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Showing posts from July, 2015

दृश्य हमारी आंख में मुंतक़िल हो जाता है

उदासी का ऐसा घेरा जैसे काजल घेरे तुम्हारी आंखों को किसी सेनानायक द्वारा की गई मजबूत किलाबंदी द्वितीया की चांद की तरह मारे हमें घेर कर। पीड़ा तोड़ता है हमारी कमर प्रेम जैसे - सर्प का नेत्र सांझ जैसे नीला विष रात जैसे तुम्हारी रोती आंखों से बही काजल की अंतहीन क्षेत्रफल वाली सियाह नदी बही, उफनी, फैली, चली और निशान छोड़ गई। छत पर एक बच्ची घेरे में कित-कित खेलती मेमना कोहरे का एक टूसा सहमति से खींचती आई बाल बनाती, धूप हर मुंडेर से उतर जाती सूरज वही दिन लेकर लेकिन हर नए पर चढ़ता कलाकारी वही, बस कलाकारों के नए नाम गढ़ता दृश्य हमारी आंखों में बंद हो जाता है पेड़ पर हो रही बारिश झड़झड़ाती है हमने यह क्या था जो समझने में उम्र गंवा दी सुलगता क्या रहा दिल में फिर किसे हवा दी हाथ खाली थी खाली ही रही तुम जो मिले थे समझने वाले कहने वाले, रोने वाले कट जाती है नसें मन की तलछट में झुंड से छिटके मछली सी सर पटकती, धूप में और चमकती फिर प्यास से मरती दृश्य हमारी आंख में बंद हो जाता है कोई तितली पस्त होकर अपने पंख खोलती है नाव आँखों में चलती है, अंतस उसको खेता है किनारे लगने से ज्या

हम एक दिन और मर गए

बेखुदी है, एक बेहोशी। जैसे कोई बहुत अज़ीज़ में बैठा हमसे दूर जा रहा हो। नाव आंखों से ओझल होती जा रही हो। एक उम्मीद और वो भी बैठती लगे। एक ही संबल जो डूबता जाए। थोड़ी सी बारिश के बाद एक मटमैला पीलापन दीवार पर सरक आया है। खिड़की से दीवार पर जो हिस्सा देख रहा हूं वहां गमले में लगे एक पौधे की डाली डोल रही है। ऐसा लगता है मन यही एक मटमैला पीला दीवार है और इस पर कोई जीवित तंग करता खयाल डोल रहा है। दिमाग पर अब तक उसके एकदम आंखों के पास आकर मुस्कुराने का अक्स याद है। उसके होंठों से निकलता एक अस्फुट स्वर जिसका मतलब समझने की कोशिश में अब तक हूं वो क्या था? दीवार की टेक लगाए बैठा हूं। लेकिन चार पैग के बाद ऐसा लग रहा है कि हथेली और तलवे में जलन है, हल्की खुजली भी....। कुछ मतलब है इसका क्या है नहीं पता। अटपटी और अस्पष्ट सी होठों कुछ बातें हैं जो किसी से कहना है, जिसकी हिम्मत होश में कहने की नहीं होती। हवा में नीचे की ओर बार बार कंधे झुक आते हैं जैसे किसी पर झुकना हो। दूर से कोई देखे तो समझे कि बचपन में सरेशाम से ही ऊंघ रहा हूं। दीवारें क्यों इनती बु बनी खड़ी हैं। इन्हें तो अब सजीव हो जाना चाहिए थ

वेटिंग

मन पक रहा है तुम्हारे साथ। समय के साथ धीमे धीमे। कोई जल्दी नहीं। फसल के दाने जैसे पकते हैं अपनी बालियों में.... रोज़ की प्र्याप्त धूप, हवा का सही सींचन, पानी की सही खुराक से। कुम्हार की बनाई हांडी की तरह। बनना, सूखना और फिर आग में सिंकना और तब आती उससे ठमक ठमक की आवाज़। एक बुढ़िया के चेहरे पर झुर्रियों का आना.... किसी वृहत्त कालखण्ड को समेटने वाले उपन्यास के लिए रोज़ पन्ना दर पन्ना दर्ज होते जाना। जैसे लावा संग उजला बालू मिलकर लावा भूनाता है, सुलगते कोयले पर एक फूटी हांडी में हम साथ साथ पक रहे हैं।  कोई जल्दी नहीं, कोई बेताबी नहीं, बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं, कोई वायदा नहीं की तर्ज़ पर हमारे बीच का रिश्ता पक रहा है। अपनी अपनी जगह पर एक दूसरे में गुम हम अपने रिश्ते में ग्रो कर रहे हैं।  गजरे की भीने भीने सुगंध की तरह जो सालों बाद भी अवचेतन में तंग करती है। नवीं में गणित के सवाल हल करते समय जब मां बेख्याली में अपने इलाके की लोकगीत गाती है और हम अठ्ठाईस की उम्र में उस लय को याद करते हैं। नारंगी रंग के उस सिंदूर की तरह जिसे हमारे गांव की स्त्रियां अपने नाक से मांग तक धारण करती

