गांव में ऐसे ही किसी उचाट और अलसाई सी दोपहर में गोरखधाम से से कुछ सारंगी वाले आये थे और शाम तक सारंगी द्वार पर बजायी थी. उन दिनों मैं अपनी सारी जरुरी चीजें झोपडी जो कि टाट कि बनी थी, उसमें खोंस कर रखता... उसमें मैंने कई भूले बिसरे धुन भी रख छोड़े थे... जब से घर छोड़ कर निकला तब से जब भी घर को याद किया है मैंने यही धुन अवचेतन में हावी हो गया है. त्योहारों के दौरान मैंने अपने गांव की कई माओं को सारंगी की इसी धुन पर रोते देखा है जिनका बेटा या तो इश्क में गिरफ्तार होकर घर से भागा या नौकरी करने घर से निकला या आत्महत्या की. सारंगी अक्सरहां ऐसे दर्द छेड देती है.
प्लास्टर झडे दीवारों कि छांह में बजाये गए बंजारों कि सारंगी आज भी रात के अंतिम पहर मेरे कानों में बजती है.
आज भी मैं अपने काम से निकल रहा था और पाँव यूँ ठिठके की अपनी पराधीनता मैंने स्वीकार कर ली... अपने मन से कहीं बंधने में कितना आराम है ना !
जरा आप भी सुनिए, शायद कहीं कोई सिर्फ आपकी आत्मा से प्यार करने वाला सूरत आपकी जेहन में उग आये.
सारंगी की धुन अपने आस पास कई बार सुनी है.. हमारे राजस्थानी संगीत की एक खास पहचान है..
ReplyDeleteसच बात ये है कि सारंगी की आवाज, पता नहीं क्यूँ, मुझे बचपन से हीं पसंद है...
ReplyDeleteमैंने एक बार, वो जो घर-घर घूम कर सारंगी बजाते हैं और अपना जीवन यापन करते हैं, उनसे सारंगी सीखने के लिए प्रार्थना की थी पर वे नहीं माने थे...
इस संगीत को उपलब्ध कराने के लिए शुक्रिया. इसे सुनकर मेरे माथे की शिकन भी समतल हो गयी. वाह!
राम नारायण जी का सारंगी पर राग मालकौंस कभी मिले तो रात दस बजे के बाद सुनियेगा, फिर बताइयेगा.