तुम कोई गीत गाओ। तुम कोई गीत गाओ ना। तुम गाओ ना कोई गीत, प्लीज़। मुझे बहुत बेचैनी हो रही है। शायद बिस्तर पर कराहते ये अंतिम दोपहर हो। मुझे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए। बस इतना सा संतोष कि तुम हो आसपास ही कहीं। तुम दिखो भी मत लेकिन बस इतना कि मैं मन लगाने के लिए कोई सिनेमा देखता रहूं तो सीफलएल बल्ब की रोशनी में तुम्हारी परछाई किचन में हरकत करती दिखे। परदेदारी का घर ही हो जाए। हमारा रिश्ता लक्ष्मण सीता सा ही हो जाए कि चेहरा देखे बिना जब भी पैर छूने झूकूं तो पायल की बनावट से तुम्हें पहचान सकूं।
इन दिनों आंखों में अदृश्य से आंसू आते हैं। कमी महसूस होते होते यूं भी लगता है कि आंसू चल निकले हों लेकिन हाथ फेरो तो गाल सूखे मिलते हैं। ऐसा भी लगता है कि बड़े से टेबल पर नंगे बदन लिटा कर मेरे छाती पर सुलगते कोयले पर धिपा हुआ आयरन रख दिया गया हो।
एक अरसा हुआ मेरे बदन के कपड़ों ने कल कल बहती पानी की धार नहीं रोकी और जो फुर्सत इन दिनों बगल से होकर निकल जाती है के जिसका चेहरा पहचाना हुआ तो है लेकिन जिसकी आंखों में इन दिनों ऐड़ी उचका कर नहीं झांक पा रहा हूं। ये बिस्तर ही मेरी जान ले लेगी जहां सदियों से बुखार में मैं तप रहा हूं। तुम्हें याद है एक बार तुमने कहा था बुखार में किया गया प्यार अलटीमेट होता है। है तुम्हें याद ? पूरी उमर मैंने इस बुखार में ही प्यार किया है।
आह ! पड़े पड़े ही मैं महसूस कर सकता हूं कि चापाकल के हत्थे पर हौले हौले दबाव पड़ रहा है और उसका वासर घिस कर भी लगातार पानी दे रहा है। मैं उठ नहीं सकता लेकिन मुझे लगता है इस घुन लगे शरीर में ही पूरा आंगन करवटें लेता है। नंगे बच्चे खेलते हैं, बेरोजगार देवर उलाहना सुनता है। सास से बहूओं को फरमान मिलता है कि आज मेले में जाने के लिए वे अपने बालियां ननद को दे दे। पूजा रूम के कमरे की रोशनदान से आती अगरबत्ती की सुगंध क्या खोजने निकला है ?
इतनी बीमारी के बाद भी शाम होते ही ऐसा क्या है कि मेरा जिस्म रूप, रंग और आकार बदल महकने लगता है और मैं किसी मज़ार पर का सूफी संत हो जाता हूं। इश्क की खंजरी बजती है और अपने जिस्म की अंतिम वसीयत में वैराग्य लिखता हूं। भेष बदल जाता है और खुदा से मिल जाता हूं।
तुम याद आ रही हो, नशे में... । जिसके छोटे अक्षरों में लिखे नाम से कन्फ्यूज्ड लड़की का चेहरा निकलता है। जिसके बाल बरसों से नहीं धोयी गई और कई शक्लों की मिट्टी और धूल से जिसके बाल बरगद की लटों जैसी बन आई है। तुम नंगे पांव तिरते तिरते चल रही हो आंगन आंगन। मैं रिसता रिसता मर रहा हूं अपने में समेटता आंगन।
मेरे होंठ टेढ़े हो रहे हैं...... तुम छत पर बेख्याली में उल्टे उंगलियों से धोए हुए गेहूं फैलाते हुए कोई गीत गुनगुना उठी हो।
मैं पीला खेत बन गया हूं और तुम किसान।
आप अपने मन के जिस कोने को सामने लाकर रख देते हैं, वह बहुतों के लिये कठिन है। प्रयास करता हूँ पर रुक जाता हूँ।
ReplyDeleteकितने दिन बाद ऐसा कुछ पढ़ा रे सागर...लगा जैसे गाँव में पुआल के टाली के ऊपर उधम मचा लिए हों...या गाय का नाद में सबका नज़र बचा के थाली का बचा हुआ खाना उझल दिए हों...या भोरे भोरे लीपे हुए आँगन पर पैर फिसलने से गिर गए हों...कैसे सोंधी मिटटी की खुशबू आती है रे तुम्हारे पोस्ट से की बीता...छूटा...बिसरा सब याद की नदी में मिलकर हिलोरें मरने लगता है. गंगा के पास जाओ तो कैसा मन में संतोष जैसा होने लगता है न...
