पहाड़ों के बीच धुंध का अक्स किसी नायिका के खोलकर फैलाई हुई साड़ी सी लगती है। धरती के सीने से नर्मो नाजुक जज्बात उठकर आसमान में मिलते से लगते हैं। नायिका अपने बाल हाथों को उपर उठा शंकर के जटा की तरह बांधती है। वक्षस्थल थोड़ा तन जाता है। धुंध को मुठ्ठी में पकड़ने की कोशिश करता हूं। हथेली गीली होती है और गाल पर थोड़ा ठंडेपन का एहसास होता है। कपोलों पर उगे लाल सेब गायब हो जाते हैं।
नायिका मानस पटल के चित्रपट पर एक कविता की तरह सामने खड़ी है। कमरे के कोने से आती सुनहरी रोशनी में पिघलती और सकुचाती। मेरी ग्लानि भी ऐसी ही है अपनी जगह गलती घुलती हूई। इसकी सुंदरता की आंच की तरह कभी ना खत्म होने वाली। उम्र की वहाव में रास्तों के उस उंच नीच का कोई अंत नहीं। जो मैं देखता हूं, महसूस करता हूं। ग्रहण करता हूं और अपने चोट लगे सीने से उठते लहर को दिखाने बताने के लिए मारा मारा फिरता हूं। चोट की खूबसूरती ऐसी ही होती है। बिल्ली के पंजों के निशान सी हसीन। किसी ऊंचाई पर उफनते चाय की केतली जो अपने ढ़क्कन से बार बार टकराती है।
नीम अंधेरे में लैम्प पोस्ट से गिरती रोशनी में कोई जवान पेड़ शाॅवर लेती हुई लगती है। बातें जो कही जाती हैं कहीं गुम हुई जाती है। रास्ता बहुत लंबा है सुनसान धड़ाम से वफा एक पेड़ गिरता है और तेज़ चोंच वाले जासूस पंछी ऊंची उड़ान भरने लगते हैं।
लचकदार बांस के लंबे पेड़ लरज कर झील की पानी में आ गिरा है। झील के सीने में दूध उतर आया है और पत्ते उन्हें पीकर मदमस्त हुए जाते हैं।
आसमान में बादल रूई के फाहों जैसे ठहरे हैं। सबमें बंटवारा हुआ है किसी को बड़ी जागीर मिली है तो कहीं कहीं बड़ी सूराख है।
नदी अपने साथ मटमैले पानी को लेकर आती है। उबड़ खाबड़ रास्तों पर पड़े पत्थरों से चोट खाते हुए बहने के लिए क्या चाहिए होता होगा ?
किसी व्यस्त रास्तों के ही आस पास का एक अनजान रास्ता जिसपर पेड़ गिरा दिया गया है और पगडंडियों पर हरे जंगली घास उग आए हैं। इस उखड़े हुए पेड़ की जड़ किसी खजाने की चाभी जैसी लगती है। वर्जना, सम्मोहन और फिर खजाना।
रहस्य का यह रंग, मृत्यु का ये आर्कषण मुझे हमेशा से खींचता आया है।
आत्महत्या के पीछे मेरा आर्कषण हमेशा से रहा है। इसे मूर्त रूप में खोजने के दौरान ही जीना है और इसी में मरना भी.
मृत्यु के पार यह कशमकश नहीं है जीने की, आकर्षण वही है।
ReplyDeleteSamooche lekhan me ek rahasymaytaka aawaran nazar aata hai,jo sundarta pradan karta hai.
ReplyDeleteसीने में उतरे दूध को पीकर मदमस्त कैसे हुआ जाता है | झील को पत्तों पर ममत्व आया होगा, नवजात पत्तों की भी भूख शांत हुई होगी | लेकिन उनके मदमस्त होने का कांसेप्ट कुछ समझ नहीं आया , क्या कोई उपयुक्त शब्द नहीं मिला | जैसे अभी मुझे भी 'भूख शांत हुई' के बजाय दूसरा वाक्यांश नहीं मिला |
ReplyDeleteरूपक अच्छे लगे हैं , ये बताने की तो जरुरत नहीं है न ?
शब्द आपके इशारों पर नृत्य करते लगते हैं इस लेख में...अद्भुत...
ReplyDeleteनीरज
@ नीरज,
ReplyDeleteपहले मेरा भी ख्याल यही था फिर सोचा कब तक मासूम बने रहेंगे................ फिर आवारा कर दिया.
नायिका के खोलकर फैलाई हुई साड़ी..
ReplyDeleteये सिर्फ सोचालय पर ही मिल सकता है.. कमाल की नज़र पायी है जानी..