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Showing posts from 2013

अपने पसंद की विधा चुन लेना

मेरा कान है और फोन पर उसकी आवाज़ है। उसकी प्रवाहमयी क्रिस्टल क्लियर आवाज़। पर मेरे कान की श्रवण शक्ति जैसे मेरे शरीर में घूम रही है। वह मुझसे मुखातिब है लेकिन सुनती मेरी कलाई है। इस बात को उसने मेरे घुटने की हड्डी से कहा है। उसकी उस बात पर मेरे पैर के बाएं अंगूठे ने प्रतिक्रिया दी है। ये वाक्य कोहनी ने लपकी है और उसकी इस बात ने मेरे नाभि को चूमा है। अबकी उसने मेरी आंख से कुछ कहा और अब तो अब मुझसे भी बाहर जा चुकी है, देहरी पर सुस्ताता धूप भी यकायक उठ कर बात तो रसोई में तिरछी होकर घुस आई है। तकनीकी रूप से कोई बैकग्राउंड शोर नहीं है मगर पृष्ठभूमि में कुछ अन्य शोर हैं। हम अपने अपने कुछ काम निपटाते जा रहे हैं। बैकग्राउंड में सिंक में धुल रहे बर्तन की आवाज़ है, वह पानी का शोर सुनती है और कुछ देर के लिए चुप हो जाती है। उस ओर भी कोई फेरी वाला आवाज़ लगा रहा है, वह खुद बीच बीच में अपनी मेड को कुछ बता रही है, मैं चुप हो जाता हूं। हमारे हलचल साझा हो जाते हैं। किसी के प्यार में होना अच्छा है लेकिन मज़ा तब है जब वह संपर्क में न हो। मैं वहीं रहता है जहां मुझे पिछली दफे छोड़ा गया था। जीवन में एक दिन

इन दिनों.....

विगत डेढ़ महीन से रेडियो और टी.वी. के लिए स्क्रिप्टों पर काम कर रहा हूं। दिमाग भन्ना सा गया है। कुछ अपनी पसंद का नॉवेल पढ़ने, संगीत सुनने और डायरी लिखने का मन तभी होता है ऐसे किसी प्रोजेक्ट पर काम कर रहा होता हूं।  दिमाग की हालत हमेशा से बदहवाशी की तरह रही है। सीखता बहुत देर से हूं लेकिन पानी तेज़ी से चढ़ता है। जिस चीज़ से गुज़र रहा होता हूं उसी फॉमेट में दिमाग दौड़ने और सोचने लगता है। अगर किसी उमेठ कर लिखे हुए दिलचस्प नॉवल के पांच पन्ने पढ़ने के बाद उसी तरह से दुनिया दिखने लगती है। आधे होते होते लगता है जैसे मेरी किताब है, उत्तेजना बनी रहती है और पूरा होते होते सारा जोश ठंडा हो जाता है जैसे ऐसी भी कोई खास बात नहीं थी मेरे लिखने में। यही वजह है कि कभी कभी शब्द फीके लगते हैं।  विभिन्न जॉर्नर में और अलग अलग मीडियम के लिए लिखने में एक बड़ा खतरा एक खास तरह की बीमारी के शिकार हो जाने का खतरा रहता है जिसमें वहीं चीजों को जोकि कागज़ या कंप्यूटर पर लिखी जा रही होती है सामने घटती हुई प्रतीत होती है, लिखने वाला अपनी सोच के मार्फम अपनी कलम की रोशनाई से गुज़रता हुआ कागज़ पर लिखे जा रहे घटनाओं के बाज़ार क

सुषुम पानी से कहाँ बुझती प्यास- दो

जिस रात मैं जितना रोता अगली सुबह आप मुझे उतनी ही धुली हुई मिलती। मुझे आप फिर थोड़ी से बेवफा लगती . मुझे इसमें कोई कनेक्शन लगा। इसलिए मैंने खुद को तकलीफ देना शुरू कर दिया। धीरे धीरे मैं आपकी कक्षाओं में भी रोने लगा।   कितना कुछ समझा पाती है एक शिक्षिका भी? उतना ही जितना किताब बताता है और उसमें मिला अपना अनुभव। लेकिन ये एंडलेस है। चार लाइन फिर उसमें हम भी जोड़ते हैं। मुझे बहुत जोर का आवेगा जब दिल होता अपनी सीट से उठूं और जाकर एकदम से आपकी कलाई पकड़ लूं और कक्षा से बाहर बरामदे में, किसी खंभे के कोने में ले जाकर आपको कह दूं। और जब कह चूकूं तो चेतना इतनी शून्य हो जाए जैसे साइकिल की घंटी की बज चुकी ‘न्’ रहती है। फिर होश लौटे तो पता लगे कि मैंने जो कहा वो अटपटायी जबान में कुछ और था। ऐसे हिम्मत करके वही का वही कह पाने का मौका आखिर कितनी बार आता है। किस्मत में लिखी ही थी नाकामी कभी चुप रह कर पछताए, कभी बोल कर सर्दियों की वो क्लास याद है जब काली साड़ी पर आप मरून रेशमी शाॅल लिपटा कर आई थीं? चैथी कक्षा तक आंचल से शाॅल पूरी तरह उलझ चुका था। आपने ख

