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अलखि, तुम्हारे अक्षर तो सुग्गा मैना के कौर से लगते हैं !




ज़मीन पर बोरा बिछा, अलखि उस पर पालथी मार कर बैठी है। दोपहर चार बजे का समय है। धूप छप्पर पर से वापस लौट रही है। आंगन के बाईं ओर गोशाला है और दाहिनी तरफ मिट्टी से घिरे किंतु थोड़ी ऊंचाई पर गिलावे पर ईंट से घेरा पूजा स्थान। इसपर गोबर से लिपाई की हुई है। बीच में हनुमान जी की ध्वजा है जो हर साल रामनवमी पर बदली जाती है। अलखि ऊपर देख कर सोचती है। अभी-अभी तक तो नया था क्योंकि चैत्र गुज़रे ज्यादा दिन नहीं हुए हैं लेकिन रंग थोड़ा धूसर हो रहा है। एक बारिश गिरेगी ना, तो ध्वजा का लाल रंग और हल्का हो जाएगा। सफेद, उजला आकाश कितना सूना है। लगता है खराब हो गए कपास रखे हों। 


बोरे पर पिचहत्तर फीसदी जगह घेर कर अलखि बैठी है। शेष पच्चीस प्रतिशत स्थान पर उसकी किताब कॉपी है। कॉपी क्या है एक नमूना है। अगर पलट कर देखी जाए तो मालूम होता है जैसे नितांत उलझन में लिखी गई हो। जैसे कोई जवान लड़का किसी किशोरी को प्रपोज़ कर रहा हो तो शर्म और उलझन में जो आरी तिरछी लकीरें खिचेंगी, उसकी पूरीकॉपी कुछ ऐसी ही लगती है लेकिन ठहरिए जिसे आप इस कुंवारे और अनछुए रूपक द्वारा तौल रहे हैं अगर अलखि के पास यह उदाहरण रख दें तो उसका एक जोरदार पंजा आपके मुंह पर पड़ेगा और उसका तेज़ नाखून आपके चेहरे की सारी रौनक हमेशा के लिए छीन लेगा। और ख़ुदा न खास्ता अगर उस झपेटे में आपकी आंखें आ गईं तो फिर आप जीवन भर इतराते हुए कोई दूसरा रूपक न ढूंढ़ पाएंगे। क्योंकि अलखि के लिए उसकी कॉपी बहुत सारे इक्कठा किए हुए मेहनत का नतीज़ा है। गोशाला में गाय को लताड़ मारते देख, क्योंकि उसके पैर पर बैठी मखियां उसे तंग कर रही हैं, ध्वजा का आसमान में लहराता देख और सामने की गेट पर आम की उस स्थिति का कल्पना करना जैसे कि पढ़ कर उठने के बाद उसे वहां दो चार आम गिरे मिलेंगे (हालांकि इसमें यह अड़चन है कि अभी आम ना टूटने की स्थिति में है ना ही पकने की) थोड़ी देर तक आसमान देख कर अपने को एकाग्र कर बीच की मांग फाड़े, (सच ये कि उसके बालों का और कोई ढब है ही नहीं लेकिन खबरदार (इस चेतावनी के लिए कृपया पैरादेखें ... ) अपने हाथ के कड़े को वो ऐसे नीचे करती है जैसे सचिन हर बॉल फेंकने से पहले करता है ताकि सुंदर लिखावट में वो बाधा ना बने। लिखने के लिए अलखि जब सर झुकाती है तो पहले कॉपी और उसके बीच आदर्श दूरी होती है और यह दूरी क्रमशः घटती जाती है। लिखने में मगन अलखि की जीभ पहले बाहर आती हैं, फिर धीरे धीरे ऊपरी होंठ को भिगाती हैं और फिर और ऊपर चढ़ते हुए नाक पर चढ़ आती है। 

लोग उससे डरते हैं क्योंकि उस अंचल में ऐसा माना जाता है कि जिसकी जीभ नाक छुए उसका कहा सच होता है और उसे गुस्सा मत दिलाओ ऐसे में उसके श्रीमुख से जो भी निकलेगा सच हो जाएगा। इसलिए सभी उसे अलखि बेटा और दबी ज़बान से अपनी चिढ़न दबाते हुए काली माई कहते हैं।

