Skip to main content

आ मेरी जान, मुझे धोखा दे

घंटों टेबल पर झुके रहने के बाद, अपने हथेली से उसने छुप कर ढेर सारी दयनीयता आंखों में डाली और आखिरकार सर उठा कर हाथ जोड़ते हुए बड़े की कमज़ोर लहजे में कुल छः शब्द कहा - मैं परमेश्वर से डरती हूं, प्लीज़। इन छः शब्दों में ढेर सारे चीज़े छुपी हुई थी जो वो मुझसे मांग रही थी। जैसे उसका खुदा मैं ही हो आया था जो उस पर उपकार कर दूं। यह एहसान उसे छोड़ देने का था। महबूब आशिक से अपने को छोड़ दिए की याचना लिए बैठी थी। दिखने में बैठी थी दरअसल वो हाथ जोड़े उल्टा लटकी थी। बड़े पद पर बैठी महिला एक कैजुअल के आगे प्रेम में छोटी साबित हुई थी। 

स्पर्श के लिए बीच के मेज़ की दूरी हमने कभी नहीं पार की लेकिन कभी कभार उसके कम्पयूटर की तकनीकी समस्या दूर करने, किसी विभाग के आला अफसरों के घुमावदार अक्षरों में किसी भी नतीजे पर नहीं पहुंचने वाली नोट को पढ़ने, एक्सेल की डाटा शीट को थोड़ा और चैड़ा करने। वर्ड की फाइल में टेबल की फाॅरमेटिंग करने के दौरान मैं उसके सिरहाने खड़ा हो जाया करता था। बाज लम्हे ऐसे होते जब सधे कंधों से चलने वाली और दिखने में पुष्ट सीना लिए उसपर एक पंखे की एक पंखी का गुज़रते हुए हवा का एक दस्तक, एक  उड़ती नज़र मार लेना होता। ऐसे में कुरते के तहो में जाती लाॅकेट वी आकार लिए एक खास गहराई तक जाती थी। थोड़ी बहुत तो दिखाई देती लेकिन उसके बाद कल्पना को थामे वो जगह सोच ली जाती। तब कुछ मुख्तसर से ख्याल यह उठते कि बदन की पतली दीवार के ठीक बार उस पार ऐसा क्या है जहां धमनी और शिरा नाम के दो मजदूर कोयला खदान के श्रमिक की तरह हाड़ तोड़ मेहनत कर ऐसा क्या पहंुचाते हैं जिससे वह रक्तिम लाल फल एहसास के इतना लबालब रहता है।। पता लगा कि वह एक उदास बदन वाली हंसमुख महिला है। यहां यह कैसी दीवार थी?

मकसद यह देखना नहीं होता देखना तो होता कि समाधान के बाद वह कैसे पुलक उठती है। जैसे मेट्रो में कोई प्रेमी युगल चहकते हुए एक दूसरे के सामने आ खड़े होते हैं और भीड़ के कारण तड़प कर एक दूसरे के गले नहीं लग पाते फिर उसकी प्रतिक्रिया एक दूसरे से बातें करते वक्त, उसकी नाक, भवें, आंखों की चैड़ाई, माथे की शिकन, पलकों का थरथराना, किसी इस्पात के राॅड को शिद्दत से टटोलना होता है। 

यह मन की प्यास थी, स्पेनिश सांढ़ की तरह बेलगाम। ताकतवर, गंवार और आवारा बैल।

ऐसा नहीं था कि उसे मैं पसंद नहीं था अथवा मेरी बातों में उसे कोई सुख नहीं मिलता था। फाइल बांधते वक्त गुदगुदे हथेलियों को देखकर जब भी कहा जाता - तुम जैसा कोई नहीं मिला इसलिए शादी नहीं की तो खिड़की पर टंगे टाट से सोंधी खुशबू आने लगती, तलवों के नीचे का फर्श थोड़ा और शीतल हो जाता और उसे देखते हुए जब चाय की सिप मारी जाती तो कैण्टीन की सादी चाय में इलायची का स्वाद आता... इतना तो पक्का था कि सातों दरवाज़े पूरी तरह बंद नहीं थे। हमें कमरा तो चाहिए होता है पर एक रोशनदान हो तो ज्यादा हसीन हो जाता है जहां से याद, अवसाद, चांदनी और ताज़ी हवा भी रिस जाया करता है। यह अलग बात है कि मौसम के सुविधानुसार हम उसे बंद कर देते हैं। निर्जीव चीजे जब चुपचाप स्पंदनहीन होकर धड़कती हैं तो बेइज्जती सहना उसका स्वभाव हो जाता है।

