दे भिखारी !
बच्चे ने जब बस में बैठे लोगों को इस तरह जोर से संबोधित किया तो लगा पूरी दुनिया को कह रहा हो. यह वही बच्चे हैं जिनके लिए ट्रेफिक जाम होना हमारे उलट ज्यादा फायदेमंद होता है..
दुनिया के खेल भी निराले हैं... जब हम बारिश का आनंद लेते हैं तो उसी दिन शाम को मोहल्ले में हाट नहीं लग पाता और कुछ बेहद जरूरतमंदों की कुछ भी कमाई नहीं हो पाती तुर्रा यह कि अगले दिन कई अखबारों में यह पढ़ने को मिलता है कि बारिश के कारण फलां फसल में कीड़े लगने के कारण वे खराब हो गए.
तो बच्चे ने दुनिया को दे भिखारी का नारा दिया था... जिन्हें कोई और नारा देना चाहिए था... यह हिंदुस्तान के मुस्तकबिल है... मेरी जबान भी कितनी गन्दी है एकबारगी तो ख्याल आया “हुजुर का मुस्तकबिल बुलंद हो”.
संसद भवन के गलियारों से कितना उलट है प्रगति मैदान के सबवे में खड़े एक साथ तीन को इशारे से निपटाते किन्नड... यहीं बन रहा है आजकल कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए एक लोहे का पुल... समय भी अब कम है ना... शीला सरकार को अपनी लाज जो बचानी है...
और उसी के नीचे नेशनल स्टेडियम के गेट पर लाल बत्ती पर भारत की तरक्की को चुनौती दे रहे हैं यह बच्चे सिर्फ दो शब्दों “दे भिखारी” से
बाबू गजरा ले लो!
एक करुण प्रार्थना... एक लड़की मेरे पास आकर कहती है.
आँखों में बहुत बेबसी रोक रखी है उसने, तो क्या अब वो गिर जायेगी ? नहीं तो, जिसने पीठ पर अपना भाई भी बाँध हो, उसका ‘बाँध’ इतना कमजोर नहीं होगा!!!
बस रुकी है और एक बच्चा नकली दाढ़ी, मूंछे लगाये लगातार करतब दिखा रहा है, इन्हें नट कहते हैं. दोपहर के डेढ़ बजे ऐसा वे भूखे रह कर कर पाते हैं मेरा एक दोस्त बताता है.
शीशे के किनारे बैठे सभी बुतों ने करतब देखा है पर पैसे नहीं निकाले.... खीझ से उसी बच्चे ने बुतों को भिखारी नाम से पुकारा था.
सहसा, जोर का ठहाका !!!!
निष्क्रियता देख पायदान पर खड़े कुछ आवारे, जो मुफ्त में घर लौट रहे है, एक ने २ का सिक्का फैंकते हुए कहा
“ले बेटा इसका सिगरेट पी लेना”
गजरे वाली लड़की नीचे उतर कर भी मुझे लगातार देख रही है... मैं बचने की कोशिश कर रहा हूँ पर लगता है यह निस्तेज कातर नज़र मेरी पीठ से चिपक गयी है.
बस चल पड़ती है... मुझे अशोक चक्रधर याद आते हैं...
“मसखड़े के साथ मसखड़ी हो गयी,
जाओ बाबू जाओ, बत्ती हरी हो गयी”
एक नज़र इधर भी…
Yah to samaj ki vidambana hai..kahin qahat hai to kahin sailab hai..
ReplyDeletebahut sundar chitran kiya kuch vivashtaon aur samajik udaseenta ka...chakradhar ji ki kavita man moh gayi...
ReplyDeleteकहानी लिखने का हुनर बहुत अच्छे से आ गया है आपको...
ReplyDeleteजब आदमी को राह चलते कहानी दिखाई पड़ने लगती है तो वो सही में कहानीकार हो जाता है...
बधाई.
वो अनुराग जी लिखे हैं 'मौजजे', इसका मतलब क्या होता है..उनसे पूछना भूल गया था भाई..
अशोक चक्रधर जी का ज़वाब नहीं।
ReplyDeleteलेकिन हर भिखारी -भिखारी नहीं होता ।
"आँखों में बहुत बेबसी रोक रखी है उसने, तो क्या अब वो गिर जायेगी ? नहीं तो, जिसने पीठ पर अपना भाई भी बाँध हो, उसका ‘बाँध’ इतना कमजोर नहीं होगा!!!"
ReplyDeleteसही कहते हो...
"गजरे वाली लड़की नीचे उतर कर भी मुझे लगातार देख रही है... मैं बचने की कोशिश कर रहा हूँ पर लगता है यह निस्तेज कातर नज़र मेरी पीठ से चिपक गयी है."