ReplyDeleteनहीं नहीं...ये सिर्फ तुम्हारा लिखना नहीं हो सकता...ये एक आयाम है जिसमें से हमारे जैसे कई लोग सिर्फ इसलिए गुजर पाते हैं की ये हमने जिया है...देखा है...सपनाया है...हाँ मगर ये सबकी कलेक्टिव मेमोरी की ऐसी तस्वीर तुम ही बना सकते हो. क्या कहें कैसा मन कर रहा है...लिख नहीं पायेंगे शायद(अब तुम कहोगे इतने देर से कहे फ़ोकट में फुटेज खा रहे थे ;) )
Behad achha likhte hain aap....baandh ke rakhte hain!
ReplyDeleteऑडियो फ़ाइल अभी सुनी...कच्ची सी आवाज़ है, एकदम अनगढ़. सुनवाने के लिए शुक्रिया :) पोस्ट के लिए मुनासिब लगती है.
ReplyDeleteसागर तुम चोर की दाढ़ी में तिनका नहीं ढूंढते हो, कोई और भी नहीं ढूंढता, होता भी नहीं, पर फ़िर तुम्हारी पोस्ट को पढने के बाद पूछने का मन होता है. "बताओ मेरे कमरे में तुमने हिडन कैमरा कहाँ लगा रखा है? और वो कितना अडवांस है साला ?"
ReplyDelete@ पूजा,
ReplyDeleteतुमने ठीक कहा ये वैसा ही गाया हुआ है जैसे हम किचेन में बर्तन धोने या गेंहूँ सुखाते गाते हैं. गौर करो शीर्षक भी इसी तरह का है. राग बनाने में कहीं कहीं चूकता हुआ. वैसे इसे लय की समझ है लेकिन काम करते हुए ये टूटता है. यही अनगढ़ता सबसे खुबसूरत है. कुम्भ के मेले में हिमालय की तराई से निकले नागा साधू जैसे ओरिजनल और सबसे सुन्दर इंसान बेतरतीब लटों वाला...
उसने जितना संयत गाया दिल उतना ही बौराता है. और जब भी बौराता है इतनी ही, इसकी ही गुज़ारिश होती है.
और ये भी क्या कम सुकूनदेह बात है की कोई सिर्फ हमारे लिए गाये. अभी परसों एक ने फोन पर गाना सुनाया - सजना आ भी जा (सिबानी कश्यप).. उस दिन वो अपने फ्लो में थी. वो अच्छा नहीं गाती लेकिन उस दिन उन्हें कुछ हो गया था. दस प्रेम में एक प्रेम बड़ा सच भी होता है. होता है ना नयन मोंगिया भी पूरे करियर में एक शतक लगा जाता है !
ReplyDeletekya gahre utre ho sagar...jo kitab hoti kayee panktyon ke neeche pencil fir gayee hoti meri aur se.
ReplyDeletekamaal hai...ekdum..
ReplyDeletehttp://teri-galatfahmi.blogspot.com/
माझी का सागर है....सावन ये हमारा अबके तूफ़ान उठाएगा....!
ReplyDeleteअचरज है....खुशी भी...
http://www.youtube.com/watch?v=SFkHO6OKiYg
ReplyDeleteकुछ जगहों से लौट कर आना कभी मुमकिन नहीं होता है.