सुषुम पानी से कहाँ बुझती प्यास

वे कैसी मनःस्थितियां हुआ करती थी। समझाना तो बहुत चाहते थे मगर शब्द नहीं मिलते थे। अचानक से हकबका से जाते थे । अंग्रेजी की टीचर हुआ करती थीं। सात बजे सुबह सामुहिक प्रार्थना चल रहा होता था। हमको मन की शक्ति देना, मन विजय करें। और मन विजय नहीं बल्कि परास्त सा हो चुका था। आज सोचता हूं तो अंग्रेजी टीचर देर रात तक पढ़ती होंगी जभी प्रार्थना में जम्हाई ले रही होती थीं। लेकिन तब लगता था कि उनके पति ने उन्हें सोने नहीं दिया होगा। आखिर क्या कुछ करती रही होंगी इतनी रात तक? तब थोड़ी देर के लिए वे हमारे मन में बेवफा सी हो जातीं। दिल करता हाथ पकड़ कर कोने में ले जाऊं और समझाऊं, आपका पति आपसे उम्मीदें रखता है, आपको चूमता है, मैं कुछ नहीं कर पाता। उसके बनिस्पत मेरा प्यार ज्यादा सच्चा है। आप उसे मार नहीं सकतीं। जबकि मुझे अपने घरेलू झगड़े याद करके भी दस छड़ी ज्यादा मार सकती हैं। मैं कुछ हो सा गया है। आपको लेकर मैं रोता हूं, दोस्तों से बचता हूं। जब आप विलियम वर्डस्वर्थ और जाॅन कीट्स की किसी कविता का मर्म समझाती हैं तो शिद्दत से महसूसता हूं कि अभी तो मेरे पास आपकी समझ को छूने की काबिलयित नही

गौरी, मन चकरघिन्नी सा नाचे है रे!

गौरी (गौरीशंकर) मन चकरघिन्नी सा नाचे है रे। तू ही बता न ऐसे में मैं क्या करूं। काकी चूं चूं करती है। काकी बक बक करती है। कुत्ता भौं भौं करता है। भाभी की मुनिया भें भें रोती है। खुद भाभी भी घूंघट काढ़े भुन भुन करती रहती है। सचदेवा पिंगिल पढ़ता है। कठफोड़वा टक टक करता है। देहरी पर बंधी बकरी चकर चकर खाती रहती है, टप टप भेनारी गिराती रहती है और में में किए रहती है। अउर ऊ जो गईया है का नाम रखे हैं उसका कक्का दिन भर मों मों किए जाती है। हमको मरने के बाद बैतरनी का का जरूरत ? इसी हर हर कच कच में जिन्दे बैकुंठ है। आदमी तो आदमी जनावर तक सुरियाए रहता है। भोर हुआ नहीं, पंछी बोला नहीं, अजान पड़ा नहीं, घरिघंट बजा नहीं, रत्ना ओसरा बुहारी नहीं, सुधीर घोड़ा वाला खाना चना गुड़ अंटी में दाब के दौड़ने निकला नहीं कि भर हंडी भात परोस दो बूढ़ा को। भकोस कर हम पर एहसान करेंगे। और उस पर भी मिनट दू मिनट सुई टसका नहीं कि सुनो रमायन। हमारा पेट गुड़ गुड़ करता है। मन हद मद करता है। चित्त थर थर करता है। बैठल ठमा बूढ़ा मौगी जेकां कथय छै। बीनी से हांक रही गित्तु। गौरिया पर साल पारे गए कटहल के अचार संग गर्म भात मिल

उससे कहो कि आकर मुझसे लड़े

उसकी कोई खबर नहीं लगती। सूचना प्राद्यौगिकी के अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस रहने वाली के बारे में अब कहीं कोई जिंदा जानकारी नहीं है। चंद कतरे उसकी आवाज़ के अपनी जिंदगी में इक जगह सकेर रखा है। वहीं उसे थोड़ा बहुत पा लिया करता हूं। एक पोस्टकार्ड है, गहरे आसमानी काग़ज़ पर उसकी बचपने में लिखी कुछ सतरें हैं। एक फिल्म में काम करना भी। उसके अक्षर आंगन में ढुलकते लोटे जैसे लगते हैं।  उसे कहां कहां नहीं ढूंढ़ता। कनुप्रिया की किताब में, इज़ाडोरा डंकन के जीवन में, आंखों से बोलती किसी म्यूजिकल ब्लैक एंड ह्वाईट फिल्म में जहां दृश्यों के बीच तेज़ पियानो बजता है। मैं उसे खोजता हूं सखुए के पेड़ों के बीच, बदहवाशी के घोंड़ों के बीच, नींद और सपने के जोड़ों के बीच, अपनों से घिरे गैरों के बीच, सेंट ऑफ़ अ वुमेन के डांसिंग सीन के बीच, ज़हन में बॉस से डांट खाते खौफ के रील के बीच, जैसे मुझे अपने शहर का गंगा किनारे बहता गंदला नाला भी पसंद है वह भी मुझे उतनी ही अज़ीज है। भीड़ भरे हाट से थैला भर सब्जी खरीदने से कभी नहीं ऊबा मैं, शाम ढ़ले काठ की नाव से गंगा में डूबा मैं, दूर रहकर भी वो पड़ोसन की तरह ही लग

