सन 1917 तक सेंसरशिप जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी. कौन सी फिल्म प्रदर्शनयोग्य है, कौन सी नहीं, यह तय करने का अधिकार पुलिस अफसरों को होता था. आम तौर पर वे फ़िल्में आसानी से प्रदर्शन कि इजाजत दे देते थे, जब तक कि राजनीतिक लिहाज़ से कोई आपत्तिजनक बात किसी फिल्म में न हो. होलीवुड के असर के कारण उन्ही दिनों मूक फिल्मों के दौड में भी चुंबन, आलिंगन और प्रणय के दृश्य फिल्मों में रखे जाते थे. उस ज़माने की एक फिल्म में ललिता पवार को बेझिझक नायक के होंठो को चूमते देखा जा सकता है. न तो दर्शकों को और ना ही नेताओं को ऐसे दृश्यों में नैतिक दृष्टि से कुछ आपत्तिजनक लगता था. फिल्मों को सिर्फ मनोरंजन का माध्यम समझते हुए ऐसे दृश्यों को सहजता से ही लिया जाता था.
मगर 1917 में ब्रिटिश हुकूमत ने ब्रिटेन का सेंसरशिप अधिनियम हमारे यहाँ भी लागू कर दिया. इस अधिनियम को लागू करने के पीछे मुख्य मकसद भारत के अर्धशिक्षित लोगों के सामने पश्चिमी सभ्यता के गलत तस्वीर पेश करने वाली अमेरिकी फिल्मों पर प्रतिबन्ध लगाना था. भारत के फिल्मकारों ने सेंसरशिप लागू करने का कड़ा विरोध भी किया, क्योंकि सेंसरशिप में भी भेदभाव बरता जाता था. एक क्षेत्र में तो फिल्मों को प्रदर्शन की इज़ाज़त दे दी जाती और अन्यत्र या तो उसे प्रदर्शन की इज़ाज़त नहीं दी जाती अथवा व्यापक काट-छांट के बाद प्रदर्शन कि अनुमति दी जाती. नियम तो यह था कि फिल्मों में नग्नता, बलात्कार, हिंसा और वेश्यावृत्ति के दृश्य नहीं दिखाए जानेंगे मगर राजनीतिक लिहाज़ से फिल्मों में कांट-छांट कि जाती थी. ब्रिटिश सरकार कि किन्हीं नीतियों की आलोचना करने वाली फिल्मों को आसानी से प्रदर्शन कि इजाज़त नहीं दी जाती थी. किसी फिल्म का शीर्षक भी अगर ‘महात्मा’ हो तो इसे प्रदर्शन कि अनुमति नहीं दी जाती थी क्योंकि इसे गाँधी जी के समर्थन का षड्यन्त्र समझा जाता. कहने का आशय यह कि भारतीय सिनेमा पिछले अस्सी वर्षों से सेंसर के कोप का शिकार बनी, उनमें कोहिनूर, फिल्म कम्पनी की ‘भक्त विदुर’, भालजी और बाबुराव पेंढारकर की ‘वन्देमातरम आश्रम’ और प्रभात फिल्म कम्पनी की ‘स्वराज्य तोरण’ प्रमुख है.
हिंदी सिनेमा के आगे नहीं बढ़ पाने की एक वजह सेंसर बोर्ड भी है.. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देने वाले देश में फिल्मो पर बड़ी निर्ममता से कैंची चला दी जाती है.. गिरीश कर्नाड की फिल्म 'शोभा यात्रा' भी इसी का शिकार हुई.,. अनुराग कश्यप अपनी शुरुआती दो फिल्मो ब्लैक फ्राईडे और पांच के सेंसर में अटकने से अवसाद में चले गए थे.. दोनों फिल्मो को देखकर समझ नहीं आया.. सेंसर ने क्यों बैन की.. खैर! सेंसर पर तुम्हारा ये लेख बढ़िया रहा..
ReplyDeleteसेंसर शिप कि हिस्ट्री लगे रहिये सर.....बहतरीन प्रस्तुती.......
ReplyDeletedev d, omkara, jaisi filmen ye darshati hain ki ab censorship kitni kamzor ho chuki hai...
ReplyDeletejaankari k liye shukriya...
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बहुत अच्छी जानकारी.. सेन्स्र बोर्ड का ये भी एक पहलू है.. अभी कुछ दिन पहले गोडसे पर बनायी हुयी एक फ़िल्म भी बैन के गयी थी.. इन्हे लोगो के सामने आने देना चाहिये..
ReplyDeleteबहुत बढिया लेख!!
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteअच्छा आलेख ! सेंसरशिप की अच्छाईयाँ भी बताइये अगले आलेख में !
ReplyDeleteबढ़िया आलेख लगा!!
ReplyDeleteअच्छी जानकारी के लिए आपका आभार।
ReplyDeleteभई सेंसर की हालत धोबी के कुत्ते सी हो गयी है..कुछ एडिट करने को कह दो तो गालियाँ और कुछ एडिट करने से चूक गये तो भी गालियाँ..बड़ा विकट विषय है भई..
ReplyDeleteमुझे लगता है सेंसर शिप का काम ही गलत हो रहा है. फिल्मों की अलग केटेगरी बना दी जाए, की ये परिवार के साथ देखने लायक है, ये १८/१६ साल से ऊपर के लोगों के लिए है...बस. जरूरी क्या है की एक फिल्म सभी लोग देखें. इन fact हमको तो लगता है की फिल्म के दो प्रिंट्स रिलीज होने चाहिए, एक कट के साथ और एक अनकट वर्शन. जिसको जो हजम हो देख ले.
ReplyDeleteफिल्मो के बारे में हिंदी में कम जानकारी उपलब्ध है, इस दिशा में तुम अच्छा काम कर रहे हो...ऐसा डाटा नेट पर मिलना जरूरी है ताकि भविष्य में भी किसी को जरूरत पड़े तो ढूंढ सके.
वाह! क्या सीन है सेंसर की बातों का!
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