाँ तुम पैदा होकर बड़े  होते  हो. कुछ रिश्तेदारों के बीच एक और किरदार  दिखता  है जिसका आम सा संबोधन नहीं होता या घिसे हुए संबोधन होने के बावजूद वो खून का रिश्ता नहीं होता. पर उस किरदार का पूरे परिवार में और लिए जाने वालों फैसलों में पूरा दखल रहता है. तुम्हारे  पिता के बाद वे मुखिया का स्थान ले लेते हैं. तुम बड़े होने तक नहीं जान पाते कि यह आखिर हैं कौन... पहले तो सिखाया जाता है कि इस किरदार को यह पुकारो, पर जब अक्ल खुलती है फिर पड़ताल करने पर यह पता चलता है कि इसका हमारे खानदान के खून से कोई रिश्ता नहीं .. यह एक अपरिभाषित रिश्ता है, एक अनाम सा जिसे तुम बुआ, ताई, जिज्जी, काकी या फिर नाम से ही बुलाते रहे हो. यह किरदार घर की भलाई के बारे में तुम्हारे पिता (अगर जिम्मेदार हुए तो ) से कम नहीं सोचता.  ऐसा होने के कारण कई रहे होंगे और अब चूँकि वो अपनी जवानी खो चुकी है

कुरेदो जरा राख के वहाँ आग है क्या ?

सूत्रधार :  पहाड़ पर बिछे हुए कोयलों में सुलगने की गुंजाईश है ... जिस को बाहर से दुनिया बंजर मानती है ... ढलानों पर ज़रा ज़रा सा फिसलन होती थी उन कोयलों का ... थोडा सा फिसलता ... राख उडती और लगता जैसे सब शांत है. जो गोला अन्दर फटता रहता उसका इल्म नहीं था... और जिन्हें था वे शिक्षित और समाज में पागल करार दिए जा चुके थे. समाज यह कर के अपने दायित्व के निर्वहन से स्वयं को च्युत मान चुका था... हालांकि उसका पाठ्यक्रम बहुत बड़ा था लेकिन सुविधाओं की लिंक ने सब काम आसन कर दिया था .. हैरत यह थी इतने के बाद भी हर दिन किसी ना किसी चीज़ की डेडलाइन होती ... लोग तनाव में रहते थे नतीजा बालों का झाड़ना और रुसी का होना था... एक बड़े वर्ग की सबसे बड़ी समस्या यही थी...लोग इस पर बातें करते थे...  /संगीत/ रजाई में पैर गर्म हो जाते थे. भुने हुए आलू के पराठे और उस पर हरी चटनी की सुगंध ने आँखों से बहरा और कानों से अँधा बना दिया था.. लेकिन यह सुख स्वीकार्य था और इस सुख के सब कुछ त्याज्य था... इस सुख की फेहरिस्त लम्बी थी. ईमानदारी से कहूँ तो इसकी फेहरिस्त अंतहीन थी... गैस की पाईपलाइन किचेन तक बिछी थी. माईक्र

दीबाचा

जिंदगी मौत का दीबाचा (भूमिका) है, क्या अजब कि इनको पढ़कर आपको मरने का सलीका आ जाए    ----- सआदत हसन मंटो  ***** बड़े से आँगन के किनारे ढेर सारी अगरबत्तियां जल रही हैं... कुछ लोग खाना खा रहे हैं ... एक आदमी के सामने मैं बैठा हूँ... हालांकि वो खा रहा है फिर भी   जबरदस्ती उसे खाने का आग्रह कर रहा हूँ. वो हाथ लगाकर इनकार कर रहा है. मैं ताली बजाकर परोसने वाले को बुलाता हूँ. लड़का बाल्टी ले कर आया है. खाने वाला शोव्ल ओढ़ कर बैठा है.. वो नहीं खाना चाहता ...लड़के के आते ही वो पत्तल लेकर उठ पड़ा है... गीली दाल किनारे से बहने लगा है... वो आदमी अब लगभग उठ खड़ा हुआ है...   मैं उसका हाथ पकड़कर उसे उसकी जगह पर बैठने का जिरह करता हूँ... बहुत मान मनौव्वल के बाद वो बैठ जाता है. वो और खाना लेने से फिर से इनकार कर रहा है. उसका हाथ बार बार उत्तेजना में सख्त मनाही के रूप में उठता है... मैंने जिद बाँध ली है... पत्तल की   दाल अब लगभग ख़त्म हो चुकी है... टप... टप... टप ! जैसे   सईदा की पायल .. छम.. छम.. ! छम...छम... !   छिः ! मैं श्राद्ध भोज में भी कैसी बातें सोचता हूँ. आँगन और बरामदे की लीपी गोबर से हुई

