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Showing posts from October, 2010

एक बूढ़े की डायरी

अचानक से उम्र  और  ज्यादा लगने लगी है. चाय पीने के बाद भी चाय पीने की तलब लगी रहती है... खून की कमी से चिडचिडापन बढ़ने लगा है, हर बात का जवाब देने लगा हूँ.. सहनशीलता ख़त्म हो रही है. यादाश्त भी पहले सी नहीं रही ... किसी बस स्टॉप पर रख कर भूल जाता हूँ... हँसते हुए मुंह तो खुलता है पर बंद नहीं हो पाता... चश्मा पहनकर आईने में देखता हूँ अपनी ही पांच-छह आँखें दिखाई देती है... हाथों में स्पर्श देर से पता चलता है. थरथराहट लगी रहती है..  रोज़ सुबह उठकर देख लेता हूँ मेरी पत्नी जिंदा तो है ! वो भी मुझे शायद नींद में चेक कर लेती होगी. हमारे बीच एक अबोला सा डर दाखिल हुए कुछ महीने हो गए हैं... यह डर हम प्रेम की आड़ में वैसे ही अनदेखा करते हैं जैसे बच्चे और समाज हमें कर रहे हैं.. यों कभी-कभी कुछ समाचारपत्र वाले आते हैं जो अपने खाली जगहों को भरने के लिए सबसे नीरस पन्नो पर हमारे भावनाओं को "बुजुर्ग चाहे आपका साथ" या "बड़ों को सम्मान करिए"जैसे दयनीय शीर्षक लिए हमारी शिकायतों से कुछ वाक्य कोट कर लेते हैं. ये सब भी घरों में उब की हद तक अलसाए दोपहरी में गर्भवती महिलायें ही पढ़ती हैं

तब मैं आता दिखूंगा

पहाड़ से जब धुएं वाली गंगा उतरती होगी तुम बड़े से पत्थर पर अपनी गुडिया लिए उधर ही देखना मैं आता दिखूंगा. झरने से कोई बूंद छिटका करेगी. तुम बाल बांधोगी और कोई बाल बंधने से रह जायेगा और जब भी हुमक के इतराओगी आइना देखकर कि मैंने सबको बाँध लिया किसी किनारे के उड़ता, फडफडाता कोई अकेला तिनका तुम्हें चिढ़ता हुआ मिलेगा. यह सब करते हुए आईने में देखना तब मैं आता हुआ दिखूंगा.  दिन के किसी बेहद ठुकराए हुए पल जो दर्ज करने लायक ना हो, जब अपने दांतों पर जीभ फेरना और महसूस करना कि सुबह दातुन करते हुए अमुक-अमुक मसूड़े में चोट लगी है और वो उभर आया है, तुम्हारे पैर के अंगूठे में जब किसी रोज़ सुबह-सुबह चोट लगे और शाम तक वहीँ ठोकर लग लग के लहुलुहान हो जाये तो अनुमान लगाना कि कम ऑक्सीजन वाले उचाई पर चूल्हे में जलावन  अब तक  घट चुका होगा तब मैं आता दिखूंगा. तुम्हें तो पूरे सहूलियत और करीने से ख़त लिखता हूँ. फिर भी कोई अगर खोल कर उसे पढ़ ले तो चिंता मत करना. महीने के आखिरी दिनों में शहर से चीनी का टिन भेज पूरे परिवार को खुश कर दूंगा.  यहाँ फेक्ट्री में कभी कभार हथौरी ऊँगली पर ही बरज जाती है पर यह काम उतन