रस मिलते रहना अच्छा होता है, रसदार होना बुरा। रस में डूब कर उसे पीते पीते बीमार होना सबसे बुरा। और चाहत की पीक पर हाथ जोड़ना ! सबसे आसान, कठिन कर्म।

Comments

  1. आज लिखने का मन नहीं था लेकिन बड़े मन से लिखा है (अगर घटिया ही है, तो भी). तो मन नहीं होने से बड़े मन से लिखने की बीच की अवस्था का जिम्मेदार मैं नहीं हथकढ़ है जिसने ये बेचैनी दी. आप भी पढ़िए.. आ मेरी जान, मुझे धोखा दे की बुनियाद...
    http://hathkadh.blogspot.com/2011/07/blog-post_13.html
    बहुत शुक्रिया किशोर दा.

    चलते चलते, शीर्षक जावेद अख्तर के एक शेर की लाइन है.

    ReplyDelete
  2. इधर एक गज़ल बेहद पसंद आ रही है...
    आंखों को इंतज़ार का देके हुनर चला गया
    कोई समेट कर मेरे शाम-ओ-सहर चला गया
    तुम्हें ही कोट कर रही हूँ...क्या गज़ब का खाका खिंचा है यहाँ...दिल का ऐसा वर्णन कभी नहीं सुना...कभी नहीं देखा. ऐसा तुम ही लिख सकते हो...हैरान हुए जाते हैं इन शब्दों पर.

    'तब कुछ मुख्तसर से ख्याल यह उठते कि बदन की पतली दीवार के ठीक बार उस पार ऐसा क्या है जहां धमनी और शिरा नाम के दो मजदूर कोयला खदान के श्रमिक की तरह हाड़ तोड़ मेहनत कर ऐसा क्या पहंुचाते हैं जिससे वह रक्तिम लाल फल एहसास के इतना लबालब रहता है।। पता लगा कि वह एक उदास बदन वाली हंसमुख महिला है। यहां यह कैसी दीवार थी?'

    ReplyDelete
  3. लग रहा है मन से नहीं लिखा सिर्फ लिखने के लिखा है ...तुम्हारे सिग्नेचर मार्का बात नहीं है .(.सोच रहा था लिखूं के नहीं ).तुमने ही मेरी एक्स पेक्टेशन बढ़ा रखी है शुरू से .शीर्षक देखकर मुझे वो जावेद साहब ही याद आये था ...

    ReplyDelete
  4. मन तो पूरा का पूरा बेलगाम है, बहुत अधिक ध्यान दीजिये तो बहुत दाँय मचाता है।

    ReplyDelete
  5. ab hum kyaa kahen .... romance baandhtaa hai humesha

    ReplyDelete
  6. तुम लेखक और कवि ही नहीं IT Wizard भी हो? तुम्हारा कोई कसूर नहीं हथकढ़ पीकर मन को स्क्रीन पर ऐसे ही उड़ेला जाता है... पढ़ने वाले चित होकर ओंधे मुह गिर पड़ें... :-)

    ReplyDelete
  7. बहुत अच्छा है. बेबाक हो जाना कठिन कार्य है मगर ऐसे ही रहो. काश इसे कुछ जगहों पर एडिट कर लिया होता. कोयला खदान वाला तुलनात्मक उद्दरण किसी अपभ्रंश से भी कमजोर है. प्रेम के लिए कुदरत के नैसर्गिक बिम्ब ही मारक हो सकते हैं, मनुष्य जनित चीज़ें कठोर और सूखी होती है. मुझे यूं थोड़ा सुकून भी आया कि इस लिखे पर कोई बात कहने लायक बनी तो सही.

    ReplyDelete
  8. @ डॉ. अनुराग,
    "सोच रहा था लिखूं के नहीं"
    - संकोच कैसा ! यह जगह लिखने के लिए ही तो है.

    @किशोर जी,
    बहुत शुक्रिया.

    ReplyDelete

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार रच डाला. मनोरंजन प्रधान फिल्मों को व्यावसायिक सिनेमा के श्रेणी में रखा गया.             एक दीर्घकालीन संघर्ष के बाद स्वतन्त्रता के अभ

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष्टि से देखता है, यह बड़ी अजीब बात

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने   कलकत्ता का पहला सिनेमाघर एलफिंस्टन पिक्चर पैलेस   बनाया। यह सिनेमाघर आ