Skip to main content

बदहवासी में भागना, पहचाने पेड़ों से टकराना और गिरना...

लड़की वो जिसका अगला कदम क्या होगा ये पता न हो। लड़की वो जो किस करवट बैठेगी इसका अंदाजा न हो। लड़की वो जो मासूम चेहरा बनाकर चीख उठे। लड़की वो जो इतनी बेपरवाह कि बाल, दुपट्टा और हंसी उड़ी जा रही हो और यह न सोचे कि इनसे कैसे अनमोल हीरे मोती गिरे जा रहे हैं और इसे बचा कर रखना चाहिए। लड़की वो जो इतनी नासमझ कि छत से नीचे आती बीच सीढ़ी पर सबसे बचकर चूम लो तो चिल्ला उठे कि - ''मम्मी देखो इसने मुझे यहां सीढ़ी पर छुपकर जबरदस्ती किस किया।'' लड़की वो जो पैदाइशी कलाकार हो, हर सुबह उसका बदल यूं जैसे केले के नए पत्ते गोल गोल खुलते हैं। लड़की वो जिसकी दो आंखों में चूहे और खरगोश जैसी चलपता और गालों पर उगे सुनहरे रोएं जैसी हल्की नादानी हो। जो बार बार प्यार करने जैसी गलती पर मजबूर करे। 


2011 की डायरी में यह दर्ज कर रहा हूं कि उन आंखों में अब किसी ताखे पर जलती डिबिया का कम रास में जलने जैसा संशय भी आ चुका होगा और थोड़ी बहुत अपनी थरथराती रोशनी की ज़द में दूर रखे किसी सामान के कद का हिलना डुलना भी। भौतिक चीजों की अभावों में नहीं होगी इससे बदन में उभार भी ऐसे आए होंगे जैसे मिट्टी के घरो की सपाट दीवारों पर अचानक निकल आया कोई ताखा। लम्बे हाथों को लेकर सड़कों पर चलती होगी। बहुत खूबसूरत नही थी/हो तुम कि जिसके कारण मैंने तुमसे प्यार किया। बस इतना ही था कि चारों तरफ से घिरे किसी पहाड़ी की गोद में एक पहचानी सी हवा सरसराया करती है। यहां हवा काॅमन है जो जब पछुआ बन कर चलती है तो मिट्टी के दरारें सूख कर फैल जाती है, थोड़ी ठंड भी लगती है, गोया होंठ भी फटने लगते हैं और जब पूरब से आने का रूख अख्तयार करती है तो बदन में बसे अतीत के/जोड़ों के दर्द उभारती है। उत्तर और दख्खिन से आती हवा बड़ी क्षणिक होती है इतनी कि इन पर हम गौर नहीं करते। कभी कभी लगता है हवाओं पर पूरब और पश्चिम दिशा का ही दबदबा है और जो हवा इस लड़ाई में बहक जाती होगी वो बाकी बचे दोनों दिशाओं के मार्फत हमारी खिड़कियों से रिस आता है।

अपनी डायरी में दर्ज कर रहा हूं कि चैराहा घेर कर छोटा कर दिया गया है, मेन फील्ड अब बैठने की जगह नहीं रही, क्रिकेट खेलना तो दूर की बात है। सुधा डेयरी प्रोजेक्ट वाली दुकान पर अब तुम अपने छोटी भाई के साथ भी नहीं आती। अपनी दीदी का सलवार कुरता तुम्हें लगभग फिट आने लगा है जिनमें पहले भी हम इतने वाकिफ थे कि मुझे कोई दिक्कत पेश नहीं आती थी। 

दूध लाना, मोड़ पर से दही, सब्जी लाना, अपने भाई को स्कूल से लाना वो सारे छोटे छोटे बहाने खत्म हो रहे हैं बस बच रहा है तो एक बड़ा हक़ीक़त। ज़रा मेरा हाथ अपने दोनों हाथों में एक बार लेकर थपथपाते हुए यकीन तो दिलाना कि हम अब नहीं मिलेंगे! क्या एक बार अपने चेहरे पर अब वो भाव ला सकोगी कि तुम्हें राह चलते, बालकनी में खडे रहते कोई नहीं देख रहा होगा ? क्या एक बार उसी लहजे में फोन पर माफी मांग सकोगी ? क्या मेरे साथ किसी घुटे हुए उदास प्रेम भरे गीत में आवाज़ मिला सकोगी ? क्या मैं प्रति किलोमीटर एक रूपए आॅटो पर बचा कर सैंडविच (दुकान का नाम) से पैदल पांच रूपए का डेयरी मिल्क तुम्हारे दामन में रख पाऊंगा ? अगर तुम नाराज़ रही तो उसे खिड़की के बाहर फेंक सकूंगा? कैसी उम्र है कि मैं अपने रूखाई के शबाब पर हूं और डेयरी मिल्क दामन में रखने ना सही फेंकने तक का मौका भी तुमसे खुल कर मांग नहीं रहा?