इनकार

...और घोड़े ने यकायक अगले दोनों पैर उठाये और वापस वहीँ का वहीँ रख  दिया. जो बाल उसकी गर्दन पर लहरा रहे थे उनमें सुस्ती आ गयी. पैर नीचे करते ही उसने अनिक्षा  से  अपना मुंह फेर लिया. फिर क्या था एक इंच भी टस से मस नहीं. एकदम से से चुप्पी साध लिया, जंकर सा ब्रेक लगना भी नहीं के घिसट के थोडा आगे चले गए. यों के जैसे बेतहाशा दौड़ते हुए किसी ने बड़ी गहरी खाई सामने प्लांट कर दी हो. दोनों पैरों के खुर पड़ने से ज़मीं चोटिल जरूर हो गयी  पर रुकना - एकदम फुल स्टॉप की तरह. तत्क्षण. गज़ब का सामंजस्य. और संयम. वेग से दौड़ते घोड़े पर उन्मत्त घुड़सवार ने आगे चलने के लिए क्या कुछ नहीं किया. उकसाने वाली आवाज़े निकाली. अपनी भार से घोड़े को यों उत्साहित करने की कोशिश की जैसे बचपन में गिल्ली डंडा खेलते वक़्त गिल्ली से नीचे हलकी सी ज़मीन में जगह बने जाती है ताकि गिल्ली को डंडे से हवा में लहराया जा सके. इस असफल प्रयास से उबकर उसे माँ -बहन से अलंकृत गालियाँ दी गयीं गोया घोडा उसके सारे शब्दों के भावार्थ समझ रहा हो. हालांकि घोडा घुड़सवार के स्पर्श, बोल और आँखों की भाषा से वाकिफ था. पुचकारने का सिलसिला भी चला

देखता, दिखाता भी

देखता, देखना चाहता था, थोडा सा अब भी देखना चाहता हूँ और दिखाता भी.  चौड़े पलग पर तुम्हारी सर के हर कोने को खोल कर देखता. सभी नसों की हरकतों को देखता. प्रयोगशाला में तरह-तरह से जांच कर देखता, किसी स्टूडियो में तत्क्षण तुम्हारी प्रतिक्रिया की ऑडियो तरगों का ग्राफ देखता, किसी काठ की कुर्सी पर करेंट लगते जिस्म के काठ हो जाने की हद तक कठुवाए से तुम्हारे चेहरे को देखता और साइकाईट्रिस्ट की तरह नोट करता अपनी मन की डायरी में ... कोई चिप ही लगा कर हर जिस्मो-जां में उठते हर तरंगों को जानने की कोशिश करता... देखता. देखता कि माथे की नसें कैसी फटती हैं. देखता कि दुर्गापूजा के भव्य पांडाल से कैसे कोई गली गंधाते, बजबजाते पिशाब वाली गली में भी खुलती है.... देखता और एक दफा दिखता भी तुम्हारे वादे के चंद चुनिन्दा शब्दों को... ब्रह्माण्ड से खिंच लाता कहीं टिके ''मैं तुमसे प्यार करती हूँ'' और ''मैं तुम्हें कभी कहीं छोड़ कर नहीं जाउंगी'' जैसे अति साधारण और बेमतलब, बेगैरत जुमले... दिखाता कि यह जुमले शब्द की तर्ज़ पर कैसे खरे हैं और ब्रह्माण्ड के निर्वात में कहीं जस के तस कैस

नैराश्य

  डोर है ?  डोर ही तो है. नहीं ? हाँ सचमुच. डोर ही है. कम से कम डोर जैसी तो जरूर है. जब तक हमारे हाथों में थी कैसी तनी हुई थी. दोनों सिरों  ने खिंचा हुआ था. उसकी दाग उँगलियों में है.  कैसी जीवंत लगती, हर वक़्त बोलते, अपने उपस्थिति का अहसास दिलाते... ऊब तो जाता ही था, गुस्सा आता था उसपर ...  अभी नहीं है तो एक पल को चैन तो आया... ***** लेकिन अब ? अब क्या करें, आवाज़ बगैर घर सूना हो गया है.... आवाज़ थी, कंठ से फूटती, छनाके के साथ फर्श पर गिरती कभी कानों से टकराती. प्यार के बोल होते तो चिन्न - चिन्न हो जाते और कठोर बोल होते तो रेशा रेशा उधड़ जाता. जो भी, जब भी छूट कर/टूट कर गिरी है तो पूरे बदन में जैसे लोच आ गयी है... कैसी अलसाई सी पड़ी है ...बस करवटों की कुछ सलवटें उभरी हैं बदन में, अरे एक हल्का सा पेट का मरोड़ है. अभी ठीक हो जायेगा. देखना एक पल में कैसे झक से आँखें खोल बोल पड़ेगी... तुम खामखाँ शोक मानते हो... यकीन नहीं होता, निष्प्राण है. ***** मैं अगर पतंग था तो वो तो मांजा जैसी थी... कैसे हाथ काट डाले हैं उसने देखो तो ! इस रास्ते से पिछली बार गुजरी होगी तो क्या सोचा होगा

