Skip to main content

दीबाचा

जिंदगी मौत का दीबाचा (भूमिका) है, क्या अजब कि इनको पढ़कर आपको मरने का सलीका आ जाए  
 ----- सआदत हसन मंटो 
*****

बड़े से आँगन के किनारे ढेर सारी अगरबत्तियां जल रही हैं... कुछ लोग खाना खा रहे हैं ... एक आदमी के सामने मैं बैठा हूँ... हालांकि वो खा रहा है फिर भी जबरदस्ती उसे खाने का आग्रह कर रहा हूँ. वो हाथ लगाकर इनकार कर रहा है. मैं ताली बजाकर परोसने वाले को बुलाता हूँ. लड़का बाल्टी ले कर आया है. खाने वाला शोव्ल ओढ़ कर बैठा है.. वो नहीं खाना चाहता ...लड़के के आते ही वो पत्तल लेकर उठ पड़ा है... गीली दाल किनारे से बहने लगा है... वो आदमी अब लगभग उठ खड़ा हुआ है... 

मैं उसका हाथ पकड़कर उसे उसकी जगह पर बैठने का जिरह करता हूँ... बहुत मान मनौव्वल के बाद वो बैठ जाता है. वो और खाना लेने से फिर से इनकार कर रहा है. उसका हाथ बार बार उत्तेजना में सख्त मनाही के रूप में उठता है... मैंने जिद बाँध ली है...

पत्तल की दाल अब लगभग ख़त्म हो चुकी है... टप... टप... टप ! जैसे सईदा की पायल .. छम.. छम.. ! छम...छम... ! 
छिः ! मैं श्राद्ध भोज में भी कैसी बातें सोचता हूँ.

आँगन और बरामदे की लीपी गोबर से हुई है. ताज़ी लिपाई की हलकी सी महक गर्म होती हवा में घुल रही है. आँगन के बाहर द्वार पर झुके हुए रातरानी के पेड़ हैं. नवम्बर में यह शाम साढ़े पांच बजे से ही महकने लगता हैइसकी गंध तीखी हैमाथे में चक्कर आता है... सभी लोग नशे में हैंखाना खा रहे हैं ... नशे में ज्यादा खाते हैंनशे में खाने से ज्यादा खिलवाड़ करते हैं... नशे में खाने से ज्यादा फैंकते हैंयह बात मैंने अपने पूर्वजों से सीखी थी.... नशे में  लोग सब कुछ ज्यादा करते हैं... मेरा एक दोस्त खुद धतुरा खाने के बाद अपनी बीवी को भी भांग खिलाता है... भांग से ज्यादा वक्त तो जरूर लगता है .. मेरा एक और दोस्त भांग खा कर ज्यादा कवितायेँ पढता है. अमृतेश नशे धुत होकर अपने बहुत पछताता हैमेरा एक दोस्त नशे में शांत हो जाता हैएकदम शांतमेरा एक और दोस्त (मुझे नाम नहीं याद आ रहा चूकि मैं भी नशे में हूँ) मेरा एक और दोस्त.... ओह ! मेरा एक और दोस्त....  लाफ्दाफ्ताफ़....लाफ्दाफ्ताफ़... (लडखडाई/बौरायी जबान)

मैं कहाँ था... हाँ... खेत में... मेड़ काट रहा था... उस तरफ पानी जाना चाहिए अब... क्या ? ! नहीं ऐसा तो नहीं था... चांदनी रात में खेत में मेड काट कर पानी बहाना कितना सुखद है... लेकिन मैं कहाँ था यहाँ तो नहीं था... हाँ मैं अपने बाबा का गर्म शोव्ल पकड़ते चल रहा था... कितना गर्म था वोदादी के कहानी जैसी.. नर्म सी... माँ जब चूल्हे के पास रोटी बेलती थी तो दोनों हाथों में आधा-आधा दर्जन चूरियां हौले हौले बजती थी.. कैसा संगीत था वो उफ्फ्फ... मेरा सर दर्द से फटा जा रहा है... हाँ आराम आ रहा है अब... मैं टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर चला जा रहा हूँ ... थोड़ी थोड़ी देर पर सर में अचानक से चक्कर उठता है ... लगता है किसी ने मेरी बुद्धि हर ली है.... चाँद परात में गिरा हुआ है मेरे पैरों के पास... सबको नशे में रहना चाहिए... सूरज चाँद दूर थोड़े ना हैं... होश में आदमी कैसी पागलों वाली बातें करता है... प्लान बनाने लगता है ये चाहिएवो करना है... फलाना -ढीम्काना.... लाफ्दाफ्ताफ़....लाफ्दाफ्ताफ़... 

