Skip to main content

चांदी की पतली तार फंसी गर्दन में... बौखलाया सिंह भागता जंगल में...





थरथराती पलकों की अजब बेबसी है। इनमें माज़ी का कोई पैकर फंसा है। कुछ इस तरह कि किसी बच्चे की पतंग किसी झाड़ी के झुटपुटे में फंसना लगे। नदी के इस पार बड़े से गुलाबी गेंद का उफक से नदी में गिर जाना लगे। हिचकी लेती उन पलकों में फंसा पैकर जीभ के लिए किस कदर अकेला ठौर कि जबड़ों में कहीं अटके इलाइची के छिलके को जीभ की नोंक से उसका पता लगाना। बार बार मिलना फिर खोजना मगर उंगलियों से टटोलना तो कहां फंसा है यह सही सही पता न लगना। बालिग होते किसी बच्चे का बिजली के तारों के बीच फंसी पतंग, खिड़ - खिड़ करती, फट जाती। बाजार से हर बार गुज़रता और हरसत से उस पतंग को तकना। आज़ाद करने की तमन्ना जैसे कैद में कोई राजकुमारी। 

पूरा पतंग जैसे तुम्हारा चेहरा। पुकारने को लब, आंखे - पुकारने को लबे दरिया। मगर हकीकत में बड़े बड़े हर्फों में लिखी उर्दू की आयतें। जिसके ज़ेरो जबर और नुक्ते सब आपस में इस कदर लिपटे जैसे नथ में बेतरबीत फंसे गेशु की एक लंबी डोर...। जैसे मुंडर पर कट चुके पतंग की उजली सूत का सिरा, शायर हाथों से दुःशासन हाथों तक खींचते जाओ बस.... जब बहुत खींच लो और अंत का इंतज़ार खत्म न हो तो पीछे खींचे गए अनसुलझे धागों का ढ़ेर जैसे अभी अभी अपनी पेटीकोट उतारकर नहाने गई किसी औरत का ख्याल....

पतंग है कि बहुत नचाता, ...हाथ नहीं आता।

Comments

  1. वाह!

    क्या अल्फाज़ हैं! क्या बयानी है!

    ReplyDelete
  2. सागर भाई , आपके ब्लॉग पर देरी से आने के लिए पहले तो क्षमा चाहता हूँ. कुछ ऐसी व्यस्तताएं रहीं के मुझे ब्लॉग जगत से दूर रहना पड़ा...अब इस हर्जाने की भरपाई आपकी सभी पुरानी रचनाएँ पढ़ कर करूँगा....कमेन्ट भले सब पर न कर पाऊं लेकिन पढूंगा जरूर

    आपके जैसा लेखन ब्लॉग जगत में किसी का नहीं...विलक्षण...कमाल इस बार ही नहीं हर बार...वाह.

    नीरज

    ReplyDelete
  3. पतंग का बार बार झपकर नीचे गुत जाना, दो डोर बाँधे तो सधी रहती है पतंग।

    ReplyDelete

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार रच डाला. मनोरंजन प्रधान फिल्मों को व्यावसायिक सिनेमा के श्रेणी में रखा गया.             एक दीर्घकालीन संघर्ष के बाद स्वतन्त्रता के अभ

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष्टि से देखता है, यह बड़ी अजीब बात

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने   कलकत्ता का पहला सिनेमाघर एलफिंस्टन पिक्चर पैलेस   बनाया। यह सिनेमाघर आ