वो खिले हुए इन्द्रधनुष के गोशे-गोशे को देख रही है... उसकी आँखें उन सात रंगों में सफ़र रही है... ऐसा लग रहा है मानो सारे रंग उसकी आँखें से निकल रहे हों. हालांकि उसके होंठ थोड़े तिरछे हैं लेकिन थोड़े और होकर कब मुसकाये यह उसे मालूम नहीं हुआ. उसकी आँखों से नन्हें फ़रिश्ते उतरकर ज़मीन पर चहलकदमी करने लगे हैं.... वो कहती है 'मुझमें कुछ बचपना है' जबकि मुझे लगता है कि बचपना उससे है... एक लहजे के लिए लगता है जैसे लड़कियां कई संस्कृतियों की पोषक होती हैं... मैं बीच में नहीं आना चाहता... आँखों के बसे यह रंग उतने पक्के नहीं होते .. गोया इन्द्रधनुष भी कहाँ हमेशा खिला रहता है.
आकाश यानी सपने में रहने वाली वो और ज़मीन यानि निरा हकीकत में जीने वाला मैं (पाताल नहीं, क्योंकि कई किम्वदंतियां पाताल से जुड़े हुए हैं जैसे, वहां बहुत सोना है, शेषनाग है, नागकन्या है आदि), हमारे बीच एक कई लोग हैं .. वो मुझे अपनी दुनिया की कहानियां नहीं सुनाती .. शायद वो जब भी कुछ कहना चाहती होगी मेरी आँखों में तैरते नंगे अफ़साने उसे रोक देते होंगे... पर मैं उसकी दुनिया देखना चाहता हूँ क्योंकि इस धरती पर जीवन चलने के लिए सपनों का होना बहुत जरुरी है..
और मैं यह सब तब सोच रहा हूँ जब वो इन्द्रधनुष देखने में मशगूल है. इसे दिखने के लिए मैं उसे बहुत दूर अपने सायकिल पर बिठा कर लाया... उसने पूछा था "कहाँ बैठूं ?" दिलफरेबी ने मेरा साथ छोड़ दिया (आदतन मैं ऐसी स्थितियों में अपना सर झुकाकर कहता हूँ "मेरे दिल में मेरी जान") मैंने लड़कों की फितरत से आगाह करते हुए उसे पीछे बैठने को कहा. मुझे मेरा आगे का रास्ता साफ़ चाहिए था जबकि उसके हिस्से सिर्फ छूटे हुए दृश्य आ रहे थे... यह पहली बार था जब मेरी पैरों की मांसपेशियां थक नहीं रही थी. सायकिल पहाड़ तक चढ़ गयी.. हम पैर लटकाकर एक बहुत ऊँचे पहाड़ के अंतिम छोड़ पर बैठे ... सामने गहरी खाई थी और उसके बाद दूसरा पहाड़... नीचे देखने पर दिल धक् से हो आता था... जहाँ मैं उस खाई की गहराई से आकर्षित हो रहा था वहीँ वो दूसरी पहाड़ी पर जाना चाहती थी... मुझे लगा कि मैं उसके गुलाबी तलवों में बसे तितलियों की उड़ान में बाधक बन रहा हूँ और यह सही वक़्त है कि मैं यहाँ से नीचे छलांग लगा दूँ...
उसकी नज़र लगातार इन्द्रधनुष पर टिकी हुई है.. सातो रंग ने उसपर नूर बरसाया है उसका सफ़ेद रेशमी दुपट्टा लरज़ उठा है... आसमान ज़मीन की हस्ती पर छाया है... इश्क फ़रिश्ता बन कर आया है.
मैंने उसका चेहरा देखा ... कुदरत एक सायकिल मैकेनिक बन गया है और उसने अपने ने गुब्बारे में जोर पञ्च मारा है... इन्द्रधनुष रुपी गुब्बारा पुरे आसमान में खिल उठा है... मुझे फिर से जीने का दिल हो आया है.... उसकी आँखों में कितनी चमक है ... मेरा दिल करता है कि में उन गीले रंगों में अपनी तीन उँगलियाँ (तर्जनी, मध्यमा और अनामिका) डुबो कर उसकी मांग भर दूँ...
वो अब भी आसमान में है और मुझे हकीकत का ख्याल हो आया है.