इश्तियाक *

आईने से मुझे नफरत  है  कि  उसमें असली शक्ल नज़र नहीं आती... मैंने जब कभी अपना चेहरा आईने में देखा, मुझे ऐसा लगा  कि  मेरे चेहरे पर किसी ने कलई कर दी है... लानत भेजो ऐसी वाहियात चीज़ पर... जब आईने नहीं थे, लोग ज्यादा  खूबसूरत  थे... अब आईने मौजूद हैं, मगर लोग  खूबसूरत  नहीं रहे... -----सआदत हसन मंटो  ***** [ जुहू चौपाटी पर का एक कमरा  जिसमें  चीजें बेतरतीबी से इधर उधर फैली हैं .. हरेक चीज़ इस्तेमाल की हुई लग रही है, बिस्तर पर सुजीत और श्यामा अलग अलग लेटे छत में कोई एक जगह तलाश रहे हैं जहाँ दोनों की निगाह टिक जाए और कहना ना पड़े की "मैं वहीँ रह गया हूँ " ] सुजीत :  उलझी से लटों में कई कहानियों के छल्ले हैं..... मैं एक सिगरेट हूँ और तुम्हारी साँसें मुझे सुलगाती रहती हो. मैं ख़त्म हो रहा हूँ आहिस्ता-आहिस्ता... तुम धुंआ बनकर कोहरे में समा जाती हो... किसी रहस्य की तरह...  श्यामा : तो तुम अपनी सासें कोहरे से खींचते हो ? सुजीत : हाँ ! तुम ऐसा कह सकती हो, तुम्हारे पूरे वजूद में ही गिरहें हैं...  [श्यामा पलट कर सुजीत के ऊपर चढ़ आती है ] श्यामा : तो ज़रा सुलझा दो ना ! सुजीत :

हम पी भी गए छलका भी गए...

वो खिले हुए इन्द्रधनुष के गोशे-गोशे को देख रही है... उसकी आँखें उन सात रंगों में सफ़र रही है...  ऐसा लग रहा है मानो सारे रंग उसकी आँखें से निकल रहे हों. हालांकि उसके होंठ थोड़े तिरछे हैं लेकिन थोड़े और होकर कब मुसकाये यह उसे मालूम नहीं हुआ. उसकी आँखों से नन्हें फ़रिश्ते उतरकर ज़मीन पर चहलकदमी करने लगे हैं.... वो कहती है 'मुझमें कुछ बचपना है' जबकि मुझे लगता है कि  बचपना उससे है... एक लहजे के लिए लगता है जैसे लड़कियां कई संस्कृतियों की पोषक होती हैं... मैं बीच में नहीं आना चाहता... आँखों के बसे यह रंग उतने पक्के नहीं होते .. गोया इन्द्रधनुष भी कहाँ हमेशा खिला रहता है.  आकाश यानी सपने में रहने वाली वो और ज़मीन यानि निरा हकीकत में जीने वाला मैं (पाताल नहीं, क्योंकि कई किम्वदंतियां पाताल से जुड़े हुए हैं जैसे, वहां बहुत सोना है, शेषनाग है, नागकन्या है आदि), हमारे बीच एक कई लोग हैं .. वो मुझे अपनी दुनिया की कहानियां नहीं सुनाती .. शायद वो जब भी कुछ कहना चाहती होगी मेरी आँखों में तैरते नंगे अफ़साने उसे रोक देते होंगे... पर मैं उसकी दुनिया देखना चाहता हूँ क्योंकि इस धरती पर जीवन चलन

L.H.S.= R.H.S.

