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Showing posts from May, 2012

सुन दर्जी! तेरे सिले कपड़ों की फिटिंग सही नहीं आती।

सूरज की तरफ पीठ किए मैं एक पूरा-पूरा दिन तुम्हें सोचता रहता हूं। ऐसा लगता है तुम पीछे कुछ दूरी पर बैठी मुझे लगातार देख रही हो। तुम्हारी आंखों की नज़र मेरी गर्दन पर एकटक चुभा हुआ है। इस गड़ने वाली नज़र से जो गर्मी निकलती है उससे मेरी कनपटी, गर्दन, कंधे और पीठ में अकड़न शुरू हो जाती है। इन जगहों के नसों में झुरझुरी होने लगती है। किसी रहस्यमयी सिनेमा में तनाव के समान तुम्हारा ख्याल हावी होता जाता है और मैं धूप में कांपने लगता हूं। प्यार में आदमी कहीं नहीं जाता। वहीं रहता है सदियों तलक। तुमने आज सुबह सुबह पिछले साल क्रिसमस की जो तस्वीर भेजी है, गोवा 2011 के नाम से सेव है। मैं यहां बैठा बैठा भी 2011 का ख्याल नहीं कर पाता। हालत किसी जख्मी परिंदे जैसा है जो भूलवश किसी गुंबद के अवशेष में आ गया है और अब चोटिल हो चारों दीवारों पर अपने पंजे मार कांय कांय किया करता है। XXXXX प्रचंड गर्मी में सर पर जो थका हुआ पंखा अपने पूरे वेग से घूमता है जिसे कैमरे की नज़र से स्लो मोशन में घूमता नज़र आता है, वो भी सन्नाटा नहीं काट पाता। बाहर का तो क्या अंदर का सन्नाटा पूरा महफूज रहता है। कोई यकीन करेगा

बालिग़ सिर्फ उम्र से ही नहीं हो रहे थे

क्या करूं उम्म... उससे पैसे मांगू या नहीं ? कपिल से तो ले नहीं सकता। उसकी खुद की हज़ार समस्याएं हैं। गौतम दे सकता है लेकिन देगा नहीं। सुनीती आज देगी तो कल मांगने लगेगी। अविनाश एक सौ देता है तो दो घंटे बाद खुद उसे डेढ़ सौ की जरूरत पड़ जाती है। सौमित्र के पास पान गुटके खाने के लिए तो पैसे जुट जाएंगे लेकिन मेरे मामले में वो लाचार है, जुगाड़ नहीं कर सकेगा। रोहित से कहूंगा कि पैसे चाहिए तो तुरंत नया बैट दिखा देगा कि अभी अभी छाबड़ा स्पोर्टस् से खरीद कर लाया हूं, मेरा बजट तो सोलह सौ का ही था लेकिन इसमें स्ट्रोक है और साथ ही हल्का भी सो पसंद भी यही आया इसके लिए चैबीस सौ का इंतजाम करना पड़ा। सो तुम्हें क्या तो दूंगा उल्टे आठ सौ रूपिया उधार ही लगवा के आया हूं। घर के रिश्तेदारों में कौन दे सकता है उम्मम... संजन दीदी ! ना उसके अंटी से तो पैसे निकलते ही नहीं हैं। अंजन दीदी मुंह देखते ही अपना रोना रोने लगती है। उसके मन में यही डर बैठा रहता है कि कोई हमको देखते ही पैसे ना मांगना शुरू कर दे सो बेहतर है पहले मैं ही शुरू हो जाऊं। दिनेश भैया को मालूम है कि मुझे पैसे चाहिए सो वो आंख ही नहीं

कटेगा बेतरतीब तो रहेगा मौलिक...

