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कन्फेशंस एंड एक्स्टसी


वो बीमार है और इसका ख्याल कर जहां तक मेरी समझ में आता है कि इस वक्त लोग अपने बिस्तर पर पड़े पड़े रिश्तों की सख्त पड़ताल करते हैं। नफा नुकसान सोचते हैं। अंदर ही अंदर अपने अति पर आगे से तौबा करने की ठानते हैं। वो गुस्सा, वो तुनुकमिज़ाजीपना जो आदमी के व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाता है और जब वो स्वस्थ होता है तो उसे यदि तब आप उसके व्यवहार की यही गलतियां बताएं तो वो अपने को ज्यादा स्मार्ट, ज्यादा बेहतर और काबिल समझता है, लेकिन बीमारी में अक्सर लोगों का प्रतिरोध घट जाता है और उसे एहसास होता है कि हां फलां दिन हमने थोड़ी गलती की थी। मैंने यह भी नोटिस किया है कि आदमी इसी को कहते हैं कि अस्पताल के बिस्तर पर भी वो उसी ‘थोड़ी’ में अपने को संतुष्ट पाता है। अक्सर ऐसा भी होता है कि जब आदमी ठीक हो तब उसे यदि आप साइको कह दें तो वह भड़क उठता है। गुस्से में तमतमाए क्षणों में वह पागल है यह आदमी स्वीकार नहीं कर पाता। लोग लाड़ दुलार के क्षणों में ही, प्यार में ही खुद को अपने पर ही रीझ कर पागल भी लेते हैं या सामने वाले का यह संबोधन बिना किसी ऐतराज़ के स्वीकार कर लेते हैं। और कई बार तो वे अपने अति को अंदर ही अंदर जान उस समय सामने वाले से ही यह सुनने की प्रतीक्षा भी करते हैं। मैंने उसके ईगो को जब भी सहलाया उसके चेहरे पर वैसी खुशी रिफ्लेक्ट हुई जैसे कोई ठंडे दिनों में आइसक्रीम खाकर खुश होता।

आम दिनों के झगड़े में जब मैं उससे बहस में हारता तो खीझ कर कहता कि मैं पागल हूं, आलसी, कमीना, नमकहराम और काहिल हूं और तुम बहुत महान, विद्वान और चमत्कारिक हो तो उसके चेहरे पर यह सुनकर एक कुटिल मुस्कान आ जाती। यह इस बात का द्योतक होता कि हां तुम सही कहते हो, और मैं तुमसे सहमत हूं।

तो आदमी और रिश्ते के बारे में इतना सा नोटिस कर मैं उसके पास गया। मुझे उसके नज़दीक जाने का यही मौका सबसे मुफीद लगा। हम मर्द ऐसे कमज़ोर लम्हों का फायदा उठाने में उस्ताद होते हैं। डीटीसी के बस में टिकट लेने में मदद करने के बहाने, सीट देकर उसके ठीक पास खड़े होकर उसके क्लीवेज़ के मार्फत स्तनों का दूर तक देखने का रस्ते भर का प्रयास, अपना स्टॉप आने पर आगे निकलने के बहाने इस एहसास को जा़हिर करता कि हमारा हाथ तो हैंडल पर है लेकिन भीड़ और धक्कामुक्की की वजह से अपने कोहनी से उसके उभारों की साइज़ नापकर दबाने में हम उस्ताद होते हैं। वैसे उस्तादी की बात आई है तो मुझे जैसा आदमी पुरूष मित्रों का फोन भले जानबूझ कर न उठाएं लेकिन महिला मित्रों का फोन जरूर उठाता है और यदि बदकिस्मती से नहीं उठा पाया तो वापस कॉल बैक भी करता है। उसकी यथासंभव मदद को हाज़िर रहता है। तब उसकी तकलीफ हमारी होती है और दुख के उस परम क्षणों में भी उसकी आवाज़ मुझे बड़ा सूकून दे रही होती है। और साहब मैं तो यहां तक कहता हूं कि उनके दुख दर्द से मुझे सहानुभूति तो जरूर रहती है लेकिन मैं अंदर ही अंदर यह सोचकर खुश होता हूं और तसल्ली दे रहा होता हूं कि चलो कम से कम वो मुझसे किसी बहाने बात को कर रही है और उसकी पतली, मादा आवाज़ से बड़ी राहत पाता हूं। कई बार तो उसकी समस्या सुलझ जाने पर भी मैं अनजान और मासूम बनकर घुमा फिरा कर, अपनी भलमनसाहत और निष्कपट हृदय दिखाकर उससे बात करता रहता हूं। जानबूझ कर अपने अंदेशे, डर और रास्ते रखता हूं। मेरा मकसद बस उससे लंबी लंबी बात करना होता है।

