कैमरापर्सन : रोल कैमरा !
(थोड़े अंतराल के बाद)
एक्शन !
(शब्दों के शुद्ध उच्चारण उपयुक्त स्थान पर विराम और बलाघात* के साथ)
"बिहार का मौसम इस बार राजनितिक रंग के साथ मिलकर एक हो गया है. गर्मी जम कर कहर ढा रही है. मेघा रे, मेघा रे मत परदेस जा रे ! तमाम पटनावासियों की फिलहाल यही आरज़ू है. मेरे पृष्ठभूमि में गांधी मैदान उजाड़ और निचाट अकेला है. गर्म हवा के थपेड़े गालों को झुलसा रहे रहे हैं. आसमान में बादलों का पुलिंदा तो नज़र आता है लेकिन बारिश का कहीं नामोनिशान नहीं. भले ही विज्ञान ने कई चीजों में अपनी दखल दे रही हो लेकिन अभी भी कुदरत की इस नेमत का कोई सानी नहीं. लोग पसीने से बेहाल हैं. जहाँ कोल्ड ड्रिंक वाले चादी काट रहे हैं वही लोगों की जेब ढीली हो रही है. गंगा, घाट से साढ़े तीन किलोमीटर पीछे चली गयी है और इस बार छठ पूजा में श्रद्धालुओं को खासी मशक्कत करनी पड़ेगी. जाहिर है ग्लोबल वार्मिंग से कोई शहर अछूता नहीं रहेगा."
----कैमरामैन कामिनी के साथ सागर शेख, मग्निफिशेंट न्यूज़ , पटना.
- यही कहा था ना तुमने पहली बार पी टी सी (PTC) देते हुए ...
- हाँ, बिलकुल ! पूरे ग्रुप में सबसे अच्छा मैंने ही दिया था पर तुम्हें तो सब वैसे का वैसा याद है
- पर तुमने एक गलती कर दी थी
- हाँ मैं कैमरा पर्सन के जगह कैमरामैन बोल गया था
- कैसे हो गयी थी यह गलती ! तुमने टीचर की बातों को फोलो नहीं किया था.
- आखिरी वक़्त में .... मैं खुदा कसम खा कर कहता हूँ मैं सिखाये हुए सारी बातें फोलो कर रहा था, मैंने कैमरे की लेंस में पांच सेकेण्ड तक देख कर उससे एकाकार हो गया था, गहरी सांस भरी थी, शांत हुआ था, अपने शब्द जुटाए थे, और अपने आत्मविश्वास का पारा शून्य से दस पर ले जा पहुंचा था पर हाँ टीचर ने साइन ऑफ करते वक़्त फ्रेम बनाकर ट्राई पोड पर इत्मीनान से रखी गोरी उँगलियाँ और खुले बाल देखने से मना नहीं किया था, चूँकि तुम्हारी आँखें कैमरे के पीछे थी अतः मैं वहीँ उलझ गया था,
तभी इसका परिणाम तुम्हारे पक्ष में नहीं गया था सिर्फ शाबाशी मिली थी
- पर मैं अपने और दोस्तों की तरह धूप में नहीं झुलसना चाहता था, तुम्हारी उँगलियों और खुले बालों ने मुझे ठंढी छाँव दी थी.
- च... च.. च.. च्छ... पर अफ़सोस की यह हमेशा नहीं रहा, हम एक समय सब कुछ ठीक रहते हुए एक गलतियाँ कर जाते हैं और फिर उसे भुगतते हैं
- प्यार की तरह !!!
- नहीं, यहाँ शादी भी रख दोगे को कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा
- और फिर ...
- फिर "मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी" वाली डायलोग मारते हुए जिंदगी ज़ुगारनी पड़ती है.
- पता है तुम्हें पहली बार क्लास में देखते ही मेरे मन में क्या आया था ?
- हाँ यही की क्या मस्त पटाखा है ! मैं तुम लड़कों की गिरी हुई सोच से वाकिफ हूँ
- नहीं तुम मुझे थोडा ही गिरा हुआ समझी जबकि मैंने इससे भी दो कदम आगे की बात सोची थी वो भी तुम्हारे पति के बारे में.