टूटता नहीं ये जादू

होंठ उसके जब भी लपकता हूं, गर्दन से गुज़रता हूं इरादे दरकने लगते हैं, लहू बहकने लगते हैं। मन जैसा कैसा ऊपर नीचे को होने लगता है। दिल होता है किसी चील की माफिक चोंच में दबा कर उसे उड़ जाऊं, इफरात समय निकाल, नितांत अकेलेपन में शिकार करूं नस नस चटका दूं उसकी, अपनी रीढ़ की हड्डियां तोडूं नहीं ही पूरा हो पता पक्षियों का सा ये ख्वाब तो गली के मुहाने पर झपट्टा मार कर पकड़ लेता हूं उसे निचले होंठ को अपने दांतों से महीन महीन कुतर देता हूं दोनों गालों पर अनार उगा देता हूं किसी दुख का बदला लेता हूं जाने कैसी संगति है मेरी, कैसा मनोविज्ञान है बिछड़ने से पहले कर डालो सब तकलीफ कम रहा करेगी वह कहती - एक मिनट रूको, जाना तो है घर ही वापस बस ज़रा लिपस्टिक लगा लूं /एक मिनट का अंतराल, जिसमें- बारी बारी से ऊपरी और निचले होंठ पर लिपस्टिक फिसलता है (मन होता मेरा मैं ही अपने होंठों से वो लाली मिला दूं)/ क्षण भर में बदल जाती वो मैं नहीं बदल पाया सदियों में हर पल में लगती वो खींचती हुई टूटता नहीं कभी ये भोर का -सा जादू !  

तुम्हें भी तो था न प्यार, तुम भी तो कह सकती थी

तकिए पे आहों की अनगिन सिसकियां हैं कभी तुम्हारा बाल टूट कर छूट जाया करता था जिसपर हाट ले जाने वाले झोले में अब बेहिसाब जिम्मेदारियां बैंगन, तोरी, टिंडा, मेथी, अजवाईन, जीरा, परवल एक ज़रा ध्यान तुम्हारा गया तो सुनीता चमकीं अरे ! दातुन नहीं लाए। परिपक्व हो चला अब बनाता हूं फौरी बहाने नीम का था, आज मिला नहीं उसे जवाबों ने न कोई लेना नहीं ही जरूरी भी कोई मेरा जवाब देना वो न सुनती, मैं न कहता सांझ ढ़ले लालटेन शौक से जलाती सुनीता आंखें क्षण भर दिप दिप करती, पलकों पे उसका कन्हैया नाचता मैं जान रहा होता, मोरनाच करते रोशनी को, उसके प्रेमी को वो समझ रही होती मैं छूट गया हूं जल्दबाजी में पोछे गए लिप ग्लाॅस की तरह अपनी प्रेयसी के पास हम दोनों बिला मतलब झगड़ते हम दोनों एक दूजे की बेबसी समझते, हम दोनों परस्पर हमदर्दी रखते हम दोनों आधी रात अनजाने में करीब आते हम दोनों किसी बहाने ज़ार ज़ार रोते और मजबूत होते हम दोनों नहीं होते मौजूद जब संभोग होता हम दोनों के बच्चे स्कूल जाते हैं, गेहूं पिसवाने को पैसे मांगते हैं। हम दोनों एक दूजे को अब तक नहीं पहचानते हैं। 

नेकलाइन - तीन

हाय ! कैसे हो? याद को वो पुराना सिलसिला इस प्रश्न से टूटा। मुझे लगा वो मेरे चेहरे पर विछोह के पड़ते फ्लैशेज़ कहीं देख न रही हो, सो जड़ता से लगभग टूटता हुआ मैं बोल पड़ा - हैलो, तुम कैसी हो। एज़ यूजअल बढि़या। उसने ज़रा और आत्मविश्वास से खड़े होने की कोशिश की। बढि़या शब्द उसके मुंह से काफी माड्यूलेट होकर निकला जो मुस्कुराने और हंसने के बीच की अवस्था में कहीं फंसा था। हम्मम..... - मैंने उसकी वर्तमान स्थिति से अवगत होते हुए कहा मुझे कम बोलता देख उसने दूसरा रूख अपनाया जहां से मुझसे कुछ बुलवाया जा सकता था। और तुम्हारे घर में सब ठीक? मम्मी, बुआ और मामाजी? हां, वो सब भी बढि़या। दरअसल मैं इस अचानक के मिलने के संयोग को अब तक स्वीकार नहीं पाया था, सो बेहद सर्तकता से अपने शब्दों को चुन रहा था। और मीता ? उसका क्या हाल है, इंटर में एडमिशन हो गया उसका? आं... हां। हो गया। सब्जेक्ट्स क्या लिए हैं उसने? - मैं हकबका गया। उसके अंदर अब भी उगलवाने की कला मौजूद थी। उसने भांप लिया था कि मैं बोलना नहीं चाहता। बरसों बाद कुछ खास किस्म के रिश्तों से जब हम टकरा ही जाते हैं तो उसके बारे में ज्यादा से ज्यादा

