सुबह के साढ़े आठ बज रहे है. सुनहरी धूप खिली है. मध्धम हवा चल रही है, सड़के जैसे धुली हुई हैं. हर तरफ चहल-पहल है. लगता है कुछ होने वाला है जिसके लिए सब उत्साहित हैं. हमारे जैसे बच्चे तो रात भर सोये भी नही. यही लगता रहा अभी ज़रा एक देर में सुबह हो जायेगी पर कैसी होगी सुबह ! क्या शमशेर बहादुर के कविता जैसी “लाल खड़िया चाक मल दी हो किसी ने ” या फिर... नहीं उस वक्त मंटो के कहानी कतई याद नहीं आई कि “आज़ादी के बाद भी सब कुछ वैसे का वैसा था. पेड़ वहीँ खड़े थे, आदमी भी वही थे और हालत भी वही थे”... सच्ची, कतई ऐसा कुछ ख्याल नहीं था... कसम से.
मैं बड़ी हसरत से तकता हूँ तिरंगा, देखता हूँ आसमान, राष्ट्रगान जब आरोह-अवरोह में बज रहा होता है तो पुलकित होता हूँ, ठिठक जाता हूँ, मोहित होता हूँ, हर्षित होता हूँ और भाव-विहोर हो जाता हूँ. और जब बैंड “जन-गण मंगल दायक जय हे” की ऊँची छलांग लगाता है; तभी आकाश में तीन लड़ाकू विमान केसरिया, उजला और हरे रंगों का धुंआ छोड़ते हुए तिरंगे पर फूल बरसता हुआ गुज़रता है, तभी हर बच्चा अपने कोरे दिल पर पहली बार हिंदुस्तान लिखता है. यह उसका पहला प्यार होता है.
मैं बड़ी उत्सुकता से पूछता हूँ “पापा वो कौन थे”... मेरी आँखों के दिए लहलहा उठे हैं...
“पायलट” पिता बड़े हैं इसलिए जवाब छोटा है.
“मैं भी पायलट बनूँगा” .... मेरी आवाज़ में उत्साह ज्यादा है.
“जरुर बनो” ...
अचानक मेरी आँखें डबडबा जाती हैं. लगता है कुछ और भी शामिल गया है अब इनमें... शायद पिताजी ने अदृश्य पाइपलाइन के सहारे मेरी आँखों में वही सपना डाल दिया हो...
थोड़ी देर बाद तिरंगा खम्बे में उलझ जाता है. वो लहराना चाहता है पर कोई बंदिश है वहाँ. कोई सिरा उसे फहरने से रोक रहा है. मैं बड़ी देर से इसे देख रहा हूँ और चाहता हूँ कि तिरंगा फिर से लहरा उठे... मेरी इस अवस्था को पिता जी ताड़ लेते हैं. पिता की नज़र अपने बच्चे पर ही लगी रहती है.
“तिरंगे को एक सेल्यूट तो दो अपने आप फहराने लगेगा” उन दिनों पिताजी की बातों पर बड़ा विश्वास था. पत्थर की लकीर. मैं एक जोरदार सेल्यूट मारता हूँ, तिरंगा सौ गुने उर्जा से आनंदातिरेक हो कर लहरा उठता है. मैं चेहरे पर संतुष्टि भरी मुस्कान आती है. उनकी बातें कितनी सच्ची होती हैं.
मैं बड़ा होता हूँ.
एक बड़े वर्ग के लिए उन्ही दिनों धूमिल लिख रहे थे “क्या आज़ादी सिर्फ थके हुए तीन रंगों का नाम है जिसे एक पहिया खींचता है”.
"हम भारतीय आकाश के संरक्षक बोल रहे हैं". स्क्वाड्रन लीडर जब यह गर्जना करता है तो मैं पीछे भीड़ को देखता हूँ. दोपहर की चिलचिलाती धूप में भी सबके रोयें बबूल के काँटों में तब्दील हो गए. जाँघों की हड्डियां सख्त हो गयी और रीढ़ की हड्डी सीधी हो गयी. सिर्फ इतना ही नहीं हुआ अब तक जो वेतन, कैंट से सस्ते सामानों का लालच, विशेष सुविधाएँ, लोगों पर पड़ने वाला रूआब आदि का हिसाब-किताब लगा रहे उम्मीदवार एक पल के लिए यह सब भूल जाते हैं. गोया देशभक्ति ऐसी ही चीज़ होती है.
यह सच है कि मैं पायलट नहीं बन पाया और अब यह सपना मैंने अपने बेटे की आँखों में उसी अदृश्य पाइपलाइन से ट्रांसफर कर दिया है. सपने बचे हुए हैं अभी.
