घडी की सुइयों की आवाज़ उसे अभी भी सुनाई दे रही है. लग रहा है उसने अपनी जिंदगी को दो हिस्सों में बाँट दिया है. एक, आज का दिन जो शांत है, निर्विकार है और जिसे योगीजन परम ध्यानमग्न अवस्था का नाम देते हैं और एक भीड़-भाड़ और शोर-गुल वाली आम दिन वाली जिंदगी.
शाम होने को आई पर उसके ब्रह्मांड में एक शून्य घूम रहा है, नहीं, आज तो पछताने की भी मूड में नहीं है. वो अभी तक एकांत में ही है... लगता है यह बादल आज बरसेंगे. वो नंगे पांव पत्थरों पर चलते-चलते काफी दूर चला आया है. अंधरे में सारी धरती हिल रही है. प्रकृति का यह रूप देखकर वो विह्वल है. आज अपने चाल में उसने वो उछाल भी नहीं दी है. आहट में ना कोई अर्थ भी नहीं. मंथर चाल से बस ... चला जा रहा है.
जिंदगी का यह कोना कितना अच्छा है. ओह ! मैं इसे कोना क्यों कह रहा हूँ यहाँ तो विशालता है. आज जब इसके करीब जा रहा हूँ तो लग रहा है यह मुझे लील ही लेगा. ढेर सारे दृश्य रवि के दिमाग में आने लगे जैसे हिमालय पर संस्कृत भाषा में कोई समूह गान हो रहा हो. वह चाहता है सतयुग में चला जाये, पेड़, पौधों व नदियों को वो कोई नया संबोधन दे.
बलखाया दरिया तमाम गुबार लिए उमड़ पड़ता है.
शोर्ट फ्रीज़ हो जाता है.
बेहतरीन प्रवाह..उम्दा भाव!
ReplyDeleteगुलज़ार की नज़्म याद आती है .बुड बुड करता बुढ्ढा दरिया ..........पार्ट एक.........पार्ट.दो
ReplyDeleteनये शोर्ट में क्या होगा नहीं मालूम,पर सतयुग में जाने की बात भली भली सी लगी.
ReplyDeleteसमंदर से कोई भूल हुयी है, रूठे हुए को मनाने के लिए एक लहर आगे बढाता है तो दो पीछे खींच लेता है...सदियों से समंदर उसका इंतज़ार कर रहा है...खफा हुए प्रियतम का...कि वो पुकार ले...लौट आये.
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बहुत सोचकर वो धीरे से पुकारता है – प्रिये !
बलखाया दरिया तमाम गुबार लिए उमड़ पड़ता है.
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ReplyDeleteह्म्म..मगध मे कमी नही है ’बेचारों’ की..
ReplyDeleteमरीन ड्राइव पर ’विक्टोरिया के इक्के’ ड्राइव करते हुए अनायास वैचारिक खुजली के परिणामतः ध्यान बँट जाना स्वाभाविक है..!!;-)
आहट में ना कोई अर्थ भी नहीं में से ना या भी नहीं हटा दें.
ReplyDeleteहिमालय पर संस्कृत भाषा में कोई समूह गान हो रहा हो.
कमाल का बिम्ब.
एक बात (अप्रासंगिक) याद हो आई. कॉमन वेल्थ के लिए जब मशाल ला रहे थे इंडिया...
इंग्लैंड में अँगरेज़ के बच्चे (जो खुद भी अँगरेज़ ही थे अपने माँ बाप की तरह) सरस्वस्ती वंदन कर रहे थे, संस्कृत में !
जो शायद हिमालय के अलावा भारत में भी कई और जगह भी बोली जाती है. क्यूँ कभी कभी थोपी चीज़ें अच्छी लगती हैं? जैसे मडोना का साडी पहनना ?
प्रिये !
ReplyDeleteएक शे'र बदलना चाहता हूँ : कौन कहता है की ज्वार बुलाने से नहीं आते , एक नाम तो तबियत से उछालो यारों
"ढेर सारे दृश्य रवि के दिमाग में आने लगे जैसे हिमालय पर संस्कृत भाषा में कोई समूह गान हो रहा हो. वह चाहता है सतयुग में चला जाये, पेड़, पौधों व नदियों को वो कोई नया संबोधन दे."
ReplyDeleteयह दो पंक्तियां पढ़कर एक दूसरा चेहरा बन रहा है आपका ! कई दिनों से कुछ भी न लिख-पढ़ सकने की परेशानियां ऐसी ही प्रविष्टियां लील लेती हैं !
आभार ।