री सखी ! जाग री

गुलाबी रंग की फ्रोक और लगभग उसी रंग की हेयर बैण्ड पहने   ‘ रेनी ’ (मेरी बेटी) बालकनी से टाटा करते सूरज  को  चिढा रही है. उसने जाते हुए सूरज को ‘ रुको साले, एक मिनट ’ कह कर अपने हाथों से बैंगल खोला और उससे सूरज का नाप ले उसकी हैसियत बता दी है. इतने पर भी उसकी खीझ खत्म नहीं हुई तो उसने उसे मुंह दूषना शुरू कर दिया. अपमानित हो रहा लाल सूरज गुस्से के मारे और सूज कर बड़ा हो गया है और फलक पर किसी यूँ टिप्पा खा रहा है के जैसे किसी थके हुए नौजवान ने अपने कमरे  के   दीवार पर   दिन  भर लात  खाया  हुआ फुटबाल दे मारा हो. रेनी भी भीतर से खीझ इसलिए महसूस कर रही है क्योंकि सूरज उसके हाथ नहीं आ रहा. उसका बस चले तो उसका मुंह नोच कर ही दम ले लेकिन फिलहाल जो कुछ उससे बन पड़ रहा है उसमें वो पूरे लगन से लगी हुई है. बालकनी में जाती हुई धूप की अंतिम किरणें छिटक रही है. रेनी को गुमान होता है जैसे सूरज अपनी रूह यहीं छोड़ गया हो. उसे एक मौका मिल जाता है. अपनी सैन्डल उतार कर वो धूप पर ही सूरज को दिखा-दिखा कर सैन्डल बरसाए जा रही है. उधर सूरज भी पेड़ों के झुरमुट से लुक्का-छ्प्पी करता हुआ उसके चेहरे और आँखों प

सागर रिपोर्टिंग, सर !

  रात के बारह बज चुके हैं. सारी ख़बरें कल में तब्दील हो चुकी हैं. न्यूज़ रूम में सोनी ब्राविया के   पूर्ण फ्लैट 9 टी.वी. लगे हुए हैं. सभी चैनल एक साथ किकिया रहे हैं. न्यूज़ का फास्ट ट्रैक शेड्यूल चल रहा है. 10 मिनट में 20 बड़ी ख़बरों का विज्ञापन है. ऐसे में दूरदर्शन सपाट खबर दिखा कर सबसे अलग प्रतीत हो रहा है. पिछले कई दिनों से किसी चैनल पर किसी गाँव की खबर नहीं देखी. हम शायद अब टी. वी. पर गाँव की रिपोर्टिंग देखना भी नहीं चाहते. शायद क्या , पक्का नहीं चाहते. पंचायत , परधानी यह सब दूर की बात हो गयी है. हमें अब फिल्में देखते वक्त गरीबी भी अच्छी नहीं लगती. कलर्ज़ पर बिग बॉस आ रहा है. यह घर देख कर लग रहा है की हिंदुस्तान ऐसा ही चमचमाता होगा. काश मेरे पास अच्छा कैमरा होता तो दिखता की नेशनल स्टेडियम के सामने रात को मजदूर कैसे दुष्यंत कुमार की   " नहीं चादर तो पैर से पेट ढक लेंगे"   वाली लाइन सिध्ध करते हैं. इस लाईफ स्टायल को सभी जीना चाहते हैं. लोगों की दिलचस्पी गोसिप में किस कदर बढ़ी हुई है. मेरे सामने वाले डेस्क पर के सहयोगी मेरी हालचाल नहीं लेते लेकिन ऑस्ट्रेलिया पर विशेषज्

