मैं जब शराब पीने वाला होता हूँ तो धरती रुकी हुई सी होती है कुछ कहने को बेताब पर कहती कुछ नहीं. या कहना नहीं चाहती. एक उमस जैसा माहौल होता है गोया जब तक बरसे ना, गर्मी बनी रहती है. यह बिलकुल वैसा ही होता है जैसा जब तक कोई कविता मन में घुमड़ते हुए कागज़ पर ना आ जाये. एक बार कागज़ पर आ गई, अपना बोझ खतम. घंटा टेंशन, और वैसे भी टेंशन लेने का नहीं देने का!!! कम से कम कुछ घंटे के लिए तो आदमी हल्का हो जाता है.
घूमती है धरती जब पीता हूँ शराब, डोलती है धरती, सांस लेने लगती है जब पी कर चलता है शराबी.
शराब की तलब होना सेक्स की इक्छा रखने जैसा कुछ नहीं है. हाँ इसकी शुरूआती तलब आप फोरप्ले से जोड़ सकते हैं. यह कहना मुठमर्दी ही होगा कि मैं जब फ्रिज का दरवाजा खोलता हूँ तो बोतलों के गर्दन पर ठहरी ठंडी बूंदें देखकर मेरा दिल दारु पीने का नहीं करता बल्कि तब तो लगता है कोई नयी दुल्हन अलसुबह सबसे नज़रें बचाते नहाकर बाथरूम से नंगे पैर निकल रही है जिसकी आधी गीली बदन पर ठहरी बूंदें अमृत के माफिक लगती है.
लोग गलत कहते है कि शराब आदमी को बेसुध करती है मुझे तो लगता है की यह ज्यादा सोचने को देती है अलबत्ता यह विवाद का विषय है कि आपके सोचने का सलेबस क्या है ...
अच्छा बताइए क्या रैक पर रखे बोतलों की छाया आपको किसी दानवाकार जैसी लगती है? मज़ा तो तब है जब आप पैग बना कर इसे सामने रख दें और पीने के बारे में सोचें... ये बिलकुल किसी जवान युवती को सामने सोफे पर बिठाकर थोड़ी दूर से अंतरंग बात करने जैसा है. तो ख्याल और शराब आपस में मिलकर जो एक माहौल तैयार करते हैं वही तो सुरूर है .. इसके बावजूद मुझे लगता है की शराब और शराबी विविधताओं से भरे दो अलग-अलग कौम हैं पर इनका आपस में मिलना एक खालिस मिलन होता है.
अब आपके मन में आक्षेप जैसी बातें आ रही होंगी की मैं शराब पीने को बढ़ावा दे रहा हूँ, इसके पीने का प्रचारक हूँ, या मुझे इसके विज्ञापन का ब्रांड अम्ब्रेस्डर बनाया गया है जिसकी मैं दलाली कर रहा हूँ, बच्चों को बिगाड़ रहा हूँ, संस्कृति को ठेस पहुंचा रहा हूँ, धर्म, संस्कार, जिम्मेदारी फलंना, चिलाना आदि-आदि तो साहिब ऐसा कुछ नहीं है, मैं बस शराब के मुत्तालिक अपने जेहन में उठती बातों को बस लिख रहा हूँ.
हाँ तो क्या मुझे याद दिलाएंगे की मैं कहाँ था... अच्छा !
अब देखिये सबकी अपने वजहें होती है पीने की. रवि बाबू क्यों पीते थे यह नहीं पता चला आज तक, उनकर को बाप भी बी.डी.ओ. हैं, प्यार तो खैर रवि को क्यों कर होगा ! शायद हो भी सकता है पर वो उसके गम में तो नहीं पीएगा, अरे बचपन से जानता हूँ उसको मैं. वो चचा ग़ालिब के भक्त थे. जुगाड हुआ नहीं के तड से शेर दागते थे “गर वुजू से ही मिल जाए शराब तो कौन सजदा करता है”
हाँ तारा बाबू के अपने घर की कुछ पिराबलम थी वो जगजीत बाबू का गज़ल थोडा तोड़ कहते थे “तेरी आँखों में हमने क्या देखा, सौ बोतल से ज्यादा नशा देखा”. बड़े मीटर में गाते थे शाहबजादे.
बिक्की बाबू तो शर्तिया प्यार में पीते थे यह दीगर है की वो किसी को बताते नहीं थे की कौन छम्मक्छल्लो से उनका टांका भिड़ा हुआ है पर गाते तो शिव कुमार बटालवी हो जाते थे “मैंनू जब भी तुसी हूँ याद आये, दिन-दिहाड़े शराब लय बैठा”
वहीँ सुदीप जी सक्सेसफुल ना हो पाने के गम में पीते और पीते टेम सबको समझाते चलते थे कि “नशा शराब में होती तो नाचती बोतल”.
