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सिनेमा के कार्य-व्यापार का फ्लैशबैक





1910 में, मुम्बई में, अमेरिका-इण्डिया पिक्चर पैलेस में मैंने एक फिल्म `द लाइफ ऑफ क्राइस्ट´ (ईसा मसीह की जीवन गाथा) देखी। इसके पूर्व मैंने कई अवसरों पर अपने मित्रों और परिवार-जनों के साथ फिल्में देखी थीं, लेकिन वह दिन, क्रिसमस के दिनों का वह शनिवार, वही मेरे जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन की शुरूआत का दिन था। वो दिन ही भारत वर्ष में एक उद्योग की स्थापना का स्मृति चिन्ह है कि बड़े-छोटे सभी व्यवसाय जो आज विद्यमान हैं उसमें उसका पांचवां स्थान बन गया है और यह सब मुझ जैसे एक गरीब ब्राह्मण के द्वारा सम्भव हो पाया। ईसा मसीह के जीवन की महान घटनाओं को देखते हुए जब मैं सुध-बुध खोया हुआ ताली बजा रहा था तब मुझे विचित्र अवर्णनीय भाव की अनुभूति हुई। जब ईसा मसीह का जीवन मेरे दृश्य पटल पर तेजी से घुमड़ रहा था, उसी वक्त मैं श्रीकृष्ण भगवान और श्री रामचन्द्र भगवान् को और गोकुल एवं मैंने महसूस किया कि मेरी कल्पना पर्दे पर रूप ग्रहण कर रही है। क्या वास्तव में हो सकता है ? क्या हम भारत-पुत्र पर्दे पर भारतीय बिम्बों को कभी भी देख पाएंगे ? समूची रात इसी मानसिक उहापोह में बीती। उसके बाद के दो महीनों तक मैं बिल्कुल भी आराम से नहीं बैठा और मैंने बम्बई में दिखाई जा रही सभी फिल्मों को देखा। इसी पूरी अवधि भर मैं हरेक फिल्म की व्याख्या करने में लगातार रहा और यही सोचता रहा कि क्या यहां भी फिल्में बनाई जा सकती हैं?
भारत में इस व्यवसाय की उपयोग और इस उद्योग के महत्व पर मुझे कोई सन्देह नहीं था। लेकिन मैं यही नहीं समझ पा रहा था कि यह सब मैं कैसे हासिल करूं। सौभाग्यवश, यह बात मेरे मन में किसी गम्भीर समस्या की तरह नहीं जमी, ओर मैंने आत्मविश्वास धारण किया कि ईश्वर मेरा साथ देगा और मैं निश्चय ही सफलता प्राप्त करूंगा। मेरे आत्मविश्वास को इस बात से ज्यादा बल मिला कि मैंने तो ड्राइंग, पेंटिंग वास्तु-शिल्प, फोटोग्राफी, रंचमंच और जादू-खेल में बहुत कुछ सीख रखा है और ये सब फिल्म-निर्माण में सहायक हैं। यहां तक कि मैंने तो सोने-चान्दी के मेडल में इन कला-कौशल में जीते हैं। इन्हीं शिल्पों का आरम्भिक प्रशिक्षण मेरी फिल्म को सफलता प्रदान कर दर्शक को स्वीकार होगी। लेकिन यह सब मैं कैसे रूपाकृत करूं ?
सफलता के लिए अपने उत्साह और विश्वास के बावजूद, मुझे मालूम था कि जब तक मेरे पास कुछ-न-कुछ ठोस आकर्षक चीज नहीं होगी तब तक कोई भी मेरे लिए पूंजी का बन्दोबस्त नहीं करेगा। सो, मैंने खुद अपने पास जो कुछ था वह सब गिरवी रखा और अपना सारा प्रयास फिल्म के काम की ओर लगा दिया। अत: मैं विशाल आकाश में उड़ने लगा, और मुझे ज़रा भी होश नहीं रहा कि मैं धरती पर किस जगह गिरूंगा। मेरे दोस्तों ने तो सोचा कि मैं बावला हो गया हूं और मुझे पागलखाने में भर्ती कर दिया जाना चाहिए। मैं दीवाना था, मैं अपने संपत्ति को गिरवी रखता गया। इन छ: महीनों में मैं सिर्फ तीन घंटा प्रतिदिन ही सो सका। लगातार फिल्में देखती हुई, उनीन्दी मेरी आंखें दिमागी तनाव और निरन्तर प्रयोगकर्म के कारण, दुखने लगती थीं। अपने परिवार को सम्भालना, और फिर सम्बंधियों के लगातार तिरस्कृत होना, और इन सबके ऊपर अपनी योजना के असफल हो जाने का भय, इन सबने मिलकर मुझ पर इतना दवाब डाला कि मैं उन दिनों अंधा सा हो गया।