ये मेरे साथ अक्सर होता है.. जैसे नजरे चिपक जाती है..
दुनिया के खेल भी निराले हैं.
ReplyDeleteअपनी नाफ़रमानियों के अक्स भी नज़र आते हैं इसमे जिसे हम खेले-निराले कह कर कश मे उड़ा देते हैं..जब अप्रैल के तपते आस्माँ की जानिब सर उठा कर गरमी की राहते के तौर पर बारिश की दुआएँ करता था..तभी याद आता था कि कितने गरीब किसानों का पका हुआ गेहूँ खेतों मे खड़ा होगा..थ्रेशर्स के पास पड़ा होगा..मेरी बारिश की दुआ मे बह जाने से सहमा हुआ..निगाहेँ खुद-ब-खुद शर्म से जमीं मे गड़ जाती थीं..
और नट के करतब दिखाने वाले बच्चे को भिखारी समझना जमता नही..भिखारी तो हम ही हुए ना..कला के भूखे पेट को चंद तालियों से टरकाते हुए..’दे भिखारी’
और हाँ..चित्र अच्छा लगाये हो..’महाजनो येन गते स पंथा’ टाइप..और मध्यमा्र्गी!
ReplyDeleteगजरे वाली लड़की नीचे उतर कर भी मुझे लगातार देख रही है... मैं बचने की कोशिश कर रहा हूँ पर लगता है यह निस्तेज कातर नज़र मेरी पीठ से चिपक गयी है.
ReplyDelete@ ओम आर्य
ReplyDeleteमोजजे- जो इंसानी ताकत से बाहर हों (डिक्शनरी यही कहता है )
हम इसे मिरेकल भी कह सकते हैं... वाक्यों के साथ इसके कई अर्थ और भी बनेंगे...
इस सिलसिले में एक फिल्म याद आती है, ट्रैफिक सिग्नल. उसमें निर्देशक ने बड़े करीब से आइना दिखाया है इन लोगों की जिंदगी का.
ReplyDeleteआज तुम भी एक खाका खींचते हो...और बिलकुल सही कहा है 'दे भिखारी' आखिर उसको पैसे हम अपने मन की तसल्ली और शांति के लिए देते हैं. एक कचोट उठती है कि हम कुछ नहीं कर सकते, कई बार तो शर्म आती है. आज के ज़माने में लगता है कि एक दो रुपये से किसी का क्या होगा...कभी कभी लगता है कि संवेदनशील होना बहुत मुश्किल है...खुश रहने के लिए बड़ी मेहनत करनी होती है.
mac D से आते हुए कई बार अगर आइसक्रीम रहती है हाथ में तो ऐसे ही सिग्नल पर बच्चे मांग लेते हैं, दे भी देती हूँ...पर फिर कई बार आइसक्रीम खाने में ही अजीब सा लगता रहता है.
ट्रैफिक सिग्नल बहुत सारी परते खोलती है.. फिल्म का गाना भी है.. यही ज़िन्दगी है तो क्या ज़िन्दगी है..
ReplyDeleteकुछ समय पहले मैंने भी Tरेड लाईट पर कुछ लिखा था.. पर वो इससे अलग था.. तुमने फिर इस बार चमत्कृत किया है..
इतना सूक्ष्म और हृदयस्पर्षी अवलोकन! बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteघट गया सब कुछ वैसे ही.. हाँ पता नहीं जब भी कुछ करना,सोचना चाहूँ तो लगता है आख़िरकार लेखनी के सिवा क्या है सब....आमिखाई की भाषा में "वे उस दर्द का भी दिखावा कर लेते हैं जो उन्हें सच मैं महसूस होता है"..... कई बार एक बहती नदी को देखकर महसूस किया कि मैं बहुत संतुष्ट हो रहा हूँ मगर इसे मुसलसल वैसा ही बहा बहा सा बनाने के तरीकों को इजाद करता हूँ नदी तो रहती है बस बहना बंद हो जाता है.... लगता है यह संवेदनशीलता यह अनुभव यह दृश्य कहने, या इनके चित्रों को क़ैद करने में ये और भयावह हो जाते हैं... जिसको हम जितनी भावुकता से रखते हैं,,बहती हुई नदी की तरह और पढने वालों के लिए नदी नहीं बस एक नदी का चित्र हो जाता है... इसी लिए कहा घट गया सब कुछ वैसे ही.... भयावह...!
ReplyDeletewww.taaham.blogspot.com
चक्रधर की कविता भी अच्छी लगी !
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