प्रश्न 1 :  राम एक गधा है :  सिद्ध करें . उत्तर : राम के एक सर हैं,  गधे का भी एक ही सर है. राम की दो आँखें हैं  गधे को भी दो आँखें हैं  राम के दो कान हैं  गधे के भी दो कान हैं. अतः सिद्ध हुआ - राम एक गधा है.  प्रशन २ : सिद्ध करें : राम एक गधा नहीं है उत्तर : राम के दो पैर हैं  गधे के चार पैर हैं  राम की पूँछ नहीं है जबकि गधे के पास पूंछ है राम के चेहरे पर हर तरह भाव आते हैं  जबकि गधा कातर सा चेहरा लिए रहता है. अतः सिद्ध हुआ : राम एक गधा नहीं है.  लब्बोलुवाब ये कि प्रमेय हो या जिंदगी के प्रश्न अपने तर्कों पर सिद्ध किये जा रहे हैं. तर्क बलवती होता है सुविधाओं में, अपने हितों में. जैसे भारत रक्षा क्षेत्र में रूस से सौदा करता है तो अमेरिका इसे दक्षिण एशियाई क्षेत्र में सैन्य प्रतिद्वंदिता को बढाने और हथियारों कि होड़ बढ़ने का तर्क देता है लेकिन जब खुद अरबों का बजट अपने संसद में पेश करता है तो इसे "शांति के लिए निवेश" का नाम देता है. कफ़न (कहानी) में घीसू और माधव का अंतिम संस्कार ना कर  दारु पीने का दिल था  तो दोनों ने इस बलवती तर्क को जन्म दिया -  मरने के बाद नए कपडे ? त

समान वार्षिक किश्त

-1- -2-

हश्र है वहसते-दिल की आवारगी...

मैंने कहा मैं तुमसे प्यार करता हूँ और तुम्हारे बिना मर जाऊंगा उसने सुना कि मैं आत्म निर्भर नहीं हूँ और मेरा दिल बहुत छोटा है. मैंने कहा मुझे तुम्हारे बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता और अगर तुम एक बार मुझे कह दो कि मैं भी तुमसे प्यार करती हूँ तो मेरा जीना सफल हो जाएगा, उसने सुना मेरी पसंद बड़ी सीमित है  साथ ही  मेरा संसार भी बड़ा छोटा है और जिसका दायरा छोटा होता है उसके घेरे नहीं बढ़ते और ऐसा आशिक ही क्या जिसे सपने इतने छोटे छोटे हों कि महज़ एक लाइन से जिसका जीना सफल हो जाए. फिर मैंने कहा मुझे मेरी गलतियों के लिए कोई भी सजा दे दो पर मुझे माफ़ कर दो उसने सुना कि मुहब्बत में गिडगिडाने में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं होती. मैंने उससे क्षणिक सहमति दिखाते हुए फिर उसे फिर कहा कि हाँ मेरा दायरा छोटा जरूर है पर उसके अणु बहुत मजबूत हैं. उसने कोई उदहारण माँगा तो मैंने बताया कि तुम्हारे घाघरे कि तरह जहाँ उत्सुकता लगातार बनी रहती है मेरा आशय उसके क़दमों में पड़े रहने से था जो उसकी  मौन आज्ञा  के बाद ही ऊपर जाता लेकिन उसने सुना कि मर्द मर्द ही होते हैं और पूरी उम्र तिलचट्टे कि तरह चिपकना पसंद करते हैं. मै

