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Showing posts from November, 2015

एक भारी शाम का हाले दिल

अपने दामन में जाने कितने दुख दबा रखे हैं आज आसमान ने कि मटमैला दिख रहा है। भादो महीने के गंगा नदी के मटमैले पानी की तरह जिसके सैलाब में ढेर सारे गति रोकने वाले पेड़ अपने जड़ समेट बह जाते हैं। लेकिन बादलों में बहाव नहीं है। इसलिए आसमान ठहरी हुई है। अपनी जगह हल्की लाल बुझते बालू की तरह। भारी। और शामों के मुकाबले सर पर ज्यादा झुकी हुई। औसत गीलेपन से ज्यादा भीगे स्पंज की तरह। एक हज़ार चोट सहे हैं और सौ बात छुपाए तो एक और ही सही। जो मन भारी है तो इस बात कि क्यों आए दिन बताना पड़ता है। क्यों हर बार अपनी ईमानदारी साबित करनी पड़ती है। रिश्ता सिमटता है तो उसका नाम प्रेम पड़ जाता है। यह मनी प्लांट है, फैलती लत्तरों जैसा। एक पत्ते से पेड़ सकता है और पेड़ से वापस एक पत्ते के रूप में अलग हो सकता है। इंडिया हैबिटैट सेंटर की वह शाम हसीन थी। सर्दी अभी आई न थी और गर्मी जा रही थी। शाम दो मौसिमों के मिलने और बिछड़ने का जंक्शन था। मैं गर्मी के रूप में अपने दिल में उमस भरे उससे मिलने आया था। और वो जैसलमेर के खुले आसमान तले औंधी लेटी रेत के ठंढे धोरों की तरह। मेरी बड़ी से बड़ी चिंता उसके हंस

माचिस की सुग्गा नाक पर का मसाला

गुस्साती है वह तो जैसे आम के मीठका अचार से चाशनी सूख जाती है पूरी जल चुकने के बाद काठ पर खत्म हुई मोमबत्ती बैठ जाती है। छेड़ते जाओ उसको हर मुलायम परत उघड़ती है। मुंह फुलाना भी उसका मेरी उंगलियों को मुलायम बनाता है उसके गुस्से की ज़रा ज़रा कागजी चुप्पी मेरे दिल पर पैठ जाती है। देर तक काबिज रहता है पोरों पर वह एहसास मोम का  मैं लाख जतन करता हूं मनाने का उसको त्यौरियां तब थोड़ी और चढ़ आती है ज़रा सा वह और हसीन हो जाती है मैं ख्याल करता हूं कि मुझे उसका अधखुला सीना दिखता है कई बातों को जब्त किए जो ऊपर नीचे होता रहता है उस वादी से अनकहे शिकवों का धुंआ उठता रहता है मैं शब्द तलाशता रहता हूं बोलने को फिर से उससे वह देर तक बात बनने नहीं देती है चाहता हूं समय के प्रेशर कुकर में प्रेम की दाल गले  मगर वह गलने नहीं देती है हाथ रखूं हाथ पर उसके झटक देती है नीचे झुक कर जो उसकी आंखों में झांकूं तो मुंह फेर लेती है उसे मनाने के लिए मैं नए सिरे से कोई बात उठाता हूं  और उसके कंधे पर हाथ रखने की कोशिश करता हूं जानती है वह शायद ये भी  कि मेरी हथेली के स