मेरी आंखों को कोर्निया का रोग हो गया। मैं डॉ0 प्रभाकर का अत्यन्त आभारी हूं कि उनके किए गए समयोचित इलाज ने मेरे दृश्टव्य संसार को पुन: कायम कर दिया और मैं, तीन या चार जोड़ी चश्मों के सहारे, अपनी गतिविधियों को जारी रख पाया। लेकिन सबसे बड़ी दवाई तो आशा ही थी।
`यह स्वदेशी आन्दोलनों का वक्त था और इस विषय के बाबत ढेर सारी बातें और भाषण होते रहते थे। मेरे लिए, व्यक्तिगत तौर पर, मेरी सुविधाजनक शासकीय नौकरी से इस्तीफा देने का भी यही सबब था और उसी कारण मैंने स्वतन्त्र व्यवसाय पसन्द किया था। इस अवसर पर सिनेमा के विषय पर मैंने अपने विचार दोस्तों एवं स्वदेशी आन्दोलन के नेताओं को भी बताए। लेकिन मेरे सभी दोस्तों ने, यहां तक कि पन्द्रह वर्ष पुराने दोस्तों ने भी मेरे विचारों को अव्यावहारिक बताया और वे सब मुझे पर हंसे
अन्तत: मेरा एक दोस्त जो करीब दस वर्ष से मरे साथ था और मेरे व्यवहार रूपए-पैसों के लेनदेन की ईमानदारी तथा व्यवसाय के प्रति मेरी लगन और महनत पर यकीन रखा, वो मेरे प्रस्ताव पर सहानुभूतिपूर्वक सोच-विचार करने को राजी हुआ। मैंने उसे अपनी योजना बताई और उसे भरोसा दिलाया। यह व्यक्ति पच्चीस हजार रूपयों की व्यवस्था करने की क्षमता रखता था। वास्तव में तो फ़्रांस और अन्य अमरीकी, यूरोपीय कंपनियों में लगे हुए सात करोड़ रूपयों की तुलना में ये पच्चीस हजार रूपए कुछ भी नहीं थे। मेरे स्टूडियो के लिए यह धन बिल्कुल अपर्याप्त था। बहरहाल, किसी स्वतन्त्र उद्यम के लिए पूंजी की व्यवस्था कर लेने उन कमीशन एजेंटों के इस देश में बड़ी उत्साहजनक बात थी जिनकी एकमात्र आकांक्षा केवल विदेशी माल का प्रदर्शन करना और बेचना होता था। यहां तक कि फिलम निर्माण के उपकरण के सूची-पत्रों का मंगाना तक उन्हें नहीं भाता था। काम करने के लिए सहकारिता के सिद्धान्त से किसी को कोई मतलब नहीं था। इससे मेरे उत्साह को धक्का लगता था। बहरहाल, यह निश्चय है कि यदि मैंने थोड़ी ज्यादा पूंजी हासिल करने का प्रयास किया होता तो मुझे घोर निराशा मिलती और मेरे सारे ख्यालात धरे रह जाते। मेरा यह विश्वास है कि पच्ची स हजार रूपयों की पूंजी उस आरम्भ के लिए और जनता की दिलचस्पी बनाने के लिए पर्याप्त होगी कि जिसके आधार पर मेरे विश्वास को सिद्ध किया। मैंने ठीक ही आशा की थी कि तीन या चार फिल्मों से हासिल की गई आमदनी के आधार पर मेरा स्टूडियो स्वयं विकसित हो जाएगा। बाद में, मेरा दोस्त ज्यादा बड़ी पूंजी लगाने को राजी हो जाएगा या कोई अन्य धनी आमदमी इस उन्नतिशील व्यवसाय में शामिल होने के लिए आगे बढे़गा। और आखिर में, मैंने यह भी सोचा कि आम भारतीय ऊपर उठकर मेरे काम को पूरा करने में मुझसे सहयोग करने लगेगा।