नाक पर जीभ चढ़ाने का गुण उसे खानदानी विरासत में मिला है। यह एक पैतृक दाय है। जब लट्टू घुमाने के लिए उसका भाई उस पर रस्सी लपेटता है आपको उसके इस गुण के दर्शन हो सकते हैं। वहीं उसके पिता में यह तब दर्शित होता है जब वे एक-आध किलोमीटर खेत जोत चुके होते हैं। मां चापाकल के पास बैठी तन्मयता से बर्तन धोने में यह गुण दिखाती है, कपड़े धोने में भी लेकिन तब यह गुण ज्यादा देर तक नहीं रहता क्योंकि सर्फ घुले पानी की बूंद जल्द ही जीभ पर पड़ती है और स्वाद बिगड़ने से यह तन्मयता टूट जाती है।

अलखि के अक्षर वैसे गोल गोल हैं। लिखना लिखते लिखते वो कई बार उस पन्ने की चैथाई में सूरज चंदा बना देती है। और क्या शानदार कि उसकी गोलाई एकदम गोल। पहली ही घुमाव में एक वृत्त तैयार। उसे इसमें मास्टरी है और आत्मनिर्भरता भी कि उसे इन टुच्चे कामों के लिए प्रकाल या कम्पास का सहारा नहीं लेना पड़ता। लिखना छोड़ धीरे-धीरे फिर सूरज चांद के बाल निकल आते। आसपास काले-काले बादल घिर आते। नीचे घास का मैदान भी झटपट तैयार कर लिया जाता और खेत में मक्का उगाना उसका फेवरेट शगल है तो मक्का हो तो और उसमें यदि उसके बाल न हों तो कुछ अधूरा सा लगता है। सो वो भी तैयार। ज़ाहिर है इस मगजमारी में अलखि के सर पर बल पड़ता और उसका सिर झुकते झुकते एकदम कॉपी पर आ टिकता। अगर इस समय अलखि को कोई देखे तो लगेगा कि यह दूसरा ही जीव है, जैसे कोई पिल्ला कुतिया के पहलू में घुसने के लिए मनुहार कर रहा है। 

अलखि के लगभर हर पन्ने पर ऐसे कारनामों के दर्शन हो जाते हैं जहां कभी इंदिरा गांधी नुमा कोई औरत भीड़ को भाषण दे रही होती (मूल में यह समझा जाए कि अलखि ही वो भावी महिला है, लेकिन फिलहाल यह सिर्फ समझिए कहने की जहमत मत उठाईए वो भी इस तरह कि बड़ा अपने को इंदिरा गांधी समझती है ! हुंह! वरना...  (दंड विधान: कृप्या देखें - पैरा नं॰... ) कबड्डी का कप उठाए उसका भाई, ट्रैक्टर पर बैठा उसका पूरा परिवार, खेत में भिंडी और उसके एक सूखे डाल पर झूलता, हरी मिर्च खाता, एक टेढ़े नाक वाला सुग्गा... सभी बारी बारी उसकी कॉपी पर उगने लगते। 

इधर लोगों का यह भरम बना रहता कि ‘‘श्श्श्.... अलखि मन लगा कर पढ़ रही है।‘‘

लेकिन जैसा कि बता चुका हूं कि वैसे अलखि के अक्षर बड़े गोल गोल हैं। सुडौल। एक एक हर्फ बोलता हुआ सा लगता है जैसे कोई झककोर कर आपका नाम ले ले कर आपसे बात कर रहा हो। सवाल कर रहा हो। लोग उसकी लिखावट से तुरंत कनेक्ट हो जाते हैं जैसे कोई मौन संवाद चल रहा हो। उसके अक्षरों में वो जादू है कि हमें अपना बचपन नज़र आता है और हम अपनी खोई दुनिया तलाशने लगते हैं। उसकी लिखावट में वो कच्चापन और परिवक्वता का मिश्रण है जो सबसे जुड़ती है। गोया पेंसिल उसकी उंगलियों में धड़कने लगती है। 