नेकलाइन- दो

मेट्रो की चौकोर खिड़की से बाहर शाम और रात का मिलना देखा जा सकता था। कभी कभी अंधेरे के बीच खड़े पेड़ और अंधेरा होने की मुहर लगा जाते। गाड़ी तेज़ी से फिसलती जाती और बाहर ट्रैफिक पर एथलीट की तरह रूकी गाडि़यां हरी बत्ती की हवाई फायरिंग का इंतज़ार कर रहे होते। कुछ झगड़े कभी खत्म नहीं होते। हमारा आपस में झगड़ा कभी शुरू ही नहीं हुआ। वे झगड़े जो कभी लड़े नहीं गए, अंदर बहुत झगड़ता है। मैं अंदर ही अंदर उससे अब भी झगड़ लेता हूं। कभी वहां से शुरू करता हूं जहां से सब असहमति भर हुई थी। कभी वहां से जहां विवाद की गुंजाइश थी। कभी उसकी आंखों के ऐतराज़ से ही। कभी उसके बायीं भवहों के तिरछे होकर ऊपर उठने भर से ही तो कभी फोन पर किसी से बात करते हुए थर्ड पर्सन के रेफरेंस के मार्फत ही। मेट्रो जब प्रगति मैदान से मंडी हाऊस के लिए अंडर ग्राउंड हुई तो लगा तो हम भी अपने अतीत के सुरंग में जाने लगे। सफर हमेशा किसी के याद में ही ज्यादा बीतती है। और ऐसे में उसके ठीक सामने पकड़ा गया मैं हम दोनों को भीड़ के बीच अकेला कर गई थी। वो आज भी उतनी ही साहसी है। जिन जिंदा सवालों के साथ वो मुझे घूरे जा रही थी उससे तो भीड़

नेकलाइन- एक

भीड़ में सहसा मुझे देख उसकी आंखें महकीं। चश्मा जोकि थोड़ा ढ़लक आया था सो उसने चार आंखों से मुझे देखा। मेरी निगाहें लगातार उस पर थी। नेकलाइन पर बल पड़े और वो आधी इंच नीचे धंस आई। चश्मे वालों के साथा थोड़ी दिक्कत ये होती है कि उसके शीशे पर अगर लाईट पड़ती है तो शीशे पर रोशनी की एक शतरंजी खाना नज़र आता है फिर एक पल को यह संदेह उपजता है कि उसने मुझे देखा या नहीं। और इसी दरम्यान अगर हम नहीं चाहते कि वो हमें देखे तो हम किसी दीवार के आड़े आ सकते हैं, नीचे झुक सकते हैं, पीछे मुड़ सकते हैं।  आंखें किसी को कैसे चीन्हती है। पहले स्वाभाविता में नज़र पड़ती है फिर सहज ही गर्दन इधर उधर घूम जाती है लेकिन उस पहचाने की आंख हमारे स्मृतियों में सहसा धंस आती है और तंग करने लगती है। संबंधों में एक लाख शिकायत के बाद भी पहली प्रतिक्रिया मुस्कुराहट की ही होती है। वो स्केलेटर से चढ़ रही थी और मैंने सीढि़यां ली थी। ऊपर प्लेटफार्म पर हाॅर्न बजाती मेट्रो आने या जाने का संकेत दे रहा था। अमूमन सभी मानकर चलते हैं कि गाड़ी अब लगने वाली होगी, सो सबके कदमों की रफ्तार बढ़ जाती है। एक दूसरे को पहचानने की क्रिया को

......

उसके होने का गंध उसके नाभि से फूटती है लेकिन शब्द कहां से फूटते हैं? यूं ही विशाल पुस्तक मेले में अनजाने से बुक स्टाल पर बाएं से आठवीं शेल्फ में अमुक किताब का होना कि जहां दुकानदार भी नहीं उम्मीद करता हो कि पाठक यहां देखेगा सो वहां किताबों का सा भ्रम देता कुछ भी रख दो।  स्टाल पर कोने में ग्रे कालीन पर उन शब्दों से गुज़रते हुए जाने क्यों लगता रहा कि उसके लिखे जाने से पहले वे शब्द हमारे ज़हन में महफूज थे और किसी ने सेंध मार कर यह निकाली है। पढ़ना कई बार वही सुहाता जो हम पहले से जान रहे होते हैं। यह सोचना भी बहुत सुखद लगता कि हमारे शब्द साझे हैं। दिमाग से सरसरा कर फिसलते हुए उनकी उंगलियों के बीच फंसे कलम से कैसे किसी काग़ज़ पर वे आकार लेते होंगे? क्या 'द' वैसा ही होता होगा जैसा उनके दिमाग में उपजा था, या कि उनकी उंगलियों ने उसे सफहे पर रोपते हुए कोई कलाकारी कर डाली थी। उनका लिखा 'ज' भी आह कितना आत्मीय! पहचाने से शब्द जिन्हें बीच के बरस में कहीं भूल आए थे और उस भूलने की याद भर आती रही। यों ही अनायास वो पढ़ना छोड़ उन उंगलियों का ख्याल करने लगता हूं जो सर्फ से धोए ज

फेसबुक स्टेट्स !

