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Showing posts from September, 2015

बी विद मी

शाम का सन्नाटा फिर से काबिज है। और मेरा मन तुम्हारी ओर लौटने लगा है। दिन भर काम कर लिया मैंने। आज कल तुम ही मेरी शराबखाना हो। दिन भर के बाद की ठौर हो। मैं भी कितना मतलबी हूं। दिन में कई बार याद आने के बाद भी कुछ नहीं कर पाता हूं। लेकिन शाम होते ही तुम्हारे ख्यालों से मुझे बीयर की महक आने लगती है। तुम्हारी तस्वीर देखता हूं तो लगता है जैसे मेले में अपनी सहेलियों से छूट गई लड़की हो। आंखों में वही लहक लिए कि जो भी मिलेगा तुम्हें तुम्हारे घर तक पहुंचा देगा। लेकिन मैं खुद भटका हुआ हूं घर से। खबर तो है मुझे कि तुम्हें कैसा लगता होगा लेकिन शायद पहुंचा नहीं सकूंगा। मैं तुममें अपना घर देखता हूं। तुम्हारे साथ शायद घर तलाशने की सोचूं मैं। तुम मिल तो गई हो मुझे लेकिन मुझे नहीं पता कि मुझे तुम्हारा करना क्या है। सिर्फ पाने खाने का नाम प्रेम नहीं है, अगर ऐसा होता तो मैं विजेता था। अच्छी बात यह है प्रेम में कि इसे दुनिया की नज़र से नहीं देख सकते हम। हमें एक दूसरे के लिए ही होना है।   एक दूसरे को समझने को भी जरूरी नहीं मानता मैं। बस जस्ट बी विद मी।  कभी कभी मन होता है कि तुम्हारा नाम ल

जोड़े की आवाज़

कभी कभी दिमाग की नसों का धड़कना भी सुनाई देती है। घड़ी की टिक टिक की तरह बजती हुई। एक शांत शोर। सर्दी की एक शांत सुबह की तरह जब किसी अभौतिक बात पर सोच सकें। कि जैसे धूप में कुर्सी लगा कर बैठे हों और हाथ पर एक तितली मर्जी से आकर बैठ जाए। बिरंगी तितली। अपनी हर सांस के साथ पंखों को खोले और बंद करे। पंख जब खुले तो किसी कविता की किताब की जिल्द लगे। उनपर बनाने वाले की उम्दा कशीदाकारी हो। गोल गोल हाईलाटेड घेरे, साड़ी की काली किनारी, और थोड़ा ऊपर कभी नीला रंग घुलते तो कभी पीला... तो कभी रंगों में में कई रंग...। एक सपनीला संसार। जैसे पॉलिस करके खुद के रोज़ अपने घर से निकलती हो। अपने ऊपर की लिपस्टिक को और गाढ़ा करके लगाती हो। कभी जो हमारे उंगलियों को छू जाए एक कच्चा रंग हमारे हाथ पर रह जाए। उसका सिग्नेचर’.....  छूअन ऐसी जैसे किसी मेमने के कान.... कुछ चीज़ें सुभाव से ही हमारे मन को निर्मल बनाती हैं..... कुछ के पंख ऐसे होतें हैं जैसे सफेदी जा रही दीवार पर बैठी हो। उसकी तंद्रा भंग हुई हो वो उड़ने के लिए अपने पंखों का गत्ता खोली ही हो कि उस पर सफेदी के छींटे पड़ गए हों। कुछ के पंख ऐसे होते हैं - जैसे क

एक आवारा लड़की की- सी डेयरिंग आंखें

शाम का धुंधलका है। हौले हौले चाय की ली जा रही सिप है। दिन भर के काम के बाद पंखे के नीचे सुस्ताने का अहसास है। एक सपना है कि तुम मेरे ऊपर लेटी हुई हो। हमारे बदन एक दूसरे में गुंथे हुए हैं। सांसें बगलगीर हो। रह रह हरकत हो रही है। एक कुनमुनाहट उठती है जो जिसके आहिस्ते आवाज़ मेरे कानों में जब्त हो जा रही है। मेरे कान यह सब सुनकर जागते हैं। कभी कभी ऐसा भी हो रहा है कि मेरी नाक तुम्हारी कंठ के आस पास के हिस्से में लगती है। मेरे दांतों की हल्की हल्की पकड़ तुम्हारे गले को हौले हौले पीसती है और खतरनाक चीख भरी हंसी बिस्तर से उठती है और रह रह कर वही दम तोड़ देती है। वह हंसी मेरे अंदर झुरझुरी पैदा कर रही है। तुम्हारी छाया में बरगद का पेड़ मैं हुआ जा रहा हूं। तुम्हारी लटों से उलझा अलमस्त। तुम्हारे रूप में एक फक्कड़ सी फकीरी मुझे नसीब हो जाती है। मेरे दो पैरों के बीच सरकी हुई साड़ी से तुम्हारे पैर के अंगूठे बिस्तर की जिस्म में धंस रहे हैं। एक अखाड़े में जैसे बाजी शुरू होने से ठीक पहले जैसे भाले की नोंक धंसायी जाती है। तुम्हारा बदन, यह वो चाक है जिस पर चढ़ कर किसी बर्तन की छब-ढब नहीं बिगड़ती। अपन

समसामयिकी

मैं जिससे भी इन दिनों टकराता हूं पाता हूं कि सबने एक तरह से घुटने टेक दिए हैं। वे बहादुर सिर्फ अपने मसलों पर बन रहे हैं। सबकी पहली और आखिरी प्राथमिकता अपना परिवार भर है। देशभक्ति भी अब एक फ्रीलांसिंग नौकरी की तरह हो गई है। संवेदनहीनता और पलायनवाद तो थी अब कहीं न कहीं लोगों ने अपने अंदर ही जैसे गिव अप कर दिया है।  एक काॅपीराइटर होने के नाते, काम के बदले ही सही अपने क्लाइंटों से पैसे पाने के एवज में खुद को गुनहगार मानता हूं। सीधे सीधे शब्दों में मुझे यह समझौता लगता है। जिसके लिए कोई एक्सक्यूज नहीं है।  दरअसल दिल अब कुछ भी नहीं बहलाता। अंदर की लेयर का जागता आदमी मर गया है। और जो ऊपर गतिमान दिखता है वो बस एक व्यसनी शिकारी है, मौके की तलाश में। मुझे अच्छा मौका मिल जाए, मुझे अच्छी नौकरी मिल जाए, मुझे अच्छा प्रेम मिल जाए। सब कुछ मैं, मेरा, मुझे आधारित।  हम सब एक फ्लैट वाली घरफोड़ू औरत की तरह हुए जा रहे हैं। चुप्पा, कोना दाबने वाला। मेरी बाल्टी, मेरा मग, मेरा पर्दा, मेरा बिजली बिल, मेरा गैस सिलिंडर वाला। न न करते हुए भी, हम पूरा विद्यार्थी जीवन यह प्रण दोहराते रहे कि हमा