- तो वो भी बता दो
- नहीं रहने दो, यह मुझ तक ही रहे तो अच्छा है, कुछ बातें देह की हद पर नहीं करनी चाहिए
- ठीक है, लेकिन यह बता कर क्या तुम्हारी उत्सुकता ख़त्म नहीं हो गयी ? अब कैसा लग रहा है ?
- मैं तुम्हें वो बता कर तुम्हारा चेहरा देखना चाहता था, एक खास चेहरा सिर्फ अपने लिए, शादी के पहले फेरे जैसा, के जैसे बात खोलता जाऊं और चेहरे पर के भाव बदलते जाएँ, - वो भाव पहले संगीन हों, फिर उनमें हौले हौले नमक घुलता जाए और फिर वो फिजा में घुले रंग की तरह मेरे अन्तःस्थ में बस जाए.
- पर अब क्या तुम यह बता कर वो बात बताओगे तो वो भाव पा सकोगे ?
- नहीं, कतई नहीं, तुम उसके उलट दूसरी प्रतिक्रिया लिए तैयार हो जाओगी, हालांकि वह भी अभिनय ही होगा लेकिन तुम्हारे मन में उस वक़्त सिर्फ मुझे गलत साबित करने की भावना होगी.
- तुमने असल बात ना बता कर फिर से गलती की
- इस गलती ने हमें फिर से मिलाया है
- टुकड़ों में जीना, जीना नहीं होता. तुम टुकड़ों में क्यों जीते हो ? नहीं मुझे लगता है हम टुकड़ों में क्यों जीते हैं, तुम जब भी यहाँ से जाते हो मेरी याद में एक ईंट का इजाफा होता है - और मेरी जिंदगी के एक पाए गिराए जाते हो
- तुम्हारी याद भी इस शहर की गलिओं में पलती, पकती और समृद्ध होती सभ्यता जैसे है. धीमी आंच पर मद्धम मद्धम.
- ऐसे में क्या पकता है ? मेरा मतलब क्या पक पाता है ? यह क्या है ? क्यों है ? और इसका अंत क्या होगा ?
- तुमने मेरे साथ कितने फेरे लिए हैं ?
- एक कम सात में यानी छह
- सातवाँ जरुरी है ?
- नहीं, यह शादी ही हमारे लिए विलेन है, यह प्रेम का एक अनोखा मकाम है की सबसे पवित्र मानी जाने वाली चीज़ ही सबसे बड़ा दुश्मन बन खड़ा हुआ है.
- तो जो शादी हमने नहीं की और ऐसे में इस ना मिलने का सामजिक प्रतिबन्ध के विरुद्ध मिलने को अपना सातवां फेरा समझो
PTC - यानी पीस टू कैमरा ज़्यादातर समाचार के बाद में रिपोर्टर घटनास्थल से अंत के चार लाइन इस पर बोलते है यह घटना की पुष्टि हेतु किया जाता है.
ReplyDeleteसाइन ऑफ़ - संवाददाता द्वारा कहा गयी अंतिम लाइन जिसमें सहयोगी साथी का जिक्र और अपना परिचय हो
सामाजिक बन्धन के सातवें फेरे की उन्मुक्तता।
ReplyDeleteटुकड़ों में जीना, जीना नहीं होता
ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट...बात कहने का लहजा बेहद दिलचस्प है आपका. बधाई
नीरज
badhiyaa
ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट.
ReplyDeleteआपको और आपके परिवार को मकर संक्रांति के पर्व की ढेरों शुभकामनाएँ !"
क्या लिखते हो, कैसे लिखते हो, क्यों लिखते हो.....सब बेमानी हो जाता है तुम्हारे इस सोचालय में आकर। कैमरे के पीछे तुम्हारी आँखें वाला संवाद देर तक चिपका रहा...अभी भी चिपका हुआ जब ये टिप्पणी लिख रहा हूँ। काम-काज कुछ है नहीं, दो फीट गिरी बर्फ़ ने बाहर निकलना मुश्किल किया हुआ है। तुम्हारा फोन नहीं लग रहा...
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