लड़की ने अपना फेक फेसबुक अकाउंट खोला। सर्चबार में आर लिखा और दूसरे विकल्प को सेलेक्ट किया। ‘इसके सिर्फ टैग की हुई तस्वीरें और अपडेट्स दिखते हैं और लंबे अरसे से इसने किसी को टैग नहीं किया है’ फिलहाल वह स्क्राॅल डाऊन करके ‘शो ओल्डर स्टोरीज़’ में जाकर उसके पुराने स्टेटस देख रही है। अंर्तजाल पर यूं तो अरबों शब्द छींटे हुए हैं। जिनमें से हज़ार शब्द उसके भी हैं। पुराने स्टेट्स पर भी सरसरी निगाह डालते हुए उसमें जहां कहीं उसका अपना नाम दिखता  - आह! कितना सुखद अतीत!! मुझे ज़हन में रखकर लिखी गई महबूब की ये पंक्तियां। नियान लाईट की रोशनी लिए उन आंखों में क्षण भर के लिए एक सौ अस्सी वाॅट की चमक आ जाती है। और ये स्टेट्स उस शाम की है जब थोड़ी देर को सोकर उठी ही थी। सर में तेज़ दर्द था और दिल कर रहा था कि इस सूने घर में किसी को आवाज़ देकर कहूं - दीदी अदरक वाली चाय बना दो। कि तभी फोन की घंटी बजी। दिल ने जैसे धड़कना शुरू कर दिया। तकिए को हटाया तो लगा जैसे वो तकिए के नीचे ही आवाज़ लगा रहा था। फोन का रिंग भी जैसे मेरा ही नाम पुकार रही हो। स्क्रीन पर उसका नाम चमक रहा था। एन काॅलिंग..... के बा

A thousand things to forget....

जनाब एक मिनट अपना कीमती समय दीजिए। रूकिए एक मिनट! आपने अपने व्यवहार से तो अपनी बात कह दी। मैं ज़रा अपने मुंह से अपनी बात कहना चाहूंगा। मैं जानता हूं कि मुझे इसके लिए आपके अनुमति की जरूरत नहीं है। क्योंकि अगर आप नहीं सुनेंगे तो भी मैं अपनी बात कहूंगा। किसी से भी कह लूंगा। रसोई की दीवार से, अरूणेश के छज्जे से, कमरे के बाहर लटकती टाट के परदे से और गर महसूस हुआ कि गुसलखाने का सड़ रहा पयताना ही यदि मेरी बात सुनने में इच्छुक है तो मैं उससे ही कह लूंगा। मैं जानता हूं कि मेरी बातों से धुंआ नहीं उठता। यह एक ठंडी बुझी चुकी राख की मानिंद है जिसमें अब कोई चिंगारी नहीं। आप धीरज रखें मैं आपको यह आश्वस्त करना चाहता हूं कि यह कोई बवेला नहीं मचाएगी। मैं जानता हूं कि आपकी जिंदगी फेसबुक की तरह है जहां फलाने कहे को भी लाइक करना और चिलाने के उद्गार पर भी कमेंट करना है। क्षणभर में कहीं प्रशंसा भी करनी और तत्क्षण ही किसी दूसरे स्टेटस पर अफसोसजनक भी लिखना है और बढ़ जाना है। अपनी रीत और बीच चुके जीवन के आधार पर मैं यह चाहूंगा कि मेरा कहा आपका मनोरंजन नहीं करे। क्योंकि मैंने पाया है कि मैं मनोरंजन दे स

Guzarte Lamhen, passing moments via cinematic angle and '!!!'

27th May, 12 / Rasoi/ 12:55 AM (approx.) कल रात भारतीय समयानुसार   (how Hindi changes our thoughts!) IST 11:08 पर उसका कॉल आया। हैलो के बाद बीच के समय में हमारे संबंधों की गर्माहट घुल आई। पिछले मार्च में जब हम मिले थे तो हम कोस्टा कॉफ़ी  में हम बैठे थे। पेपर नेपकिन उठाते समय उसने मेरा हाथ पकड़ा था। बहुत धीमे धीमे मुझमें कुछ हुआ था। मैं सिकुड़ने लगी थी। समझ नहीं आया कि कई बार जिंदगी भर धोखा खाने और छलावे को रिश्ते में रहते हुए भी हम नए किसी रिश्ते के लिए तैयार क्यों हो जाते हैं? जबकि हम जान रहे होते हैं कि हमारे बाकी प्यार और रिश्ते की तरह यह भी अनकंडिशनल है। क्या हममें मना कर पाने की इच्छाशक्ति नहीं होती या फिर पहचान की यह दस्तक हमारी जीवन में उम्मीद बनकर आता है। रोशनी भी अजीब शै है, पूरी उम्र अंधेरे की आइसपाइस करते बिता देने के बाद भी हममें कहीं यह धप्पा बनकर पैठ जाती है। मैं अक्सर सोचती हूं कि आर को आखिर किस चीज़ की तलाश है! वेल...... अलग होते समय आर ने मेरे बाएं गाल उसके चुंबन लिया जिसने मुझमें एक नया जोश भर दिया था।   ------पॉज ......../कॉफ़ी ब्रेक / 30th May '12

मरती हुई मछली याद में ज़िंदा रह जाती है

17.03.12 at 11:52 PM आज अनजाने में ही ए का हाथ मेरे हाथ से छू गया। छुअन को लेकर मुझे लगता है कि हार्ड टच उनता अहम नहीं होता जितना किसी की त्वचा के साथ हमारे त्वचा के रोएं भर स्पर्श करें। इस सिलसिले में मुझे याद है तब मैं बारह की थी और सातवीं में पढ़ रही थी, लंच से ठीक पहले चौथे पीरियड में मृगांक ने एक लंबी गर्म सांस मेरी गर्दन पर छोड़ते हुए मेरे कान की लौ पर अपने नाक से एक धीमा सा स्पर्श कराया। मैं सिहर उठी थी। वो मेरी पहली सिहरन थी। छुअन का वो रोमांच मुझे आज तक याद है।   खैर......आज के इस स्पर्श से हमदोनों ही चौंक गए। हमने खुद को एक दूसरे से एक झटके से अलग किया। जब भी हमारी नज़र मिलती, हम एक दूसरे को तौलते, बैलेंस्ड बनने की कोशिश करते। फिर रिपोर्ट को समझते समझते मैंने बनावटी गुस्सा अख्तियार किया तो ए पूरी तरह सहम चुका था। मुझे उसका यूं डरना अच्छा लगा। 22.04.12 at 8: 47PM कल शाम ऑफिस से जल्दी पैक अप हो गया। मैं हूमायूं के क़िले को चली गई। जाने क्या मन हुआ कि मैं किले के अंदर न जाकर बाहर पार्क में ही टहलने लगी। आसमान बहुत गहरा नीला था। नीती जैसे अपने कैनवस पर नीले रंग