उनसब से मेरे बारे में पूछिएगा तो कहेंगे कि मेरे दिमाग में केमिकल लोचा हुआ है. और मैं अपने लिए एक किताब ही कोट कर दूँगा.
ऊँगली पर गिनता हूँ तो लगता है साला और कोई नहीं बचा चार ठो दोस्त और सब बेवड़ा ... जा ! च्च... च्च... एक्को गो संस्कारी नहीं... जय हो.
खैर मैं अपनी बात करूँ तो जब घने दोपहर में घर से बाहर होता हूँ तो शराब मुझे रोनाल्डो का हाफ पिच से सीधे गोल में दागा गया किक लगता है, गोरान ईवान सेविच का सर्विस जैसा लगता है.
देव बाबू (देवदास) इस मामले में बड़े लक्की थे... उनके साथ कोई ना कोई डोलता रहता था. खैर... अमीर आदमी थे इसलिए बड़े लक्की भी थे.
राजेश बाबू (राजेश खन्ना) कैसा जान घोल देते थे. उनका तो मुंहें था अजीब सा, सबको समेट लेते थे. रुलाने को जुटा लेते थे और हर बात के बात सिर झुलाकर कन्विंस करके यू-टर्न मार लेते थे, “पुष्पा ! आई हेट टियर्स रे” वो पीते हुए ही जंचते थे फिर काहे का “यह लाल रंग कब मुझे छोड़ेगी” !
... फिलहाल फ्रिज खाली है और और मेरे सामने परसों ठेके पर से उड़ाया हुआ बासी, महका हुआ ठर्रा है (आपके लिए भभका हुआ) और लोटे के सर्कल में पूरी धरती इसमें समायी हुई लग रही है. कुछ उजले कीड़े जैसा उड़ रहा है और मैं उस में झांक कर देखता हूँ को पूरे चेहरे की तस्वीर उभर आ रही है. तो शराब में चेहरा है, चेहरे पर शराब नहीं है. बस... बस अब मत कहलवाईये... साला बात है कि जुराब का धागा... पकड़ के खींचा तो उधड़ता ही चला गया.
कभी महबूब को सामने बैठाइए ..शराब से ज्यादा नशा मिलेगा
ReplyDeleteऔर hangover इतना उम्दा की पूछो मत
इस पोस्ट का सुरूर काफी देर तक रहेगा... फ्रिज की बोतले नयी दुल्हन... क्या बात कह दी लेखक..
ReplyDeleteक्या मतबल अब पीना ही पड़ेगा क्या?और सोनल जी आप तो बस.....
ReplyDeleteखतरनाक प्रवाह लिखने का और पढ़ली ही टिप्पणी भी खतरनाक!
कुंवर जी,
एक गंजेरी कि सूक्तियां हम भी लिख रहे हैं.. उसी प्रकाशक से छपवाने का सोचा है..
ReplyDeleteआज एक दफ़े फिर उस दरवाजे से लौट आया जहाँ जमाने(ब्लोगिंग में तीन साल ज़माना ही होता है डियर) भर पहले गया था.. यही इसी पोस्ट से गया..
जो सुरूर उधर मिला उसी के कुछ छींटे यहाँ भी गिरे हुए हैं..
Priyatam apne hi haathon se aaj pilaungi hala..
ReplyDeleteभई देव बाबू..हम को तो पढ़ कर ही..हिच्च..चढ़ गयी है..हिच्च..कुछ सोच रहे थे लिखने को हिच्च मगर क्या सोच रहे थे यह अब सोच रहे हैं..हिच्च..सिलेबस याद कर के आये तो कुछ लिख पायें..अभी तो की-बोर्ड ही कम्बखत नाच रहा है..हिच्च..या...या...हिच्च...
ReplyDeleteपीने वाला ही जानता है उस बोतल को.. अच्छा पीने के साथ साथ बोतलो को एक्स्प्लोर करता है.. कभी हम भी कार्ल्सबर्ग के साथ एक ठो पोस्ट ठेले थे.. बाहर बारिश हो रही थी और फ़्रिज मे कार्ल्सबर्ग.. इस पोस्ट को जब पढे थे, उसी की याद आयी थी.. और सूक्तियो के उस खजाने की खोज के लिये शुक्रिया.. तो तुम्हे ’कोलम्बस’ कहना शुरु कर दे.. :)
ReplyDeleteअन्ग्रेजी टूटी फ़ूटी ही आती है, थी और रहेगी... इसलिये भावनाओ को समझना बस ;)
एक रात की काफी है तोड़कर बिखेर देने को,
ReplyDeleteएक जाम ही है जो सब बांधे हुए है...
जो पीते तो जीते रहते
ReplyDeleteऐसा नसीब-ए-यार होता
ज़रा जाम छलक जो जाता
ग़म जिगर के पार होता
संजीदगी-ए-शराब अब
तू ही बयां कर 'निर्जन'
जो जीते जी मिल जाती
क्यों इंतकाल होता...