शीर्षक "तस्कीन -ए-दिले मेह्ज़ुं" ना हुई ग़ज़ल से
ReplyDeleteलो शीर्शःअक आपने टिप्पणी में लिख दी।
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ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है - देखें - 'मूर्ख' को भारत सरकार सम्मानित करेगी - ब्लॉग 4 वार्ता - शिवम् मिश्रा
My God. ये अभिव्यक्ति है तो गद्य में मगर किसी कविता से कम नहीं.मैं आपको इस सुन्दर लेखन की बधाई देता हूँ.
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति ....इन्द्रधनुष सी खिली हुई
ReplyDeleteबहुत देर तक सोंचा कि क्या कहूँ.. और यही कह पा रहा हूँ कि कुछ कहा तो क्या इस पोस्ट/कहानी के साथ न्याय होगा..
ReplyDeleteजबरदस्त है सागर... कितने पेग के बाद लिखी?
पंकज के सवाल का जवाब हाज़िर किया जाए फिर हम अपना कमेन्ट लिखेंगे.
ReplyDeleteपंकज सही कह रहा है. क्या कहा जाए इस पोस्ट के लिए कि रूमानियत आँखों के रास्ते दिल में उतरती जाती है धीरे-धीरे...
ReplyDeleteसुन्दर लेखन!
ReplyDeleteकुदरत सबका पंचर बनायेगी, हवा भरेगी और बढ़ा देगी चलते रहने के लिये।
ReplyDeleteबहुत ही खुबसूरत रचना...मेरा ब्लागः"काव्य कल्पना" at http://satyamshivam95.blogspot.com/ मेरी कविताएँ "हिन्दी साहित्य मंच" पर भी हर सोमवार, शुक्रवार प्रकाशित.....आप आये और मेरा मार्गदर्शन करे......धन्यवाद
ReplyDeleteहलके हलके सुरूर से शुरू हुई रचना ....जबरदस्त असर छोड़ गई
ReplyDeleteपहला शब्द पढ़ते ही जैसे लेखक आपकी ऊँगली पकड़ लेता है और फिर लेकर चलता है आपको अपनी दुनिया में.. अपने तरीके से सैर कराता है.. हाथो से इशारा करते हुए एक एक चीज़ पूरी डिटेल के साथ बताता जाता है.. ये सोचालय का लेखक है.. एक गाईड की तरह अपना लिखा अपने हर पाठक के अंतस तक पहुंचा कर ही मानता है.. ये बंदा जबरदस्त है !
ReplyDeleteअमूमन एक लेखक हर बार नये किरदारों को लेकर रचना रचता है पर आपकी हर नई पोस्ट (कहानी नहीं ) पढ़ के अहसास होता है कि किरदार वही पुराने है लेखक कोई नया है.
ReplyDelete@ पंकज,
ReplyDeleteकल जाम चढाने के बजाय सायकिल ही चढ़ाई थी पहाड़ पर...
@ पूजा जी,
अब आप लिख सकती हैं अपनी बात
उम्दा लेखन...
ReplyDeleteवो अब भी आसमान में है और मुझे हकीकत का ख्याल हो आया है.
ReplyDelete;)
hamesha ghalat waqt par ho aata hai na ye khayaal.....
..बहुत खूब।
ReplyDelete..आपने तो इंद्रधनुष दिखा कर दिल बेचैन कर दिया। कहीं पढ़ा है कि इंद्रधनुष दिखाना नहीं चाहिये।
कभी बैठे बैठे दिमाग को यौ परेशान करते हैं....... कोई भूले-भटके ही सही - इन्द्रधनुष तो याद आ जाए.
ReplyDeleteसही कहा है कुश साब ने..बंदे के बारे मे..हालांकि लेखक की ज्यादा तारीफ़ कर देना लेखक के अपने स्वास्थ्य के लिये हानिप्रद है..मगर यहाँ लेखक पूरी तारीफ़ का अधिकारी है..बचपन के अल्हड़पन और जवानी की नासमझी के बीच की रस्सी पर कुशलता से चलती है पोस्ट.. एकदम ’आशिकी सब्रतलब और तमन्ना बेताब’ टाइप..खासकर यह पंक्ति और पसंद आयी..आँखों के दो सबसे जरूरी इस्तेमालों को इंगित करती सी-
ReplyDelete’पर मैं उसकी दुनिया देखना चाहता हूँ क्योंकि इस धरती पर जीवन चलने के लिए सपनों का होना बहुत जरुरी है.’
मगर खयालों की पतंग आसमानों मे जितने ऊपर उडना चाहती है..हकीकत की डोरी वापस जमीं पर खींच लेती है...यही सच है!!
बहुत खूबसूरत! शब्दों की खुशबू भीनी- भीनी...अपना जादू छोड़ जाती है...
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