गले की नस पर चाक़ू के धार की जांच

इ एम आई

मानो जिंदगी एक पज्ज़ल हो, बहुत तनहा हो, और जिम्मेवारी से भार से लदी फदी भी। ऐसे में वह अपने अपने अंतरतम से कनेक्ट हो गया हो। दुनिया के अंदरूनी सतह पर एक दुनिया और चलती है जिससे वह जुड़ गया हो। जहां खामोशी ही प्रश्न हो, चुप्पी ही उत्तर, मौन की बेचैनी हो। खामोशी ही वाक्य विन्यास हो, यही व्याकरण हो। मास्टर ने नंगी पीठ पर कच्चे बांस की लिजलिजाती करची से सटाक दे मारा हो और शर्त यह हो कि उस जगह जहां तिलमिलाते हुए हाथ न पहुंचे वहां नहीं सहलाना हो।  वह लगातार फोन कर रहा है। मजाज़ का शेर चरितार्थ हो बहुत मुश्किल है उस दुनिया को संवरना, तेरी जुल्फों का पेंचो खम नहीं है। रिवाॅलविंग चेयर पर एक कान से फोन का रिसीवर चिपका हो और दूसरा हाथ हवा में जाने क्या सुलझा रही हो। जीने के कितने पेचीदा गुत्थी हो, मसले रक्तबीज हैं। अपने मसाइल सुझल नहीं रहे, ग्राहकों की वित्तीय समस्या सुलझाई जा रही है। कि अचानक एक अधिकारी आवाज़ देकर बाॅस के चेंबर में बुलाता है। बाॅस का केबिन? प्राइवेट नौकरी यानि चैबीस घंटे गर्दन पर लटकती सलीब। दिखावे से शरीर से आॅफिस में उपस्थिति के बारह घंटे। प्राईवेट नौकरी की जैसी अप

जिंदगी क्लोज-अप में ट्रेजेडी है, लेकिन लाँग-शॉट में कॉमेडी।

बहुत सारा प्यार करने के बाद यूं अचानक लगता है कि जैसे अब प्यार नहीं कर रहे हैं। अब अपने अंदर का अकेलापन किसी से सांझा कर रहे हैं। कि जैसे एक समय के बाद ये बड़ी वाहियात शै लगती है। लगता तो ये भी है कि प्यार नहीं होता ये बस आत्मीयता, घनिष्ठता उसके साथ में सहज लगना, अपने मन की बात को बेझिझक उसके सामने रख देने की बेलाग आज़ादी, फलाने की आंखों में अपने इंसान भर बस होने का सम्मान वगैरह वगैरह में बंट जाती है। कल रात यूटीवी वल्र्ड मूवीज़ पर एक सिनेमा  देखा । ए गर्ल कट इन टू। विश्व सिनेमा बस उस बड़े फलक को महसूसने और सिनेमैटोग्राफी के लिए देखता हूं। कम लोग हैं जिनके लेखन के शब्दांकन और उसका फिल्मांकन पर्यायवाची हो सकता है या कागज़ पर है। कथित फिल्म की नायिका एक टी.वी. कलाकार है और एक 50 साल के लेखक से प्यार कर बैठती है। मुहब्बत भी अजीब शै है साथ ही बौद्धिकता भी। अपनी जवानी निसार कर रहा एक  जूनूनी लड़का उसे प्रोपोज कर रहा है लेकिन उस लेखक का भेजा महज एक बुके उसे अंदर से रोमांचित कर देता है। वह सब कुछ छोड़कर भागी भागी उसके पास जाती है। यहां बिस्तर साझां करना कोई शर्त नहीं।  कहानी क

ट्रेडमिल पर स्लो मोशन में भागती लड़की

तुमसे ही तो कायनात सारी तुमसे ही तो ऊँचा फलक आंखे ऐसी कि जुबान  बेमतलब  नमक-तेल  और पकाई हुई लाल मिर्च में लिपटी रोटी गुलाबी होंठ पतले-पतले जैसे छप्पर से लिपटा लौकी का नन्हा टूसा किसी बच्ची के नर्म गर्म उंगलियों का स्पर्श नमी भरे चमकीले बदन पर उभार जैसे जैसलमेर के रेगिस्तान में तेज़ हवा से रातों रात जमा हुए रेत के धोरे कमर जैसे बर्थडे पर फुलाया जा रहा आकार लेता गुब्बारा पहली बारिश के बाद पके अमरूद पर  एक कट्टा दांत  काटने  का निशान नितंब उजले बालू में गुना दर गुना पैठ गया और  खूब  पानी  खाया घड़ा मेरी, शिकार हो चुकी सिकुड़ती सांसे लो ब्लड प्रेशर का शिकार मैं इनसे लग कर सोऊं तो लगे बुखार में कोई माथे और तलवों पर पट्टियां करता हो कोई।