खगोलवेत्ता के सर पर गड़ा तंबू

यह एक खोया हुआ दिन है और तमाम रास्ते तुम्हारी तरफ जा रहे हैं।  मैं एक सैलानी हूं। तुम्हारे साम्राज्य में आया हूं। अपने पीठ पर बस्ता लटकाए, हाथ में पानी का एक बोलत किए। तुम्हारी अकूत सुंदरता पर मोहित हूं। बनाने वाले ने तुममें नैर्सगिक सौंदर्य बख्शा है। पहाड़, जंगल, नदी, झरना, विस्तार, ढ़लान, सपाट मैदानी भूभाग, एक अप्रतिम शांति जैसे सारे शोर चुप हों। जैसे मन की सारी उलझनों का जवाब मिल गया हो। मेरे अंदर से सारी उलझनें जैसे निकल कर इसी जंगल में बिला गई हो। मैं प्रकृतिस्थ हूं। एक प्रकार से समाधिस्थ। आंखों के आगे इस ढ़लुवा ज़मीन पर छोटे छोटे हरे पेड़ देखता हूं तो लगता है जैसे मेरे अंदर से करूणा की एक ब्रह्मपुत्र फूट रही है। जैसे सारी दुनिया में इस नदी का विस्तार होना चाहिए। जैसे सारी चीज़ें मुझमें ही समाहित हैं।  इस तरह किसी का हाथ थामे शौकिया किसी बूढ़े सा टग रहा हूं जिसे कुछ भी कहने की जरूरत नहीं, बस साथ होने का एहसास होना चाहिए। अंदर से अकेले को भी साथ का यह संबल चाहिए। तुम्हारी पनाह में घूमते घूमते यह डिमांड और सप्लाई जैसा कुछ मामला है।  खो गए लोगों की याद में  1. पेड़

अपडेट

लिखना बंद हो गया है। ऐसा लगता है कि मेनीपुलेट हो गया हूं। लिखने के मामले में भ्रष्ट हो गया हूं। टेकेन ग्रांटेड और ईज़ी लेने की आदत पड़ गई है। पहले से आलस क्या कम था! लेकिन अब तो न मेहनत और न ही प्रयास ही। भाव की प्योरिटी भी दागदार हुई है।  कई बार यह भी लगता है कि बस मेरा लिखना तमाम हुआ। जितना जीया हुआ, भोगा हुआ और महसूस किया हुआ या फिर देखा हुआ था लिख दिया। शायद झूठ की जिंदगी जीने लगा हूं। सच से ऊपर उठ गया हूं। ये भी लगता है कि खाली हो गया हूं। जितना था, शराब की बोतल की तरह खत्म कर लुढ़का दिया गया हूं। अब किसी की लात लगती है या हवा तेज़ चलती है तो बस पेट के बल फर्श पर लुढ़कने की आवाज़ आती है जो आत्मप्रलाप सा लगता है।  बहुत सारी बातें हैं। कई बार लगता है मीडियम और अपने जेनुइन लेखन के बीच सामंजस्य नहीं बिठा पा रहा। रेडियो और टी.वी. के लिए जिस तरह के सहज और सरल वाक्यों की जरूरत होती है, उसी आदत में जब अपनी डायरी या ब्लाॅग के लिए लिखता हूं तो अपना ही लिखा बड़ा अपरिचित सा मालूम होता है। कई बार तो फिर से उसे पढ़ने पर हास्यास्पद लगता है। लब्बोलुआब यह कि उम्र जितनी बढ़ती जा रही ह