पाँव फैलाऊं तो दीवार में सर लगता है

"जिंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ है जहाँपनाह, उसे ना तो आप बदल सकते हैं ना मैं. हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं जिनकी डोर ऊपर वाले की उँगलियों में बंधी है. कब, कौन, कैसे उठेगा ये कोई नहीं बता सकता है. हाः, हाह, हाह, हाह हा........" काली पैंट, झक-झक सफ़ेद शर्ट.. और उसके उपर काली हाफ स्वेटर पहने मैं किसी अच्छे रेस्तरां में वायलिन बजने वाला लग रहा हूँ.. कल मैंने म्यूजिक अर्रेंज किया था... १२ लोगों की ओर्केस्ट्रा को जब निर्देश दिया तो सा रे गा मा प ध नी ... सब सिमटते और मिलते जाते थे...  तीन  रोज़ पहले जब पुराने झील के किनारे मैं आदतन अपने गाढे अवसाद में बीयर की ठंढे घूँट (चूँकि शराब की इज़ाज़त वहां नहीं है) गटकते हुए  एक खास नोट्स तैयार की थी .. तब मेरी वायलिन जिस तरह बजी थी आज लाख चाह कर भी मैं वो धुन नहीं तैयार कर पा रहा हूँ.  दर्द के वायलिन किले में भी सिहरन देती है और हम उन सारे कम्पन को समूची देह में दबाये घूमते हैं.  ट्राफिक पुलिस वाले के लिए चलती रिक्शा का रोक देना कितना आसान होता है.... पर सवारियों को यूँ बिठाये हुए फिर से पहला पैडल मारना बहुत कष्टकारी होता है. भोर

मजनू को बुरा बताती है लैला मेरे आगे...

- सुन सहेली, क्या तेरा वाला भी तेरे को इतना ही प्यार करता है ? - हाँ रे, इतना कि पूछो मत  - फिर भी... बता तो ... कितना - जब वो मेरे साथ होता है, मैं तितली बन उडती रहती हूँ. आसमान बन कर मेरे ऊपर छा जाता है, पहली बार अपने होने पर नाज़ होता है मुझे... तू भी बात ना.. मुझे अकेले बोलते शर्म आती है. - मुझे भी वो बहुत चाहता है और मैं भी, अब तो खाना-पीना कुछ भी नहीं सुहाता.. हर आहट पर कान धरे रहती हूँ... लगता है आ रहा है... और तो और आज सुबह कपडे प्रेस करते वक़्त पापा की कमीज उसकी समझ के प्रेस कर दी ... पापा ने कहा - इत्ते अच्छे से तो  आज तक  तूने मेरी जुराब भी  प्रेस नहीं की.  वो गाना है ना " मैं दुनिया भुला दूंगा तेरी चाहत में " उसी टाइप - ... हम्म... तो तू क्या सोचती है ? - सोचना क्या है, बस प्यार करना है उसी से  - और शादी ? - छिः प्यार और शादी दो अलग अलग चीजें थोड़े ना होती हैं ? - तो ? - तो क्या ? शादी भी उसी से करुँगी - तू बड़ी भोली है रे ! - और तू ? तू तो जैसे सबकी नानी है  **** - जानती है, वो भी जब मेरे को अपने बाहों में कसता है दिल कसम से एकदम झूम सा जाता है - अरे सच्ची, मन क

तीन नंबर की ईंट वाली गली

रूम पर लड़की लाना कोई बड़ी बात नहीं थी वो साकेत से उठाई जा सकती थी और आज २ अक्तूबर यानि ड्राई डे  को भी दारु को जुगाड़ करना भी कोई बड़ी बात नहीं थी वो मुनिरका से मंगवाई जा सकती थी.  बड़ी बात तो अपने साए से पीछा छुड़ाना था. वो डर जो अकेले में आँखें बंद करते ही पैर के अंगूठे को अपने मुंह में लेने लगता है. एक गर्म गलफड़ा अपना भाप छोड़ते हुए बहुत मुलायम लेकिन अघोषित निवाला बनाने लगती है. वो जीव जो रासायनिक प्रयोगशालाओं से निकला लगता है और तमाम हानिकारक अम्ल से लैस है... ...और गर्म गलफड़े में भाप की गर्मी से अंगूठा गायब हो जाता है. अब तो घुटने पर है ..  यह डर  खाए जाता था. सर के ऊपर घूमता पंखा सीने पर गिर जाता और उसकी सारी डालियाँ अलग-अलग हो जाती.. एक पंखा सीने में भी चलता है, थोडा बीमार सा कम वोल्टेज में जैसे चलता हो... जैसे अब प्राण पखेडू उड़ने वाले हों. और यह लगना पिछले कई सालों से चला आ रहा हो और अब यकीन हो चला हो कि अबकी भी मरना नहीं है अलबत्ता मरना महसूस करना है उसकी प्रक्रिया से होते गुज़ारना है.  नीचे देखता तो लगता अब धरती  फट जाएगी तो मैं उसमें नहीं समां सकूँगा क्योंकि समाते