इस बात का मुझे दर्प है कि मैं अपने काम में कभी भी उतावला नहीं हूं, मैंने इसीलिए, इतनी बड़ी पूंजी इस व्यवसाय में लगाने के पूर्व, विदेश जाकर आश्वस्त होना चाहा कि मेरी कल्पना और फिल्म-निर्माण के वास्तविक काम के बीच क्या अन्तर है ? विदेश जाने के लिए मुझे बहुत थोड़े से धन की ही जरूरत थी ताकि मैं सिनेमा के उपकरण खरीद सकूं जो कि इसीलिए जरूरी था ताकि मैं पूंजी लगाने वाले अपने दोस्त को कह सकूं कि इस कला (सिनेमा) में मैं दक्ष हूं और कि अब पूंजी अलाना जोखिम भरी बात नहीं है। लेकिन वह साधारण धनराशि बहुत ज्यादा भारी ब्याज पर ही मुझे मिली और मैंने सहर्ष उस इकरारनामे पर दस्तखत कर दिए जो कि साहूकार के बहुत पक्ष में था। इस प्रकार, अत्यन्त अल्प पूंजी से मैंने इतने विशाल व्यवसाय की नींव डाली जो कि वास्तव में तो किसी चाय दुकान या नाई-दुकान के लिए भी कम थी। लेकिन, ऐसा इसीलिए हो पाया क्यों मुझमें अपने काम के प्रति बड़ा लगाव था और मुझमें बड़ा आत्मविश्वास था कि मैं निश्चय ही इस नए व्यवसाय को सारे व्यवधान के बावजूद खड़ा करके ही दम लूंगा।
फरवरी, 1912 की पहली तारीख को मैं मुम्बई से इंग्लैण्ड के लिए रवाना हुआ। यह मेरी दूसरी विदेशी यात्रा थीं इसमें मुझे मेरे काम के बाबत आश्वस्त किया क्योंकि फिल्म निर्माण बाबत मेरी कल्पना और विचार उस वास्तविक फिल्म निर्माण की प्रक्रिया से मेल खाते थे जो मैंने वहां देखी थी। मैंने कुछ उपकरण खरीदे और अत्यन्त मुश्किल से वहां के एक प्रख्यात् स्टूडियो को देख पाया। 10-15 दिनों के अन्दर फिल्म निर्माण के सारे प्रक्रम को देखने और कुछ फिल्मी काम को स्वयं अपने हाथ से करने के बाद मैं वापस लौट आया। विदेश से वापस लौटने के एक महीने के भीतर-भीतर मैंने अपने साहूकार मित्र की आश्वस्ति के लिए कोई 100-200 फुट लम्बी फिल्म तैयार की। यह फिल्म मैंने अपनी पत्नी और बच्चों की मदद से बनाई। लेकिन, मुझे व्यावसायिक अभिनेताओं को काम पर लाने के लिए पूंजी की बहुत सख्त जरूरत थी। एक साहूकार को मैंने इन फिल्मी टुकड़ों को दिखाकर मनवाया कि इन्हें सफलता मिल सकती है, तो वह मुझे आवश्यक धन समुचित गारंटी पर उधार देने को राजी हो गया। मैंने विज्ञापन देकर अपने शिष्यों (कलाकारों) और अन्य कर्मियों को अपने साथ किया। मैंने उन्हें खूब प्रशक्षित किया और सिर्फ छह महीनों के भीतर राजा हरिश्चन्द्र को मैंने पर्दे पर उतार दिया। इस फिल्म की महज एक प्रिंट से ही मुझे आश्चर्यजनक लाभ मिला। एकदम से इसकी दर्जन भर प्रिंट की मांग आ गई। लेकिन मुझे लगा कि एक फिल्म की आमदनी ज्यादा दिन नहीं चल सकती जैसा कि स्वदेशी आन्दोलन की गति बनी थी - और सिर्फ इसके आधार पर स्थायी आमदनी का आधार नहीं बन सकता है। इन विचारों के साथ, मैंने दूसरी फिल्म `मोहिनी भस्मासुर` बनायी। मैंने वर्षा के दो-तीन महीनों भर अपना काम बन्द रखा और 3 अक्टूबर, 1913 को अपना स्टूडियो मुम्बई से नासिक ले गया। यह कई वजह से सुविधाजनक थी। वहीं पर मैंने `मोहिनी भस्मासुर` बनाई। सौभाग्यवश इस फिल्म से भी मुझे पर्याप्त लाभ मिला। इस कारण मुझे बहुत प्रेरणा मिली। मैंने अपनी तीसरी फिल्म `सावित्री सत्यवान`का निर्माण किया । इस फिल्म ने भी प्रथम और द्वितीय फिल्मों की तरह ही सफलता पाई।