यही कारण है कि उसके अक्षर कभी बासी नहीं होते और स्कूल में वह अपने मास्टर को रोज़ रोज़ एक ही पेज लिखा हुआ दिखा कर बच निकलने में सफल हो जाती है।

अलखि के लिखे शब्दों में ताज़गी की महक है। उसमें कोई तितली अपने पंख खोलती है मानो कह रही हो - इस फूल का पूरा रस पी लिया है और बस अब उड़ने की तैयारी है।

Comments

  1. बहुत ही प्यारी पोस्ट.. इतनी ख़ूबसूरत डीटेलिंग दी है सारे परिवेश की और अलखि की राइटिंग से ले कर उसके छोटे से दिमाग़ में उमड़ घुमड़ रहे विचारों तक की कि बस दिल ख़ुश हो गया पढ़ के... गोया पेंसिल तो आपकी उंगलियों में भी धड़कने लगती है :)

    अपना बचपन याद हो आया... दिल कर रहा है अलखि की ये नमूना कॉपी ( उससे मत कहियेगा प्लीज़ कि हमने ऐसा कहा उसकी कॉपी के बारे में ) उठा कर देखें ज़रा... ये पन्ना देख के तो लग रहा है जैसे हमारी ही किसी पुरानी कॉपी से फाड़ा हुआ है बस नाम बदल दिया...

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  2. अरे सब में ये क्यों छोड़ दिया कि अलखि अपने भैय्या को चिरकुट भैय्या बुलाती है?
    गाँव का अपना आँगन याद आ गया...खास तौर से ध्वजा का जिक्र देख कर.
    बहुत ही प्यारी पोस्ट :)

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  3. Net ki speed bahut slow hai .....fir bhi comment kar rahe hain.....ye meri mahanta hai ...ab hindi mein likhne ka bhashan mat dena :-)

    waise ye image kahan se laaye ho aap? khud hi bana ke shot liye ho ya Alikhi ne banaya hai....Is se pata chalta hai ki sagar naam ka Prani apne type se hat ke bhi kuch cute sa kar sakta hai:-) In sab baaton se ye mat samajhna ke likhe ki tareef ki jaa rahi hain .......Ham to Alikhi ke liye likh diye ye sab....Bachchi hai jaanegi to khush ho jaayegi :-)

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  4. Bahut Majboor hoke comment kiye hain ....jaisa ki hidayat hai "कृपया कमेंट्स को अपनी बाध्यता या मज़बूरी ना बनाएँ" :-)

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  5. गाँव का आँगन,बंधी गैय्या ..और दो चोटी बांधे अलखि सब दिख गया ..

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  6. पैरा वाले नंबर ढूंढ रहे है कि कही से कोई चाबी हाथ लगे.. पर क्या तालो का खुलना भी ज़रूरी है.. फिर जो ये ज़रूरी ही होता तो लेखक ना खोल देता...

    सोचालय पर पढ़ी गयी अब तक की सबसे लम्बी पोस्ट.. क्या मैं सही हु मित्र ?

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  7. @ कुश कुटीर,
    अरे नहीं, तस्वीर बड़ा होने से पोस्ट बड़ा लग रहा है. जब लिखने का स्तर डाउन हो तो यह पैंतरा भी उठाना पड़ता है. आज कल के मैगज़ीन और अखबार को देखिये फोटू बड़ा और टेक्स्ट कम होते हैं :) खैर...

    मैं कह नहीं सकता दोस्त. शायद एक आध और भी हैं लम्बे पोस्ट. लेकिन यह सब उस पर निर्भर करता है कि हम कितने वेल्ले हैं.

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  8. @ प्रिया,

    फोटू खाकसार ने ही बनाई है प़र आदतानुसार जल्दबाजी में कुछ हिज्जे की गलतियाँ करना रह ही गया :) हाँ भूल में यह हुआ कि मकई का पेड़ रह गया (बालों वाला) :) पर आपलोग खुद्दे जब समझदार हैं तो फिर क्या बचता है.

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  9. शब्द बोलते हैं और बड़ा गहरा बोलते हैं।

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