एन जी शॉट्स के बीच का क्लासिक क्लिक

भाई सा’ब आपने उनकी हंसी सुनी क्या? वे हंसती हैं तो मटर की छिमियां खुलने लगती हैं। उजले रेत पर लेटे परवलों के नीचे नमी आ जाती है। गंगा में उतरी नावें ज़रा ज़रा हिचकोले लेने लगती है। खुद गंगा का पानी भी तो रहस्यमयी होने लगता है। उनकी हंसी आधी पिघल चुकी मोमबत्ती है। एक गुज़र चुका अधूरा फसाना है। उनकी हंसी किसी उत्कृष्ट साहित्य के छह छूट गए पन्ने हैं। किसी दिलचस्प सिनेमा के बयासी प्रतिशत अंश देखने बाद कट गई लाइट के बायस क्षोभपूर्ण एहसास के बाद की अपनी कल्पना है।  उनकी हंसी एक उजले बोर्ड पर एक बिंदु है। सुराही के बेहद महीन रंध्रों के बीच पानी का बारीक चमकीलापन है। भाई सा’ब आपने उनकी हंसी सुनी क्या?

एपिक के सेलेक्टेड सीन्स !

भाई सा’ब आपने उनकी हंसी सुनी क्या? उन्हें देखता हूं तो लगता है वो पटना की ही हैं हमेशा से.... उनके ताज़ा कंधे से उसी शहर ठहरे हुए शहर की महक आती है जहां की मूर्तियां फिर से उनके हंसी का इंतज़ार करते जागना भूल गए हैं। मुझे यकीं नहीं होता जब कोई कहता है अमां यार वे तो वीनस की हैं। कम उम्र में ही उनके होंठ पूरी तरह खिल चुके अड़हुल या गुलमोहर की तरह लगते हैं। उनका ख्याल आते ही पेट में मेरे गुलाबी तितलियां उड़ने लगती हैं। याद आने लगती है सोनू निगम के जान और दीवाना सुनने वाले दिन.... कि आधे आधे पैसे से आर्चीज़ से आॅडियो कैसेट खरीदना और एक एक रात के लिए उसे अपने पास रख रात भर बजाना फिर उन गानों को निचोड़ कर जो रस निकले वो कागज़ पर लिखना, अगले दिन उन्हें देना। हो ओ ओ आ हा हा.... हो ओ ओ आ हा हा बैक टू बैक सिंगगिंग.... क्या वे जानती हैं कि वो मुझे अच्छी लगती हैं ? क्या वे वाकिफ हैं कि मेरा उनसे जी लग गया है? मुहल्ले का कोई नादान बच्चा अपनी तोतली आवाज़ में उनके पीछे दौड़कर जाए और उनका हाथ पकड़ हांफते हुए उनसे कह दे -दीदी...... वो पलोछ वाले भैया को आप बहोत अच्छी लगती हैं। वो आपको

डंप फुटेज के फ्रीज़ शॉट्स

भाई सा’ब आपने उनकी हंसी सुनी क्या? जो उनकी जुल्फों में चने को जो बांध कर रखो तो भोर तलक अंकुरित भी हो जाए और काला भी न पड़े। मैं आदिवासी बन गया हूं। जब दूर तक बारिश के आसार नहीं हैं तो फुहारों सी उनकी हंसी को अपनी हंसुली बनाकर पहन रखा है। उमस का ये मौसम चंदन महका रहा है। उनकी हंसी विषुवतीय रेखा पर बसर करते लोगों की दूधिया मुस्कान। समझ नहीं आता उनकी जान ले लूं या अपनी जान दे दूं। नहीं समझ पाता उन्हें प्यार करना चाहता हूं उनके व्यक्तित्व से प्यार है। क्या जिंदगी उनके पुष्ट उभारों में छिपा कोई अमरूद का नन्हा सा सौंधा बीज है? थिरमना कौम बदलना चाहता है। भाई सा’ब आपने उनकी हंसी सुनी क्या?

सुरमई याद के क्रोमा कलर

 भाईसा’ब आपने उनकी हंसी सुनी क्या ? वे इस तरह हंसती हैं जैसे उमस भर मौसम के बाद एक रात बारिश होती है। सुबह जब आप टहलने निकलते हैं तो अधिकांश सतह सूख चुकी होती है लेकिन छोटे छोटे गड्ढ़ों में पानी के चहबच्चे जमा हो जाते हैं। सकेरा हुआ ठहरा पानी सपना है और उदास और सपाट सतह मेरा जीवन। मैं ढ़लान खोजते हुए गोल्फ की गेंद की उन चहबच्चों में डुबक जाना चाहता हूं। माफ करें मैं गेंद का आयतन भी नहीं पाना चाहता क्योंकि वो एक शुरूआती डुबकी के बाद उन चहबच्चों में उतराने लगती है। कुछ कुछ ऐसे ही हेलती है जैसे बीच नदी नाव के चारों ओर डूबते बच्चे बचाने की गुहार लगाते हैं। मैं भूरे कंचे वाली उन आंखों की रोशनी की गहराई में किसी आवारा लड़के की सिद्धस्त उंगलियों द्वारा कंचे की तरह पिल जाना चाहता हूं। मैं उसकी हंसी के निर्वात में गौरैया का पंख बन जाना चाहता हूं। भाईसा’ब आपने उनकी हंसी सुनी क्या ?