बड़ी अच्छी थी जवानी सागर। अच्छे बनने के चक्कर में खामखां मारे गए और अब देखो खरामा-खरामा हो गया। अरे कम से कम अपना नज़रिया तो था। माना एक संकीर्ण सोच वाले कांटी थे लेकिन दीवार के पक्केपन को गहरे ड्रिल तो करते थे। आज हालत ये है कि अच्छे बनने के फेर में अपने बुराईयों में शहंशाह की पदवी भी खो बैठे। कितने खोखले लगते हो, ओढ़ी हुई विनम्रता, अहिंसा और परिपक्व बुद्धि। तुम भी अमांयार क्या ठीक से बिगड़े नहीं थे जो सुधरने की गलती कर बैठे? अरे मेरी मानो गर्मी और आम दोनों का समय है। लाल मिर्च की बुकनी, कच्ची घानी सरसों तेल, धनिया की गर्दी आदि मिलाओ और अपने अच्छाई को मर्तबान में डाल उसका अचार बना लो। महीने में एक आध बार खा लेना। वैसे तुम्हारे लिए तो यह अचार भी नुकसानदायक है। यह मुहांसे और स्वप्नदोष के कारक और कारण हैं।  चलो बिगड़ते हैं कि कुछ रूहों को वहीं सूकून मिलना है। याद है किसी संपादक ने तुम्हें तुम्हारी औकात बताते हुए कहा था कि तुम्हारे मरने की खबर देर रात के प्रादेशिक बुलेटिनों में भी नहीं होगी। बड़े बड़े नेताओं को तो हम तीन लाइन में निपटाते हैं। आह कितना सुंदर नापा था उसने मुझे।

उड़े उकाब, लटके चमगादड़ नतीजा सिफ़र

फिर बुखार...! बस उठ कर कुर्सी पर बैठा हूँ। बैठा कुर्सी पर हूँ लेकिन खुद को बिस्तर पर ही सजीव पा रहा हूँ। आखिर बीमार क्या है दिमाग या शरीर ? अभी-अभी ऐसे में उसे प्यार करके उठा हूँ।  बिस्तर की सलवट मेरी ही बूढ़ी झुर्रीदार, नर्म, सिकुड़ी हुयी त्वचा की तरह लग रही है। पैर में ताकत नहीं है, अंदर से खोखला महसूस कर रहा हूँ लेकिन अब भी उसे प्यार करने का मन है। ढीली सी चादर ने उसे यूं लपेट रखा है कि उसका रंग और अल्हड़ सा हो आया है। ऐसा लगता है जैसे उसने अपने अंगों की खूबसूरती का दसवां हिस्सा चादर को दे दिया है और जबकि उसके और चादर के बीच कुछ नहीं है लेकिन खुद उसकी कमर ही कुछ अलंघ्य रेखाएं खींच रही है। चादर कोई प्यासा बेबस सा प्रेमी बन आया है जिसे उसकी कमर अपनी हिलारों से थोड़ा थोड़ा भिगो उसकी प्यास अपनी मर्जी से बुझाती है। कैसी दो गोरी गुदाज़ बाँहें खुली हैं! आधी नींद में लरज़तीं, पास जाओ तो वो किसी दुधमुंहें बच्चे की तरह अंगूठा चूसने में लीन हो जायें। वो बाँहें और पैर मुझे ऐसे ही घेरते हैं। वो बाँहें जो अपने रौ में हों तो पूरे का पूरा मुझे ही लील जायें और यूं आधी कच्ची

एक ही रंग दिखाता है सात रंग भी

 सच बता निक्की, वो जानबूझ कर ऐसा करता होगा ना? आखिर कितने दिन तुम किसी को अनदेखा कर सकती हो ? कभी, कभी तो, किसी भी पल, एक बार भी, थोड़ा सा भी, एक्को पैसा, एकदम रत्ती भर भी, कभी तो उसको लगता होगा कि हम उसके लिए मरे जा रहे हैं, क्या बार भी वो आंख भर के देख नहीं सकता है, और सबको तो देखता है, गली में शाम ढ़ले लाइन कटने पर बगल वाले बाउंड्री पर बैठ सबके साथ अंतराक्षरी खेलने का टाइम निकाल लेता है पर मेरे लिए समय नहीं है ! ऐसा कैसे हो सकता है यार? साला बड़ा शाहरूख खान बना फिरता है। सिमरन ने पूछा - मेरी शादी में आओगे? बस आंख नचाकर बंदर सा मुंह बना कर कह दिया - उन्हूं और उल्टे कदम स्टाईल मार चलता बना। और हमलोग भी क्या फालतू चीज़ होते हैं यार ! यही इग्नोरेन्श पसंद आ जाता है कि साला सारी दुनिया के छोकरे बिछे रहते हैं, एक इशारा जिसे कर दूं तो शहर में चाकू निकल आए लेकिन हम हैं कि जो हमें हर्ट करेगा उसी से प्यार होगा। अब उसी दिन की बात ले। बीच आंगन में मैं पानी का ग्लास दे रही हूं तो नहीं ले रहा। भाभी से लेगा, सुनीता से भी चाहे कोईयो और डोमिन, चमारिन रहे सबके हाथ से ले लेगा लेकिन हम देंगे