तो साहब यही सब रहा और मैं उसके पास गया। बालों में तेल लगने और हफ्ते भर न धुल पाने के बायस उससे एक गुमसी गुमसी खूशबू आ रही थी। मुझे उसके बदन की ये मादा और बासी गंध बहुत पसंद है सो मैं उसका हाल चाल पूछने के बहाने लंबी लंबी सांसे लेकर अपने ज़हन में यह गंध उतारने लगा। कई बार बीच रातों में मैंने अपने बिस्तर पर उसकी इस गंध की कमी बेतरह महसूस की है। यह मेरी फैंटसी कहिए या कि सनकीपन कि मैं उसके बदन से निकला पसीना एक गिलास में जमा करके पीने की ख्वाहिश रखता हूं।

मैंने उसके माथे पर हाथ रखते हुए उसकी तबीयत पूछते हुए उसके कपोल छुए। बुखार की  तपन के बायस वे दहक रहे थे। मैंने ख्याल किया कि अगर ये हाल है तो उसका बिस्तर कितना गर्म होगा! और अंदर ही अंदर थोड़ा अफसोस किया कि काश यह अस्पताल का बिस्तर नहीं होता और वो मेरे कमरे पर की बिस्तर होती। अक्सर गलत जगह प्यार करने का अरमान जागता है। ट्रेन की बोगी में, वहां के बाथरूम में, दफ्तर के स्टूडियो में, घर के किचन में और कई बार तो पार्टियों में अचानक से.... दिल होता है कि बस दबोच लें। तब उसके प्रिय दोस्त भी हमारे कोफ्त की वजह बनते हैं।

लेकिन वो साली उखड़ गई। औरत है न, गुज़री हुई बातें पालने पोसने में ये माहिर होती हैं। इनका वश चले तो ये आपके मरने वक्त भी आपसे आपके ही बारे में दसियों हज़ार शिकायत करने बैठ जाए कि फलाना दिल तुमने मुझे नहीं देखा था, चिलाने पल में तुमने मेरा दिल दुखाया था। वो उन आखिरी क्षणों में आपके सात जन्मों का हिसाब वहीं कर दे। खैर मैंने खुद के गुस्से पर काबू किया और जिन परिवेश में बड़ा हुआ हूं यह सीख सीख कर कि दुधारू गाय लताड़ मारती ही है और यदि उसका दूध लेना ही हो तो उसके माथे को प्यार से पुचकारो, गमछे से उसके पैर और पीठ पर की मख्खी उड़ाओ।

लेकिन साहब चालाकी की कोशिशें और इस औरत को अबकी बार जीतने की सारी रणनीति बेकार। कमीनी हाथ ही न आए। फिर मैंने अपना ब्रह्मास्त्र यानि कि यानि कि भावुकता और कुंठा निकालने वाला हथियार भी इस्तेमाल किया। खुद को ज़लील किया, कोसा और अतिरेक गुस्से में बिस्तर की चादर को कई बार तमतमाए चेररे से मुठ्ठी में पकड़ पकड़ कर छोड़ा। मेरा अक्सर यह दांव चल जाता था। ऐसे में पहले वह थोड़ी देर तक चुप बैठती फिर धीरे से वह मेरे पास सरक आती। उसकी सिसकियां थमने लगती और अपना माथा मेरे कंधे पर दे धरती। दो चार क्षणों बाद मैं उसका हाथ अपने हाथ में लेता, वह कोई इंकार न करती। फिर अपने हाथों की सारी उंगलियों से उसके उंगलियों को लॉक करता। फिर छोड़ देता। दो-चार बार ऐसा करने से उसके लॉक करने में भी कसावट आती जाती। वो वापस ज़िंदगी और प्या र नाम के मेरे फरेब में लौटने लगती। मैं प्यार से सर झुकाकर उसके आंखों का आंसू चखता। कुछ पलों के लिए वह अभी-अभी पैदा हुई किसी नवजात शिशु सी कलपती हुई नज़र आती। मैं उसका माथा सहलाता। और थपकियां देता हुआ उसे बहाने की कोशिश करने लगता। उसके बाल सुझलाता और सुलझाते सुलझाते उसके माथे पर सबसे पहले एक चुंबन टांकता। यह उसका प्रतिरोध जांचने का एक सिग्नल होता कि आगे के लिए वह कितनी तैयार है। मैंने ऐसे नाजुक पलों का फायदा खूब उठाया है क्योंकि मुझमें अपनी दिलेरी और अच्छाईयों से किसी को जीतने की कूवत नहीं। साथ ही मुझे हमेशा से यह अभिमान रहा है कि मैं साथ वाले को अच्छे आदमी के मुकाबले दो सौ प्रतिशत संतुष्टि दे सकता हूं।