कभी हम एक दूसरे में फिसलते थे। मैं चबाए हुए अन्न की तरह तुम्हारी हलक से उतरता था, तुम किसी आंसू की तरह मेरी आंखों में ही पैदा हो कर फिर से जज्ब हो जाती थी।

कई तहों में रखी जिंदगी से मिलती-जुलती, मां से सुना एक मुहावरा याद आता है - ‘‘मुठ्ठी भर चना, कभी घनघना ... तो कभी वो भी मना''

Comments

  1. लड़की वो जिसका अगला कदम क्या होगा ये पता न हो। लड़की वो जो किस करवट बैठेगी इसका अंदाजा न हो। लड़की वो जो मासूम चेहरा बनाकर चीख उठे। लड़की वो जो इतनी बेपरवाह कि बाल, दुपट्टा और हंसी उड़ी जा रही हो और यह न सोचे कि इनसे कैसे अनमोल हीरे मोती गिरे जा रहे हैं और इसे बचा कर रखना चाहिए। ... waakai

    ReplyDelete
  2. ये कैसी छटपटाहट है, ये कैसी बेचैनी है, ये दिल में डूबता हुआ सा क्या है सागर?
    जिंदगी तुम्हें कितनी तरह से छलती है सागर और तुम हर बार उसकी परछाई से मुहब्बत कर बैठते हो.

    किसी दिन तुम्हारी ये दर्द की दवात दीवार पर फ़ेंक मारूंगी कि जिसमें उँगलियाँ डुबा कर लिखते हो...कसम से.

    ReplyDelete
  3. Aisi ladkee kitnee bholee bhalee ,maasoom hogee!!

    ReplyDelete
  4. अतिसंवेदनशील रचना सोंचने पर मजबूर करती अच्छी लगी ,बधाई

    ReplyDelete
  5. Itminaan se padhungi ,abhi to in panktiyon mein doob rahi hoon khoobsurat

    कभी हम एक दूसरे में फिसलते थे। मैं चबाए हुए अन्न की तरह तुम्हारी हलक से उतरता था, तुम किसी आंसू की तरह मेरी आंखों में ही पैदा हो कर फिर से जज्ब हो जाती थी।

    ReplyDelete
  6. First paira behad khoobsoorat ban pada hai...beech tak aate-aate post kahin kahin thodi se dheele hoti hai...lekin aap sadhe hue navik ki tarah sahil par pahuchte hain...Thoda sa shabdo ka bhanwar aur hota to lajawaab shabd bol dete ham ....lekin bahut umda :-)

    ReplyDelete
  7. हाँ ये अच्छा है.. तस्वीर बहुत शानदार है.. या यू कहूँ जबरदस्त है..

    स्टार्ट अच्छा है और अंत और भी अच्छा.. अंत तक पहुचते पहुचते गला भी भरता है.. कम्प्लीट सोचालय मार्का पोस्ट

    ReplyDelete
  8. आपकी कहानी (पोस्ट)के title बहुत अलग से होते है.नये पुराने बिम्बों से सजी अहसासों से भरी किसी और दुनिया में ले जाती है.लड़की वो जो ऐसी लड़की वो जो वैसी पर लड़की क्या सोचती क्या कहती.इस तरीके से लिखा जैसे कोई दर्द नहीं उसके बिछड़ जाने से और दर्द इतना की सहना मुश्किल.फिर पहले से सब हो जाने की चाहत..
    (ज़रा मेरा हाथ अपने दोनों हाथों में एक बार लेकर थपथपाते हुए यकीन तो दिलाना कि हम अब नहीं मिलेंगे!)इसे लिखते वक़्त तकलीफ भले ना हुई हो पढ़ते वक़्त बहुत हुई...
    (क्या एक बार अपने चेहरे पर अब वो भाव ला सकोगी कि तुम्हें राह चलते, बालकनी में खडे रहते कोई नहीं देख रहा होगा ? क्या एक बार उसी लहजे में फोन पर माफी मांग सकोगी ? क्या मेरे साथ किसी घुटे हुए उदास प्रेम भरे गीत में आवाज़ मिला सकोगी ?)अत्यंत संवेदनशील ....

    ReplyDelete
  9. अरसे बाद आया ....और आमद जाया नहीं गयी...सोचालय अक्सर कुछ थमा देता है साथ ले जाने के लिए .....लोग खामखाँ कहते है कहानी है ...हमें तो हकीक़त जान पड़ती है ......
    " दीदी का सलवार कुरता तुम्हें लगभग फिट आने लगा है जिनमें पहले भी हम इतने वाकिफ थे कि मुझे कोई दिक्कत पेश नहीं आती थी। '
    मर्द कितना कमीना है न .....कल यही बात एक मोहतरमा ने लिख दी तो कई मर्द नाराज हो गए थे .....

    love your post....

    ReplyDelete
  10. एक आम लड़की की लड़की होने की यात्रा के माइलस्टोन पर हर लड़की की आत्मकथा का अंश लिखे लगते हैं...

    ReplyDelete
  11. "कभी हम एक दूसरे में फिसलते थे। मैं चबाए हुए अन्न की तरह तुम्हारी हलक से उतरता था, तुम किसी आंसू की तरह मेरी आंखों में ही पैदा हो कर फिर से जज्ब हो जाती थी।"


    शायद अभी भी हालत कुछ ऐसे ही हैं तभी डायरी का ये पन्ना खुल सका है वर्ना...
    बेहद खूबसूरती से उतरा है आपका ये भाव...

    ReplyDelete

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार रच डाला. मनोरंजन प्रधान फिल्मों को व्यावसायिक सिनेमा के श्रेणी में रखा गया.             एक दीर्घकालीन संघर्ष के बाद स्वतन्त्रता के अभ

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष्टि से देखता है, यह बड़ी अजीब बात

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने   कलकत्ता का पहला सिनेमाघर एलफिंस्टन पिक्चर पैलेस   बनाया। यह सिनेमाघर आ