बूंदाबांदी से केवाल मिट्टी फिसलन भरी हो गई है। संभलकर बाबू ! कमर चटख सकती है।

रात भर रोता रहा पानी। टंकी किसी मोटे शामियाने में कोई आदमकद अक्स छुपाता रहा। छत की छाती गीले जूते सी सूज गई। सीढि़यां बूंद बूंद कर अवसाद से भर गई। पानी काले कोलतार सा लेई की तरह लरज़ती रही। सुरंग के मुहाने पर पानी छन छन कर गिरता रहा। बीच रास्ते मैं पड़ा-पड़ा सड़क पर ख्याल करता रहा कि वो नहा रही है और केशों से होते हुए पानी भारी हो उसके कंधे भिगो रहे हैं।    रेल की पटरियों के ब्लाउज के हूक किसी ने आज शाम ढ़ले खोले हैं। दिन भर उमस से अपने गंध में डूबी पटरियों के सीने से अब नर्म नर्म धुंआ उठ रहा है। मुसाफिर कहां रहा इत्ते दिन ! रोज मुझपर से गुज़रता रहा और मेरी ही सुध न रही। ये कौन सा शिकायत का लहज़ा लरजा है उसके सीने के बीच से ? जिसे सुन कर दोनों स्तनों के बीच की सिलाई उधेड़ कुछ हीरे छुपा देने का मन होता है उनमें।    दोनों कोहनियों को पेट में चुभा कोई काला बच्चा रो रहा है। दूर रखी डबल रोटी की टोकरी भींग कर मांस का लोथड़ा बन गया है। वाह रे कुदरत! मुंह लगाओ अनाज और पानी साथ मिलेगा।    रेल के डिब्बों पर बरस रहा है पानी। बीच की मांग फाड़े शायद कोई लड़का नहा रहा है। थर्ड ए सी वाली बोगी में ख

हलाल

रात भर बकरा टातिये के साथ बंधा म्महें - म्महें करता रहा । प्लास्टिक की रस्सी से बंधे अपनी गर्दन दिन भर झुड़ाने की कोशिश करता रहा । बकरा बेचने वाले ने खुद मुझे सलाह दी थी कि ऐसे सड़क पर घसीट कर ले जाने से कोमल गर्दन में निशान पड़ जाएंगे जो उसकी खराब तबीयत का बायस होगा। सो उसने खुद उसके खुर के बीच से रस्सी लेते हुए एक गांठ उसके पिछले बांए पैर में बांध दी। मैंने मालिक को उसके बाकी रह गए पैसे दिए और मैंने ले जाने के लिए जैसे ही रस्सी को झटका दिया, खींचा बकरे ने जोरदार बगावत कर दी। बकरे का मालिक जो कि अपने शर्ट का चार बटन खोले बैठा था और जिसके दांतों के बीच फांक में पान का कतरा अब भी फंसा था ऐसे में हंस रहा था। चूंकि मैं ऊंची जाति से आता हूं और वो मेरा देनदार रहा है सो वह मेरे सामने नीम की एक पतली सींक ले जोकि अमूमन खाने के बाद दांत में फंसे अनाज के टुकड़े को छुड़ाने के लिए किसी मुठ्ठा बनाकर छप्पड़ में टांगा जाता है वह उससे अपने कान की अंदर की सतह पर वो टुकड़ा घुमा सहलाने का आनंद ले रहा था। बकरा अब भी मुझसे अपरिचित की तरह व्यवहार कर रही थी। वह अपने चारों पैरों को फैलाकर जा