..... हां तो आज मैं उसके बाल सुझलाते हुए उसे बहाने की कोशिश रहा था। हमारी सांसें पास पास होने के कारण छोटी छोटी होकर सिकुड़ती जा रही थी। बुखार और भावनाओं के ज्वर में उसकी सांसें गर्म तो थी ही और यह मुर्गा छाप उलझे लाल बीड़ी पटाखों की तरह बस एक छुअन को तैयार हो रही थी। बुखार वाली देह मुझे हमेशा से पसंद है मैंने आज ख्याल किया कि मैं उसके बदन को रूई की तरह धुनकर हल्का कर दूंगा। मैं भूल चुका था कि मैं अस्पताल में हूं। आखिकार मैंने हिम्मत कर सबसे पहले उसके गाल चूमे। क्या होती है औरत जिसको  एक मक्कार प्यार मिलने भर के बहलावे से उसका रंग सुर्ख हो जाता है?

हमारे अधखुले होंठ एक दूसरे से जुड़ चुके थे। मैक्सी में कैद उसके सीने पर मेरे हाथ फिसलने लगे। मेरे धमनी और शिराओं में उसके बासी बदन की गंध घुलने लगी। मैंने अपने आपको बड़ा अमीर महसूस किया। मैं उसके होठों पर हल्के हल्के दांत काटने लगा। उसके बासी मुंह की र्दुगंध में मैं सांसे तलाशने लगा। किनारे से लार बह निकली जैसे कोई बच्चा जलेबी को दांत काटता है और ढ़लके चाशनी से अपना बुशर्ट भिगोता है।

लेकिन जनाब औरत की सात इंद्रियां होती हैं। और ये सोचते हुए मुझे अपने यूएनआई में बिताए दिन याद आते हैं जब एक लड़की के प्यार में पागल में उससे आखिरी बार मिल रहा था और वो वहां के खुले कैंटीन में भावुकता और व्यवहारिकता में अद्भुत सामंजस्य बनाए हुए थी। मैं उसे रो रोकर अपनी आंखों में हज़ार शिकायत लिए, हरामी समाज और पत्थरदिल ईश्वर को कोस कोस कर उसे देखे जा रहा था और वो अपने फोन में मैसेज चेक करने के बहाने मुस्कुरा-मुस्कुरा कर कह रही थी - ‘स्टॉप ईट सागर, ये क्या लगा है..... अच्छा मैं चलती हूं.... अभी मेरी मम्मी यहां से गुज़रने वाली हैं, मेरा भाई भी यही पास के मिनिस्ट्री में काम करता है।’ कसम से मीलॉर्ड हर फ्रंट को इत्ते खूबसूरती से संभालने की उसकी इस अदा का मैं दीवाना हो गया। हंसते हंसते रोना और रोते रोते हंसना और हंसने में रोने की इस मादक मिलावट को मैंने सलाम किया।