बैठो यारखा लो थोडा सा औरहाँ ढूधवाले तुम भी पैसा ले लेना... काकी तुमको सत्तर रुपैया देना है ना ...  क्या कहा ! दादी ने बाद में ढेड सौ रुपये और लिए थे ... मतलब तुमको तीन सौ रुपये देने हैं. अरे रहने दो नासीधा हिसाब - तीन सौ देने हैं .... पीछे से गाडी की आवाज़ आ रही है... हांय ! यह तो ट्रेक्टर है... मादरच *** सारा कीचड हमें पर उड़ा गया... लाफ्दाफ्ताफ़....लाफ्दाफ्ताफ़... 

सरकारी स्कूलइसकी खिड़की के दो रोड तो मैंने ही तोड़े थे... यहाँ से काने हेडमास्टर को गरियाना ... आह ! बचपन फिर से लौट आये... क्लास टीचर चमचमाता कुर्ता पहनते थे ... कितने खिले हुए लगते थे... सांवले से शरीर में बंधा हुआ रेशम लगता था... उसकी बेटी ने मुझे पहली बार तब देखा था जब उसे खजूर के बीज से मारा था.... इनारे के पीछे आधे घंटे बैठे थे... कुल ढाई घंटे तक उसे भगाए रखा था... हडकंप मच गया था उस दिन... .. घंटा ! कहाँ गया था उस दिन अनुशासन का डींग हांकना... पहली बार मेरे कारण स्कूल में आधे दिन पर छुट्टी हुई थी...  

जिस साल आम होता हैउसी साल लीची भी आती है... दोनों का क्या रिश्ता है आखिर... अबकी दुर्गा माँ किस पर सवार होकर आ रही है आशिन मेंछह महीने तो पानी में ही खेत डूबा रहता है.. गेंहू का रंग कैसा सुनेहरा हैदुनिया क्यों सोने के पीछे मरती है गेंहू ... हाँ गेंहू जब पकती है तो माँ के दामन जैसा लगता है जब खड़ी - खड़ी खेत में लहराती है तो ... तो... तो ...

उस पार ले चलोगे नाव वाले बदले में अपने गमछे से तुमको कुछ मछली पकड़ कर दूंगा.... यह देखो मछली.. इसका गलफड़ा कितना लाल हैताज़ा ताज़ा... !! तेरी बेटी की देह से भी मछली की गंध आती है शादी करा दो मेरी उससे... गोड़ पड़ता हूँ तुम्हारे ... शादी करा दो उससे मेरी... लाफ्दाफ्ताफ़....लाफ्दाफ्ताफ़...

Comments

  1. गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
    रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना मेरे आगे....


    अभी नशा चढ़ना शुरू ही हुआ था की ये ख़त्म हो गई...
    उफ़ !!! ... सोचालय है या मदिरालय :)

    ReplyDelete
  2. पत्तल की दाल अब लगभग ख़त्म हो चुकी है... टप... टप... टप ! जैसे सईदा की पायल .. छम.. छम.. ! छम...छम... !
    छिः ! मैं श्राद्ध भोज में भी कैसी बातें सोचता हूँ.

    नशे में खाने से ज्यादा फैंकते हैं, यह बात मैंने अपने पूर्वजों से सीखी थी....

    मेरा एक और दोस्त (मुझे नाम नहीं याद आ रहा चूकि मैं भी नशे में हूँ) मेरा एक और दोस्त.... ओह ! मेरा एक और दोस्त.... लाफ्दाफ्ताफ़....लाफ्दाफ्ताफ़...

    माँ जब चूल्हे के पास रोटी बेलती थी तो दोनों हाथों में आधा-आधा दर्जन चूरियां हौले हौले बजती थी.. कैसा संगीत था वो ?

    चाँद परात में गिरा हुआ है मेरे पैरों के पास... सबको नशे में रहना चाहिए... सूरज चाँद दूर थोड़े ना हैं... होश में आदमी कैसी पागलों वाली बातें करता है... प्लान बनाने लगता है ये चाहिए, वो करना है... फलाना -ढीम्काना.... लाफ्दाफ्ताफ़....लाफ्दाफ्ताफ़...

    जिस साल आम होता है, उसी साल लीची भी आती है... दोनों का क्या रिश्ता है आखिर...

    गेंहू का रंग कैसा सुनेहरा है, दुनिया क्यों सोने के पीछे मरती है ? गेंहू ... हाँ गेंहू जब पकती है तो माँ के दामन जैसा लगता है जब खड़ी - खड़ी खेत में लहराती है तो ... तो... तो ...


