जीने के लिए वो उतनी ही जरुरी थी, जितनी असफलता ग़ालिब के जीवन में थी. हम इसे जीवन के प्रति वितृष्णा किसी कीमत पर नहीं कह सकते बल्कि यूँ कहें की यह एक जिजीविषा थी उसे चाहने की. पाने जैसी तो कोई शर्त ही नहीं थी यहाँ... आसमानी मुहब्बत थी मानो ज़ज्बाती नहीं, रूहानी लगाव था.
उसे खूब देखने का मन करता, भूख प्यास तज के देखता रहता... अगर अध्यात्म नाम का कोई रास्ता भरी जवानी में होता था तो वो भी वहीँ से होकर जाता. उसे देखने की कोई शर्त नहीं थी बस देखते रहना शर्त था... एक अलिखित समझौता, पर ट्विस्ट यह की हस्ताक्षर के बाद निब तोड़ने के बजाय संभाल कर रख ली गयी थी.
उसके आने की आहट दिमाग की सीढियों पर उतरती तो लगता किसी झील के तल में कुछ दिए जल उठे हो. वो पाँव डुबाती ना थी बस शांत पानी को छेड दिया करती वो जानती थी- झील इतने से ही असंयत हो उठता है.
वो उस हद तक खूबसूरत थी जहाँ से बस यह कमजोरी निकाली जा सकती थी की वो अद्भुत है... सलीका उसके कंधे में था, अदब पलकों में, पीठ थोड़ी सी अल्हड थी और ऊपर और नीचे के होंठ शोला और शबनम नाम से शब्दों के अर्थ लिए बंटे हुए थे. वह जो चिकनी सतह थी वो बात करने से पहले चेताती कि “यहाँ से कला काला होने लगती है”
यों तो उसे ज़हीन लोगों के देखने के लिए बनाया गया था पर खुदा ने नज़र की पाबंदी नहीं लगायी थी तो आवारे भी देख लिया करते. वह दूर से क़यामत थी, पास से कायनात थी, आँखें बंद करने पर कातिल थी और खोलने पर मयखाना...
उसे देखते रहने पर लगता वो स्त्री में तब्दील हो गया है और मातृत्व सुख का आनंद ले रहा है.
वो कपड़ों में लिपटी थी तो गज़ल थी, खिसकते कपड़ों में बला... जब आखिरी बार निर्वस्त्र देखा तो बदसूरत हो उठी.
अब अदृश्य समझौता-पत्र के चिथड़े हो चुके थे उधर लेखनी की निब भी जाती रही.
वो कपड़ों में लिपटी थी तो गज़ल थी, खिसकते कपड़ों में बला... जब आखिरी बार निर्वस्त्र देखा तो बदसूरत हो उठी. .....bahut khubsurat.
ReplyDeleteबहुत अच्छा । बहुत सुंदर प्रयास है। जारी रखिये ।
ReplyDeleteआपका लेख अच्छा लगा।
हिंदी को आप जैसे ब्लागरों की ही जरूरत है ।
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हम्म ......
ReplyDeleteवो जिसकी इबादत की थी ताउम्र मैंने.....
मेरी पहलु में आकर सिर्फ इंसान लगा
कंट्रास्ट है ....सच भी है ....ओर ऐसे सच कहने तुम्हे बखूबी आते है......
Bahut prabhavi lekh...ek kasak liye hue..
ReplyDeleteखूब बहे हर्फ़, लहरों का आवेग लिए
ReplyDeleteपर जो कहते थे, सुनाई न दिया
वो कपड़ों में लिपटी थी तो गज़ल थी, खिसकते कपड़ों में बला... जब आखिरी बार निर्वस्त्र देखा तो बदसूरत हो उठी.
ReplyDeleteno more words!!!!!
nivastra dekhne par badsoorat kyun ho uthi???
ReplyDeleteसंकेतात्मक भाषा का अच्छा प्रयोग है,
ReplyDelete"जीने के लिए वो उतनी ही जरुरी थी, जितनी असफलता ग़ालिब के जीवन में थी। हम इसे जीवन के प्रति वितृष्णा किसी कीमत पर नहीं कह सकते बल्कि यूँ कहें की यह एक जिजीविषा थी उसे चाहने की"
पंक्तियाँ प्रभावशाली हैं, और मैं सहमत हूँ,
सागर ध्यान से सुनो..मैं व्यवहारिक दृष्टिकोण से जवाब दे रहा हूँ।
एक गंभीर बात ये कि आपने जो ये लिखा है, इसे सिर्फ लिखा हुआ मानकर ही संतुष्ट हो लिया जाए या इसके व्यवहारिक दृष्टिकोण को भी लेकर चला जाये। किसी ने कहा है " देह के बगैर प्रेम अनुपस्थित होता है "...बेशक यह सच है...और आध्यात्मिक,रूहानी या विशुद्ध वैचारिक प्रेम भी कही न कही व्यवहारिक प्रेम को टालने का प्रयास है। हो सकता है कोई मेरी इस बात से सहमत न हो मगर यह सच है, और यह सच कोई विचारधारा का सिद्धांत नहीं मानव समाज का सच है। अंत में आपने जो कहा "निर्वस्त्र देखा तो बदसूरत हो उठी"....यह सच बात है मगर....फिर भी...अगर यह जीवन में घटित हो उठे तो शायद हम और तुम अपनी वैचारिकता से अलग हो जायेंगे..वैचारिकता याने जिसे तुमने "एग्रीमेंट" नाम से प्रस्तुत किया।
Nishant
आपकी लेखनी के किरदार यूँ सद्रश्य हो उठते जैसी खुली आँखों से भी आराध्य का स्मरण.... इसे पढ़ा तो सच बोलूं ....हम ही नज़र आये... शायद इसी को लेखन कहते हैं
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