मैंने सारी आमदनी को अपने स्टूडियो को टिपटाप करने में लगाया। साथ ही साथ मुझे मेरे सम्पन्न मित्र से भी आर्थिक मदद मिलनी शुरू हो गई क्योंकि वह जब आश्वस्त हो चुका था कि मेरी फिल्म की एक अकेली प्रिंट ही बड़ी आमदनी कर सकती थी। यह वास्तव में उल्लेखनीय है कि उपयुक्त तीन फिल्मों की महज एक-एक प्रिंट ने मुझे इतनी आमदनी कराई कि मैंने स्टूडियो के निर्माण में जो कर्ज लिया था वह निपट गया।
इस वक्त तक मुझे विदेशों में भी ख्याति मिल गई । भारतवर्ष में वितरण की समूची एजेंसी लेने को राजी हो गए, क्योंकि यहां के पांस-सात सौ थियेटरों, सभी में, मेरी फिल्मों की मांग बढ़ गई। अत: मैंने सोचा कि अब मुझे पच्चीस-तीस हजार रूपया लगाकर विद्युत-चलित मशीनरी खरीद लेनी चाहिए। अभी तक हाथ से खींचीं जाने वाली मशीनरी से काम चलाया जा रहा था जो कि अत्यन्त सुस्त थी। मैं एक छोटा-सा स्टूडियो भी बनाकर इस उद्योग को, कम से कम भारतवर्ष में, लाभदायक बनाया जा सकता है,क्योंकि काफी लोग अब प्रिशक्षित हो गए हैं। अत: मैं फिर विदेश गया ताकि नए उपकरण देखकर खरीद लूं, मेरे साथ फिल्में `मोहिनी भस्मासुर` और `सावित्री सत्यवान` आदि भी थी, और मैं इनके ज़रिए विदेश में अपनी भावी सफलता को परखना चाहता था। यह मेरी तीसरी विदेश यात्रा थी।
इस प्रकार मैं उस उद्यम को दो वर्ष तक चलाता रहा, और मैंने फिल्म निर्माण की विभिन्न शाखाओं में लोगों को इतना बढ़िया प्रशिक्षित कर दिया कि उनके काम को देख इंग्लैण्ड और अमरीका में उन्हें जगह मिल सकती थी। ये फिल्में जिनकी कि सिर्फ एक-एक प्रति किसी को लखपति बना सकती थी, वो केवल आठ महीनों में तैयार थीं, और वे भी महज हाथ से चलने वाली मशीनों के द्वारा, और बिन किसी उपयुक्त स्टूडियो के सहारे, और उन कारीगरों के द्वारा जो कि बिल्कुल नए और अनुभवहीन थे कि जिन्हें सिनेमा शब्द के हिज्जे लिखना भी नहीं आता था। यह बिल्कुल आश्चर्यजनक था कि इन तकनीशयनों के द्वारा निर्मित फिल्में विदेशों में संसाधनयुक्त स्टूडियो में कार्यरत निपुण विशेषज्ञों द्वारा सराही गई। अपने स्टूडियो में नियुक्त तकनीशयनों के लिए विदेशी फिल्म पत्रिका में इस टिप्पणी को देखकर कौन खुश नहीं होगा कि ----- "तकनीकी दृष्टि से ये फिल्में आश्चर्यजनक रूप से बेहतरीन हैं।"
एक नज़र:
पूरा नाम : धुण्डीराज गोविन्द फालके
जन्मदिवस : 30 अप्रैल, 1870
जन्म : नासिक से तीस किलोमीटर दूर त्रयम्बक नामक स्थान पर
प्रथम फिल्म प्रदर्शन : 21 अप्रैल, 1913 मुम्बई के आलंपिया सिनेमा में
नियमित प्रदर्शन : 3 मई, 1913 से
तत्कालीन रिकार्ड : कोरोनेशन थिएटर में लगातार तेईस दिनों तक प्रदर्शन।
1903 : भारत सरकार के पुरातत्व विभाग में ड्राफ्ट्समैन और फोटोग्राफर का पद ग्रहण।
1909 : अपना अलग छापखाना स्थापित करना।
1917 : फालके फिल्म्स का समावेश हिन्दुस्तान फिल्म कंपनी में
चार फिल्मों सहित हिन्दुस्तान फिल्म कंपनी ने 97 कथाचित्र और 26 लघुचित्र (सेंसर की रिपोर्ट के अनुसार)
अन्तिम मूकचित्र : सेतुबंध
1934 : कोल्हापुर सिनेटोन के लिए `गंगावतरण` का निर्माण
भविष्यवाणी : गंगावतरण मेरा अन्तिम चित्र हो सकता है...
और भविष्यवाणी सच : 16 फरवरी, 1944.