लाईटर

पैकेट खुला रखने की आदत से सारे सिगरेट में बरसाती हवा लग गई है. कई बार तो उसे जलाने में तीली को आधे रास्ते तक सफर तय करना पड़ता है. पहले ऐसा नहीं था एक भरम भर होता था कि तीली सुलगाई है. सिगरेट के पास ले जाते ही सिगरेट जल उठती ज़िन्दगी, सुनसान जगह पर किसी पठानी औरत के साथ ठहरी लगती है. वो कसाई जैसी आँखों से मुस्कुराती हुई देख रही है. बत्तीस इंच कंप्यूटर स्क्रीन पर यू ट्यूब में वृहत फलक लिए उदासी भरा गीत सुन रहा हूँ. फिलहाल गीत चल रहा है पर दृश्य रुक गया है. मस्तिष्क की स्मृति में कई गैर जरुरी वायलिन का नोट्स छूट रहा है .. मुझसे बाहर कितनी लहरें है जिसके भिगोने का कोई टाइम टेबल नहीं है. बदन सूखते ही बौछारें अपने गिरफ्त में ले फिर से जगा जाती है थोड़ी नींद, थोड़ी खुमारी, आधी बंद लाल आखें और बायीं बाजू पर औंधे पड़ी जांनिसार अख्तर की किताब.   कितनों कि ज़िन्दगी में हमारा अपना अक्स है लेकिन हम नहीं जान पाते कि इस बिनाह पर हमारा क्या होना है... उम्म्म्म.... किसे लिख सकते हैं हम ना होंगे तो हमको बहुत याद करोगे ? और अंत में : “ रोज कितने ही लड़के इस शहर में आते हैं और जाने कैसे उन दिनों

सरगर्मियां

/जुम्मे का दिन/ आम के बगीचे के बाद सड़क किनारे एक मस्जिद. क़ुतुब मीनार के जैसे एक ऊँची जाती लंबी इमारत. बढ़िया संगमरमर लगा हुआ है और सबसे ऊपर टंगा है एक चमचमाता संकेत चाँद और तारा. ठीक बाजू में एक लाउडस्पीकर जहां से इमाम तक़रीर कर रहे हैं   “ हमें अपने वालिदेन की खिदमत करनी चाहिए. वजेह – उस खुदा, पाक परवरदिगार का सरमाया हम पर है और यह ज़िन्दगी जन्नत है, वालिदेन की खिदमत ना कर के हम खुद को दोजख के लिए तैयार करते हैं. सुपुर्द-ए-खाक के वक्त हमारी ज़िन्दगी मुकम्मल नहीं होती और रूह खुदा से मिल कर पाक नहीं हो पाता. इसलिए गरीबनवाज़ को हाजिर-नाज़िर जान वालिदेन की खिदमत करो ” . मस्जिद के ठीक पीछे सड़क उससे लगती हुई बद से बदतर हालत में एक नाला जिसका गंदला पानी जाम है. नाले से सटते ही मुसहरों का टोला जहां के लोग  सूअर  मार कर, चूहे खा कर, अफीम, गांजा पीकर अपनी लुगाई को पीट कर, बच्चों के कूड़ा उठवा कर गुज़ारा करते हैं. टोला खत्म होते ही रेलवे लाइन जहां कोई हाल्ट नहीं है एक चाय की दूकान और उस पर कुछ लोगों की बातचीत पिछली बार का पोलिंग एजेंट (जो बहुत संभव है की इस बार भी होगा) : हम तो कहते हैं

क्यों टटोलूं तेरी नब्ज़ मैं ?

राधा-कृष्ण की एक मूर्ति जिसमें कृष्ण खड़े बांसुरी बजा रहे   हैं.राधा का सर कृष्ण के काँधे पर है. पीछे एक गाय है.  (दृश्य टूटता है) कई गायें खेतों में चरने लगी हैं. राधा अपना सर कृष्ण के काँधे से उठा कर देखती है ... दिन ढलने को है. पिछले ही पल तो कंधे पर सर रखा था तब तो सवेरा था. अगर काफी देर हुआ तो मेरे गर्दन में दर्द होना चाहिए था लेकिन नहीं हो रहा. कृष्ण, राधा की मग्नता टूटा देख अपनी उंगलियों से बांसुरी  के  छिद्रों की तस्दीक करते हैं. पीछे गाय अपना सिर हिलाते हुए रंभाती है, उसके गले की घंटी बज उठती है. इसी हलचल में अपने झाड़ू जैसी पूंछ पटकती है और जंभाई तोड़ने के बहाने आखिरकार अपने सूप जैसे कान जोर-जोर से हिला कर हवा पैदा करती है.. फलक बड़ा हो जाता है. पृष्ठभूमि में सुदूर तक मकई के खेत नज़र आते हैं. प्रेम और संगीत के गोद में दिन बीत जाता है. ... मैं महारास की बात नहीं करूँगा पर वो द्वापर था. ***** दीदी के शादी की तैयारियां जोरों पर हैं. पूरे घर में सामान की उठापटक चल रही है.  पूरा  घर  मेहमानों से   भरा है. आँगन का चापाकल लगभग दिन भर चलता है और हर बार उसमें से ग्रीस कम होने क