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Showing posts from August, 2010

आँखें जैसे कि...

क्षितिज पर शाम का सूरज लाल हुआ जाता है और उसकी लालिमा इन आँखों में उतर आई है. उधर सूरज उतरता जाता है इधर पीने की ख्वाहिश जवां हुई जाती है... ये शराब मांगती लाल आँखें हैं. कई हलकों में कई रात से जागी हुई. इनमें बसे सपनों को गर दरकिनार कर दिया जाये तो एक हथेली नींद भरी है जो किसी भी वक्त पूरे बदन को अपने गिरफ्त में ले उसे दुनिया से पल भर में जुदा कर सकती है. बुरी तरह से थके हुए इस जिस्म में थकान, टूटन, बुखार और दहशत एक साथ तारी है मानो पुलिस द्वारा रात भर दौड़ाया गया हो और अब जबकि थकान में चूर होकर शरीर ने जवाब दे दिया है तो ऐसे में कमर नीचे की ओर झुक आती है और दोनों हाथ बरबस घुटनों पर आसरा पाते हैं. ये लाल-लाल आँखें मानो रम का रंग घुल आया हो इनमें और ऐसे में चेहरा ऐसा जैसे दो बरस बाद किसी अपमान को सोचते हुए लाल पपीते का जमीन पर गिरना, किसी हत्या का गवाह होना जैसे श्मशान में पिछली रात जल कर ख़ाक हुए शव की राख कुरेदते परछाई. आँखें जैसे बदहवास पोरों से बुखार से तपते पलकों पर वर्जिश के बहाने रूह तलाशने की कोशिश, एक एकमुश्त मुहब्बत, जैसे बोरे में भर कर सील ली गई हो अमानत... क्षमा करें

गुफ़्तगू

me : हाय सुचित्रा    क्या हाल    ऑफिस में हैं ? SUCHITRA : हाय  सागर 4:12 PM  ठीक  ठाक  ऑफिस  में  ही हूँ    और  आप  ? me : ऑफिस  में  SUCHITRA : so कहाँ काम करते हैं आप  ? me : दिल्ली     थोडा mod  बन  के  कहूँ  तो     डेल्ही SUCHITRA : इन  व्हिच कंपनी ? 4:13 PM  me : हे हे       आपके जैसा  MNC में  नहीं  हूँ     बस दिहाड़ी  मजदूर  हैं  4:14 PM  SUCHITRA : ओ. के.  ...आपको  कैसे  मालूम  हमारी  कंपनी  MNC  है ? me : देखने वाले चील की नज़र रखते हैं  :P 4:15 PM  SUCHITRA : Wow..क्या thekha hai IM ke throught     through   me : हा हा     आप बताइए     अगर डिस्टर्ब कर रहा  हूँ तो....     बता दें     शरमायें नही 4:16 PM  प्लीज़  SUCHITRA : शरमायें नहीं मतलब ?    मतलब  ? me : मतलब  हिचकिचाएं नहीं  SUCHITRA : अब ये सही शब्द है  me : कई  बार  कुछ  सीधे -सीखे  कहना     मुश्किल होता है  4:17 PM  ना इसलिए SUCHITRA : आप तो  राइटर  जैसे बात करते हैं  me : हूँ, ही     क्या करें     धर्म निभाना पड़ता है  SUCHITRA : हम लिखते ज़रूर हैं ....लेकिन  इंसान प्रक्टिकल हैं 

हरारत

रजिया बड़े सधे क़दमों से नंगे पाँव दरगाह की सीढियां चढ रही है, शांत मन, आँखों में तेज और माथे पर करीने से लपेटा हुआ फेरैन है. दोपहर की तेज धूप में फर्श पर पाँव पकते थे. उसने मन्नत वाले जगह पर रोशनदान सरीखे आकृति पर धागा बाँधा. यह जगह, उसी आहाते में दरगाह से थोडा हटकर था. पीछे खुला पहाड था जहां पश्चिम से आती हवा के तेज झोंके गर्मी कम करती थी, रजिया को लगा जैसे पीर बाबा खुद नेमत बरसा रहे हों. ऐसे में उसे अपनी मांगी हुई दुआ कबूल सी लगी और इसी सोच में रजिया का चेहरे पर नूर छा गया. उसने जमीन पर घुटने, तलवे और एडियाँ जोड़े और सजदे में झुकी, उठी और अपने दोनों हाथों की हथेलियों को सटाया. ऊपर ने दोनों रेखायों के चाँद बनाया जिसके ठीक ऊपर हारून का चेहरा उग आया. रजिया हौले से मुस्कुराई हथेलियों को अपने पलकों से लगाया फिर से नीचे झुकी, आँखें खोली और सामने पड़े मोबाईल पर हारून का नाम चमक उठा. उधर हारून के आने की दस्तक हो चुकी थी और इधर रजिया के इबादत में खलल पैदा हो गई. दिल की सारी संयत धड़कनों ने अपना क्रम तोड़ दिया. मन चंचल हो उठा. साँसें तेज और बेतरतीब से छोटे-बड़े होकर चलने लगे. अंदर उठापटक,

तोहफ़ा

कविता : समय की अदालत में कवि : अपूर्व शुक्ल फरमाइश /आइडिया : कुश वैष्णव तकनीकी सहयोग : पूजा उपाध्याय , कुश वैष्णव एवं प्रशान्त प्रियदर्शी वोइस ओवर आर्टिस्ट : बाबला कोचर (बबला कोचर दिल्ली के मशहूर एंकर/वोइस ओवर आर्टिस्ट हैं) निर्देशन : सागर साउंड रिकार्डिस्ट : चंकी प्रस्तुति : सागर नोट: कविता बिना पूछे/धमकाए ही ली गयी है. कवि अगर मुकदमा ठोकना चाहे तो स्वागत है.