वन टेक ओ. के.

भाई सा’ब आपने उनका हंसना सुना? हंसती है तो लगता है मानो हलक में छोटी छोटी मछलियां फिसल रही हैं। लगता है गले में कोई गीला गीला रंदा लगा पैड लगा है। नारियल का खोईया। अलगाते चलिए। जाने कहां जाकर, कितनी तहों में फल मिले। वह इज़ाडोरा डंकन की तरह जीवन में आ कर दस्तक दे जाती है। उसका गला अब तक कुंवारा है। वो इस तरह हंसती हैं जैसे सरकारी स्कूल में आप पड़ोस वाली सहपाठी के रानों पर मोटी मोटी च्यूटियां काटते हैं। जैसे हंसी समेटते समेटते दांतों के बांध को तोड़ बिखर गई हो। जैसे पारखी मजदूरिन खुदे खेत से भी घाघरा भर आलू निकाल लाए। स्पंजी गालों में थरथराता भंवर बनता है, धूप में रखा शीशी में बंद आयोडीन पिघल जाता है, पानी में हिलता लेंस का क्लोज अप, डर्बी घोड़े दौड़ते हुए किसी मोड़ पर मुड़ना, पंद्रह हज़ार हाॅर्स पाॅवर की ऊर्जा, धीमी गति से न्यूट्राॅन  कणों का हमला और नाभिकीय विखंडन। और आपको बरबस ही उसे प्यार करने को मन हो आता है। मैं उसके प्यार में जी रहा हूं, क्या कहें मर रहा हूं, या कहें कि मरते हुए जी रहा हूं या ये ही मान लें कि जीते हुए मर रहा हूं। माफ करें मैं एक्जेक्टली नहीं जानता कि

रेडियो बरक्स हिंदी फ़िल्मी गीत

सिगरेट की आदत तब तक नहीं लगती जब तक दोस्तों के बीच मुंह में धुंआ भर कर, जबरदस्ती खांसी रोककर, गले की नसें सूजाकर और आखों में उसकी जलन को रोककर लाल करते हैं। सिगरेट की आदत उस दिन लग जाती है जब आप सुबह के सात बजे खास तौर से खूंटी पर टंगी कमी़ज को उठा कर उसके दोनों हत्थे में सीढ़ी से उतरते हुए उन हत्थों में डालते हुए, गली में चलते हुए उनके बटन लगाते हुए नुक्कड़ पर की गुमटी पर पहुंच जाते हैं और सिर्फ एक अदद सिगरेट दुकानदार को देने बोलते हैं। उस दिन सिगरेट की आदत लग गई पक्की समझिए। आज भी जो लिख रहा हूं वो भी कुछ ऐसा ही समझिए। बिस्तर पर था और एक बेचैनी थी, करवट काट रहा था। रहा नहीं गया तो उठ कर लिखने बैठ गया हूं। कोई तोप या धांसू चीज़ नहीं लिख रहा, न साहित्य रच रहा हूं। बस पिछली बार की तरह ही हिंदी फिल्मी गीतों के मुताल्लिक कुछ बातें हैं। जैसे जैसे मन में बातें आ रही हैं लिख रहा हूं। पृष्ठभूमि में रेडियो चल रहा है और जो बात दिमाग में फिलहाल छन कर आ रही है वो ये कि हिन्दी फिल्मी गीतों में ख्य्याम का संगीत अजब कोमलता लिए हुए है। उनके संगीतबद्ध किए गीत जब सुनता हूं तो लगता है जैसे किसी कमस

याद बरक्स हिंदी फ़िल्मी गीत

सु ब्ह से एआईआर की उर्दू सर्विस सुन रहा हूं। इतने अच्छे अच्छे फिल्मी गीत आ रहे हैं कि काम करते करते उंगलियां कई बार ठिठक जाती हैं और उन गीतों के बोलों में खो जाता हूं। गज़लें कई बार दिमाग स्लो कर देती हैं और एक उदास सा नज़रिया डेवलप कर देती हैं। कभी कभी इतनी भारी भरकम समझदारी का लबादा उतार कर एकदम सिंपल हो जाने का मन होता है। रेट्रो गाने सुनना, राम लक्ष्मण का संगीत ‘उनसे कहना जब से गए हैं, मैं तो अधूरी लगती हूं’ टिंग निंग निंग निंग। इन होंठों पे प्यास लगी है न रोती न हंसती हूं। लता ताई जब गाती हैं तो लगता है, मीडियम यही है। इन गानों में मास अपील है। सीधा, सरल, अच्छी तुकबंदी, फिल्मी सुर, लय और ताल जो आशिक भी गाएगा और उनको डांटने वाले उनके अम्मी-अब्बू भी। समीर के गीत गुमटी पर के पान के दुकान पर खूब बजे। ट्रक ड्राईवरों ने अल्ताफ राज़ा को स्टार बना दिया। और कई महीनों बाद जब इन गानों पर हमारे कान जाते हैं तो लगता है जैसे दादरा, ठुमरी, धु्रपद और ख्याल का बोझ हमारा दिल उठा नहीं सकेगा। हम आम ही हैं खास बनना एक किस्म की नामालूम कैसी मजबूरी है। हांलांकि यह भी सच है कि देर सवेर अब मुझे इन्