अभी वो तुतला कर बोलता है. मैं आजकल उसकी आवाज़ इस शे’र से साफ़ करा रहा हूँ –
“हर चीज़ कुर्बान है इश्क की खातिर, पर,
मादर-ए-वतन के लिए सौ इश्क भी कुर्बान है”
और देखता हूँ कि इससे उसकी जबान वैसे ही साफ़ होती है जैसे भगत सिंह अपनी बन्दूक की नली साफ़ करते थे.
...और ऐसा करते हुए मैं भगत सिंह से कहता हूँ कि “हम ‘आपके मुल्क’ से बेइन्तहां मुहब्बत करते हैं.”
“हर चीज़ कुर्बान है इश्क की खातिर, पर,
ReplyDeleteमादर-ए-वतन के लिए सौ इश्क भी कुर्बान है”
बहुत खूब ..पूरा लेख बधाई के काबिल
“हर चीज़ कुर्बान है इश्क की खातिर, पर,
ReplyDeleteमादर-ए-वतन के लिए सौ इश्क भी कुर्बान है”
बहुत खूब
फिर तुम्हारी कलम से एक बेहतरीन सोच उभर कर आई है. जन गण मन सुनते ही मेरे रोयें आज भी खड़े होते हैं, पता नहीं क्यों आँख भी भर आती है...जानती हूँ पीवीआर के अँधेरे में ऐसा कम लोगों के साथ होता होगा.
ReplyDeleteतुम्हारी पोस्ट पढ़ के एक उम्मीद का दिया जलता है, कि अकेला इतना अकेला नहीं है. पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसे कुछ सपने विरासत में दिए जाएँ तो जज़्बा जिन्दा रहता है.
पोस्ट को एक सैल्यूट.
“हर चीज़ कुर्बान है इश्क की खातिर, पर,
ReplyDeleteमादर-ए-वतन के लिए सौ इश्क भी कुर्बान है”
....बेहतरीन सोच .
Behad bhavukta se likha hai..aankhen nam-si ho gayin!
ReplyDeleteदोपहर की चिलचिलाती धूप में भी सबके रोयें का बबूल के काँटों में तब्दील होना, अदृश्य पाइपलाइन से सपनो का ट्रान्सफ़र, ’जन-गण-मन’ का सम्मान... बचपन मे पिता की हर बात पर किया हुआ वो अडग विश्वास.. सब कुछ है इस पोस्ट मे..
ReplyDeleteबाकी जो कहना चाहता था, पूजा कह चुकी हैं
ReplyDeleteपंकज जी की टिप्पणिया मेरी भी मानी जाये.
ReplyDeleteमैं एक जोरदार सेल्यूट मारता हूँ, तिरंगा सौ गुने उर्जा से आनंदातिरेक हो कर लहरा उठता है. मैं चेहरे पर संतुष्टि भरी मुस्कान आती है. उनकी बातें कितनी सच्ची होती हैं.
ReplyDelete“हर चीज़ कुर्बान है इश्क की खातिर, पर,
मादर-ए-वतन के लिए सौ इश्क भी कुर्बान है”
१५ अगस्त और २६ जनवरी को स्कूल से लेकर कॉलेज के दिन याद आये....लेकिन हाँ तिरंगे के लिए प्यार, विश्वास और सम्मान बरक़रार है .....और भगत सिंह से ये कहना कि आपके मुल्क से बेइन्तहा प्यार हैं ......आँखे झलक आई .......बाकी बातें पूजा और पंकज कह गए. शुक्रिया जों आपने हमारे ब्लॉग पर आकर हमें मौका दिया आप तक पहुचने का.
...और डिम्पल जी की टिप्पणिया मेरी भी मानी जाये :-)
ReplyDeleteजन गन मन अधिनायक जाया है not "जन-गण मंगल दायक जय हे" ..over all bahut pyara hai
ReplyDeletei will do that :) waise apke is se kuch inspired ho kar maine bhi kuch likha hai...
ReplyDeletemujhe apke naye post ka hamesha intezaar rehta hai.
तुमसे बात करते करते राष्ट्रगान बजने लगता है और तुम मुझे छोड कर किसी झुके हुए नारियल के पेढ़ की तरह खड़ी हो जाती हो. तुम्हारे गालों पे झूलते हुए पतले सुनहरे बाल भी खड़े हो उठते है .भाव-विहोर हो जाती हो. आखो में चमक आ जाती है. “जन-गण मंगल दायक जय हे” दबे हुए होटो से धीरे धीरे बोलती हो तो और भी सुन्दर लगती हो.राष्ट्रगान में रोमंतिसिस्म (Romanticism). अच्छा लगता है.