दोनों जोड़ी आँखें देहरी पर कब से टिके हैं... ऐसे समझो कि मैंने अपनी आँखें वही रख दी हैं और अब मैं अंधी हूँ... दरवाजे पर मनी प्लांट लगा रखा है ताकि वो भी तुम्हारे आते ही पैरों से लिपट जाएँ... मैं कसम से बिलावजह बच्चों को डांटना छोड़ दूंगी ...
लगातार पछिया चलने जो पेड़ पूरब के ओर झुक गए हैं... पानी देने पर भी गमले की उपरी मिटटी पपरी बन उखड गयी है. तुम्हारे जाने के बाद से द्वार को गोबर से नहीं लीपा है.
आ जाओ कि तुम्हारे आँखों के डोरे की गहराई नापे बहुत दिन हो गए.. कम से कम यही देख लूँ कि उन समंदर में अपने लिए कितने ज्वार-भाटा बचे हैं... आ जाओ कि तुम्हारे आँखों में खुद को ब्लिंक होना देखे बहुत दिन हो गए हैं...
इन दिनों तो चाँद के पास भी एक तारा दिखाई देता है.. दीवार पर बैठकर पाँव हिलाते तुम्हें सोचते हुए जाने कितने सूरज को डूबते देखा.... कि सूर्यास्त तो बहुत देखा सूर्योदय देख लूँ ..
आ जाओ कि अब साँसें घनीभूत हो चुकी हैं और हवा का कितना भी तेज झोंका इन बादलों को उड़ा नहीं पायेगा; यह आज बरसना चाहती हैं...
सिर में तुम्हारे यादों की धूल जमने से मेरे बाल बरगद की लटें हो गयी हैं.. और बदन पर तुम्हारा कुंवारा स्पर्श रखा है...आ जाओ के अब मेरी इंतज़ार की मोमबत्ती फड़फड़ाने लगी है... आ जाओ कि लोगों ने अपनी विरह तो देख ली अब मिलन भी देख ले...
आ जाओ कि मुझे चूल्हे में हाथ जलने का पता हो जाये... आ जाओ कि मेरी अनुभूतियाँ जिंदा हो जाये.. मुझे इस धुंधले पहाड़ों में किसी का अक्स ना नज़र आये... आ जाओ कि पलंग के नीचे फैंका रूठा वो पायल ना-ना करते हुए नाच उठे... आ जाओ कि मुझे उजाले से प्यार हो जाये... मैं सिगरेट को फूल लेंथ की सांस देकर जिलाने की कोशिश छोड़ दूँ...
आ जाओ, इस लाश में जान भर दो
...कम से कम मुझे अपमानित करने के लिए ही आ जाओ....
आ जाओ कि तुम्हारी माँ को मिरगी का दौरा आना बंद हो जाए.
*****
दोनों जोड़ी आँखें - माँ और नायिका
ReplyDeleteपर अबके वादा करो कि ऐसे न आओगे कि जैसे बहार आती है, जाने के लिए, ऐसे न आओगे जैसे लहरें आती हैं लौटने और मेरा कुछ अपने साथ बहा ले जाने के लिए, ऐसे न आओगे जैसे सूरज हर रोज उगा जाता है शाम साथ छोड़ जाने के लिए.
ReplyDeleteअबके वादा करो कि ऐसे आओगे जैसे शादी के फेरे में पढ़े मन्त्र से बंधती है सांस, जैसे सातवें फेरे से बंधता है कई जन्मों का साथ, जैसे एक नज़र में बनता है रिश्ता प्रेम का.
वादा करो अबकी आओगे तो फिर कभी नहीं जाओगे. वादा?
gazab ki bhavavyakti.
ReplyDeleteBahut sundar...aur anoothi rachana!
ReplyDeleteमैं सिगरेट को फूल लेंथ की सांस देकर जिलाने की कोशिश छोड़ दूँ...
ReplyDeleteआ जाओ कि अब साँसें घनीभूत हो चुकी हैं और हवा का कितना भी तेज झोंका इन बादलों को उड़ा नहीं पायेगा; यह आज बरसना चाहती हैं...
सिर में तुम्हारे यादों की धूल जमने से मेरे बाल बरगद की लटें हो गयी हैं..
गजब करते हो यार...जान लोगे क्या
विरह के बादल यहाँ भी? फ्लो और इंटेंसिटी कविता की तरह घुमड़ते हुए...
ReplyDeletewaah geet to lajawaab hai hi...apka lekh to virah ki nadi hi baha gaya....