    दीबाचा इतना ख़ूबसूरत है... अब पूरी कहानी भी लिख डालिए... जल्दी से...

    ReplyDelete
  3. क्या वाकई दीबाचा है.......... तो सागर साहिब कहानी का इन्तेज़ार रहेगा......

    नशे में वाकई इंसान जो करता है अति करता है - अनुभव ये बताता है पर सागर जी इनको शब्द देते है.......

    बढिया.

    ReplyDelete
  4. तो पूरी की पूरी पोस्ट ही नशे में है या नशीली है या पीकर लिखी गयी है या पीते-पीते लिखी गयी है... लाफ्दाफ्ताफ...
    एक लाइन से कुछ याद आ गया " उसकी बेटी ने मुझे पहली बार तब देखा था जब उसे खजूर के बीज से मारा था." हमलोग बचपन में खजूर खाते थे और उसके बीज एक खूसट पड़ोसी के आँगन में फ़ेंक आते थे. बड़ा मज़ा आता था कसम से... बचपन भी कम नशीला नहीं होता...
    तो सागर साहब आजकल मूड में हैं... लगे रहिये.

    ReplyDelete
  5. हेलुसिनेशन !!! इसमें कहानी खतरनाक हो जाती है | मुझे ये बेहद पसंद आता है |

    ReplyDelete
  6. ज़बरदस्त टुकड़ों में बंटी कहानी ...

    ReplyDelete
  7. जिसे मरना न आया, वह जीना क्या सीखेगा।

    ReplyDelete
  8. चाँद परात में गिरा हुआ है मेरे पैरों के पास... सबको नशे में रहना चाहिए... सूरज चाँद दूर थोड़े ना हैं... होश में आदमी कैसी पागलों वाली बातें करता है... प्लान बनाने लगता है ये चाहिए, वो करना है... फलाना -ढीम्काना.... लाफ्दाफ्ताफ़....लाफ्दाफ्ताफ़...

    पोस्ट का हर सेगमेंट नशे में लडखडाता है और सच्चाई सिर्फ सच्चाई कहता है....सबको नशे में रहना चाहिए!

    ReplyDelete
  9. अच्छी पोस्ट लगी !
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

    ReplyDelete
  10. शब्द कौशल अपने चरम पर है आपकी इस पोस्ट में...बधाई
    नीरज

    ReplyDelete
  11. पी लिखने वाले ने... और हेन्गोवर पढ़ने वालों को....:-)

    ReplyDelete
  12. वह बहुत सुंदर लिखा !

    किसी ने पूछा क्या बढ़ते हुए भ्रस्टाचार पर नियंत्रण लाया जा सकता है ?
    हाँ ! क्यों नहीं !
    कोई भी आदमी भ्रस्टाचारी क्यों बनता है? पहले इसके कारण को जानना पड़ेगा.
    सुख वैभव की परम इच्छा ही आदमी को कपट भ्रस्टाचार की ओर ले जाने का कारण है.
    इसमें भी एक अच्छी बात है.
    अमुक व्यक्ति को सुख पाने की इच्छा है ?
    सुख पाने कि इच्छा करना गलत नहीं.
    पर गलत यहाँ हो रहा है कि सुख क्या है उसकी अनुभूति क्या है वास्तव में वो व्यक्ति जान नहीं पाया.
    सुख की वास्विक अनुभूति उसे करा देने से, उस व्यक्ति के जीवन में, उसी तरह परिवर्तन आ सकता है. जैसे अंगुलिमाल और बाल्मीकि के जीवन में आया था.
    आज भी ठाकुर जी के पास, ऐसे अनगिनत अंगुलीमॉल हैं, जिन्होंने अपने अपराधी जीवन को, उनके प्रेम और स्नेह भरी दृष्टी पाकर, न केवल अच्छा बनाया, बल्कि वे आज अनेकोनेक व्यक्तियों के मंगल के लिए चल पा रहे हैं.
    http://www.maha-yatra.com/

    ReplyDelete

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार रच डाला. मनोरंजन प्रधान फिल्मों को व्यावसायिक सिनेमा के श्रेणी में रखा गया.             एक दीर्घकालीन संघर्ष के बाद स्वतन्त्रता के अभ

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष्टि से देखता है, यह बड़ी अजीब बात

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने   कलकत्ता का पहला सिनेमाघर एलफिंस्टन पिक्चर पैलेस   बनाया। यह सिनेमाघर आ