फिर क्या बचता है यार, उसने अपने उसी ट्रैक पर लौट आई। उसकी छठी और सातवीं इंद्रिय ने बगावत का रूख अपनाने हुए उसके दिमाग में चट से ज्ञान डाल दिया। हमारे हिन्दुस्तान में लड़कियों की परवरिश एक रेल के ट्रैक की तरह होती है, प्यार की रेल कितनी भी धाकड़ चले वे जन्मजात संस्कारों और नैतिक अनैतिक लड़ाईयों वाली लाइन भी लिए चलती हैं। अपनी क्रॉसचेकिंग भी करती चलती हैं। खुद को बड़ा दिखाने के लिए वे शराब पी सकती है, बाकी सब कुछ कर सकती है लेकिन अपनी नैतिकता और भावुकता की कमज़ोर छड़ी का ही आखिरकार सहारा लेती है। यह एहसास उसे गंगा नहाने जैसी पवित्रता का बोध कराता है।

लेकिन नहीं साहब, बीमारी में भी उसकी अकड़ नहीं गई। यह सच्चा एटीटयूड था।

अब क्या कहें आपको, आखिर वही हुआ। वो मुझसे अलग हो गई। दहाड़ मारकर रोने लगी, गुस्से में दो चार तमाचे मेरी गालों पर जड़ दिए। अब चूंकि मैं सिनेमा देखकर बड़ा हुआ हूं सो मेरा हरामी मन अगले ही सोचा कि अब शायद कमज़ोर होकर मेरी बांहों में आ जाएगी। प्रेम में ऐसे कई मजबूत लड़कियों को कमज़ोर होते मैंने देखा है जब हफ्ते के छह दिन वह बाहर जाकर अपने को साबित करती हैं और अपना ईगो सटिसफाईड करती हैं लेकिन इतवार को पियानों पर सर धर कर बेशुमार रोती हैं। कभी फर्श पर बाप की लुंगी पकड़कर बच्चे की तरह तड़पना चाहती हैं तो मां का आंचल पकड़ गाजर का हलवा बना देने के लिए मिनमिनाने की चाहत रखती हैं। कविताओं की किताब में और पासपोर्ट साइज अपने प्रेमी की फोटो को देख ज़ार- ज़ार रोती हैं। .....लेकिन.....लेकिन उसने मुझे वहां से निकाल दिया। मैं नहीं निकला तो चपरासी की मदद से निकलवा दिया। अब ज़रा आप महसूस कीजिए तो यह ज़लालत। लेकिन खैर... जो लोग मुझे जानते हैं वो यह जानते हैं कि मुझे अपनी ऐसी बे-इज़्ज़ती की आदत है। और कहीं न कहीं मैं इसमें आनंद पाता हूं।

                                                                                                 *****

आखिर क्या है आदमी? कैसी होती है उसकी प्यास? क्या वो बहुत अकेला है? या पैदाइशी कमीना है? या कि वासना है ? कैसी भूख है यह ? कहां से इतनी प्यास आती है? क्यों किसी के गले लगाने पर भी कई बार आत्मा तृप्त नहीं होती। क्यों मुंह चूरे हुए गहूंमन सांप की तरह और उस पर किरासन तेल डाला हुआ बिलबिलाया हुआ खुद को महसूस करते हैं? क्यों पांव को आराम देने की तलाश में जूते में पैर डालते ही वहां अपने घर बनाई हुई ततैया अंगूठा काट कर उड़ जाती है?

Comments

  1. .....सागर साहब, आपने दर्शनशास्त्र की पढाई की हो या नहीं, परन्तु एक अच्छे लेखक जरुर बन सकते है विषय के!! आप भीतर तक झांक लेते है, कभी मिलूँगा तो शायद डरता रहू, की क्या क्या जान लिया आपने हमारे बारे में! उत्कृष्ट लेखन, और उससे भी उत्कृष्ट भावनाओ को पढने की काबिलियत!

    सलाम, हरामी मन को, जो हम सब के अन्दर है!

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  2. कई बार यूँ भी देखा है, ये जो मन की सीमा रेखा है...

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  3. प्रेमिका के अधिकारों का विनिमय होना चाहिए......और कुछ अधिकार प्रेमी को भी मिलने चाहिए!

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  4. ऐसा लगता है कई लोग गलत प्रोफेशन है .तुम भी उनमे से एक हो ...लिखो मेरी जान ,खूब लिखो

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