ReplyDeleteदेख सकता हू कि 'headache', 'nostalgia',' psychology' जैसे टैग्स बडे होते जा रहे है... जल्द ही दानव बन तुम्हे खाने लगेगे.. :)
ReplyDeleteअभी तुम्हारा ’अबाउट मी’ देखा:-
"वाजिद अली शाह का ज़माना याद है ? या फिर वो दौर जब लखनऊ में आलिशान बंगले में झूमर लगे होते थे, झूमर ने नीचे, लाल कालीन पर नाचा करती थी दिलफरेब बाई, कोहनी को मसलन पर टिका कर मुजरा देखना चाहता हूँ, मैं उन पर पैसे लुटाना चाहता हूँ, वक़्त को गुज़रते देखना चाहता हूँ... मुंह में पान की पीक भरे, महीन सुपारी को खोज-खोज कर चबाते हुए जो हुआ अच्छा नहीं हुआ सोचना चाहता हूँ... "
वाह, वाह रे मेरे नवाब ;)
"यह बेकार बात है की जिंदगी काम करने के लिए बना "
- २००% सहमत..
जबसे तुम गये हो तबसे तकिया लगाना छोड दिया है... मुआ, न जाने कब बाहो मे आ जाता था..
ReplyDeleteसेल मे पडे तुम्हारे पुराने एसएमएस अब लोरियो का काम करते है.. घन्टो उन्हे पढती रहती हू जैसे तुम्हारी ही कोई क्रियेशन हो...
अब भी वो मेज वैसी है बेतरतीब पडी है.. बिखरी किताबे, तुम्हारी डायरिया और वो पेपरवेट से दबे हुये वो पन्ने.. अभी भी तुम्हारा कहा मानती हू, उन्हे छूती भी नही... न्यूजपेपर भी अब उससे सटी कुर्सी पर अन्टते नही है.. तुम आओ तो फ़ेकने वाले पेपर अलग कर दो... तुम आओ तो मै फ़िर से तुम्हे वैसे ही देखती रहू जैसे ऎसी कोई चीज कभी भी न देखी हो... तुम चाहो तो वैसे ही मुझे मत देखना...
शब्दों की खूबसूरती में विरह वेदना खो गयी लगती है !
ReplyDeleteआरजू-ए-इंतजार की जिस शिद्दत का अक्स आपकी पोस्ट मे झिलमिलाता है..आगे पूजा जी और पंकज साहब उसको और मुकम्मल पैकर देते हैं..येह आग जो एक बार भड़की न जाने किस सावन मे जा कर थमें..और तब तक न जाने कितने उम्मीदों के पैरहन राख हो जायें..
ReplyDeleteऔर खासकर यह
आ जाओ कि तुम्हारे आँखों में खुद को ब्लिंक होना देखे बहुत दिन हो गए हैं...
यानि कि ’उसकी’ आँखों मे भी अपना ही अक्स देखने की तमन्ना..बोले तो फ़कत नार्सिसिज्म..(वैसे भी आँखों हों तो आइने का क्या काम)!..और ब्लिंकिंग का रेट-पर-सेकेंड क्या होगा? ;-)
क्या करूं..फ़राज सा’ब को ही चेप दूँ क्या..
रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
कुछ तो मेरे पिन्दार-ए-मोहब्बतका भरम रख
तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ
पहले से मरासिम न सही, फिर भी कभी तो
रस्मों-रहे दुनिया ही निभाने के लिए आ
किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से ख़फ़ा है, तो ज़माने के लिए आ
इक उम्र से हूँ लज़्ज़त-ए-गिरिया से भी महरूम
ऐ राहत-ए-जाँ मुझको रुलाने के लिए आ
अब तक दिल-ए-ख़ुशफ़हम को तुझ से हैं उम्मीदें
ये आखिरी शमएँ भी बुझाने के लिए आ
औ हाँ यह भी खुलासा किया जाय के पहले यू-ट्यूब से गाना सलेक्ट किया जाता है और उसके मुताबिक पोस्ट का मजमून तैयार होता है..या पोस्ट लिखने के बाद उसके बिछड़े हुए गाने की तलाश यू-ट्यूब के कुम्भ मे की जाती है?
ReplyDelete(जस्ट किडिंग)
कभी कभी औसत भी लिखा जाना चाहिए.. सही किया है
ReplyDelete@ अपूर्व,
ReplyDeleteयह तो वही बात हो गयी... पहले धुन तैयार किया जाता है या के गीत ?
@ पहले धुन तैयार किया जाता है या के गीत ?
ReplyDelete-------- पहले अंडा आया की मुर्गी ..... :)
--------- अच्छी टीपें आपको मिलती हैं !
आप बानसीब हैं और हम बदनसीब !
मुझे तो गुलाबी टीपों का कभी लुत्फ़ ही नहीं मिला !
ईर्ष्या है आपसे !
इस्मत आपा की नायिका " कुदाशिया खाला " जेहन मे आती हैँ.
ReplyDelete" सौतन के लम्बे लम्बे बाल उलझ मत रहना राजा जी"
सत्य