(नवयुग के फरवरी, 1918 के अंक में फालके ने सिनेमा के कार्य व्यापार को समझाने के लिए लेखमाला लिखी थी,जिसमें उन्होंने सिनेमा की तरफ अपने आकर्षण और बाद में पेश आने वाली परिस्थितियों का जिक्र किया है)


Comments

  1. कुछ लोगों का मानना है की ‘राजा हरिश्चन्द्र’ को पहली फीचर फिल्म का दर्ज़ा नहीं दिया जाना चाहिए. उनका तर्क है की ‘राजा हरिश्चंद्र’ से पहले १९१२ में आर. सी. तोरने और एन. ए. चित्रे महाराष्ट्र के संत पुंडलिक पर फिल्म बना चुके थे. ‘पुंडलिक’ १८ मई, १९१२ को कोरोनेशन में ही प्रदर्शित की गयी थी. मगर अन्याय कारणों से ‘राजा हरिश्चंद्र’ को ही पहली कथा फिल्म माना गया और इसके निर्माता धुण्डीराज गोविन्द फाल्के को भारतीय सिनेमा के पितामह का दर्जा दिया गया. फाल्के के जीवन और कृतित्व के बारे में बाद में जो साक्ष्य मिले उनसे यह स्पष्ट हो गया कि फाल्के केवल पथ-प्रदर्शक फिल्म निर्माता ही नहीं थे बल्कि वे भारतीय सिनेमा की अनेक शाखाओं के भी पथ प्रदर्शक थे.

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  2. इतिहास कितना महत्वपूर्ण होता है न...और उसे सामने लाना कितना जरूरी...है ना!!!

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  3. सही माल खोज कर लाते हो बंधु..अच्छी जानकारी है..वैसे ’पुंडलिक’ के बारे मे मैने भी कहीं पढ़ा था..यह तथ्य है कि यह फ़िल्म ’राजा हरिश्चंद्र’ से एक साल पहले रिलीज हुई थी..मगर संभवतः फ़िल्म की प्रोसेसिंग विदेश मे होने के कारण इसे पूर्ण भारतीय फ़िल्म नही माना गया..
    भारतीय सिनेमा के अद्भुद्य के एक अन्य महत्वपूर्ण मगर अत्यंत उपेक्षित शख्सियत थे हीरालाल सेन जि्न्होने राजा हरिश्चंद्र से १२-१४ साल पहले से ही लघु वृत्तात्मक फ़िल्में बनाना शुरू किया था..उनकी ज्यादातर फ़िल्मे थियटर आधारित होती थीं...मगर बाद मे फ़ीचर फ़िल्मों की क्रांति और फ़िल्म-बिजनेस की कमान विभिन्न स्टूडियोज्‌ के हाथ मे चले जाने के कारण वो असफ़लता और गरीबी के अंधेरे मे खोते गयें..अंत मे स्टूडियो की आग उनकी सारी फ़िल्मों को भी लील गयी...
    जारी रहिये!

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  4. सबसे पहले तो तुम्हारा शुक्रिया दोस्त! इस लेख को यहाँ उपलब्ध करवाने के लिए.. सिनेमा पर हिंदी में बहुत कम लेख नेट पर मिलते है.. जिस तरह का ज्ञान अंग्रेजी में बांटा जाता है वो हिंदी में नहीं मिलता... फाल्के साहब का एक सपना कितनो का जूनून बनेगा ये शायद उस वक़्त कोई अनुमान नहीं लगा सकता था.. खुद फाल्के साहब भी नहीं.. !

    काफी कुछ तो इस लेख में है ही.. और अपूर्व ने भी हमेशा की तरह अपना एड ऑन दिया है.. सोचालय में इस तरह की पोस्ट को शुमार करके तुम इसे और ऊँचाइयों पर ले जा रहे हो.. आल द बेस्ट

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  5. सही है.. हालांकि ब्‍लॉग के मास्‍ट का शीर्षक बेमतलब ही सब हल्‍का बना सकता है, उस 'सोचालय' की सोचो..

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  6. ये सब तो फ़िर से बांचना पड़ेगा।

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