एक एरा जीने का मन होता है। कि जैसे उन्नीस की उम्र में श्री 420 देखे हफ्ता ही हुआ हो और बारिश से रिलेटेड कुछ फिल्मी और कुछ अपनी इल्मी दृश्य गंुथ रहे हों। मन निर्देशक और नायक दोनों हो चला हो। रही पटकथा लेखक की भूमिका तो वो बीत जाने के बाद किसी घोर विरह में निभाई जाएगी (जैसे कि अभी निभाई जा रही है)
तो बारिश ऐसी है कि हवा किधर से आ रही है आज अंदाज़ा लगाना मुश्किल है। पहले अंधड़ उठा, धूप छांव में बदला, फिर अंधेरा में, नारियल और ताड़ के पेड़ बड़े भोंपू की शक्ल में तब्दील हो गए। सड़क पर हवा के गोल गोल डरावने भंवर बनने लगे और लाइब्रेरी जाने के रास्ते में उस भंवर में सिमटते चले गए। लाइब्रेरी में कुछ खास नहीं करना था। कोर्स की किताबों को दरकिनार करते हुए आषाढ़ का एक दिन और धर्मवीर भारती को पढ़ते हुए दो यादगार प्रेम पत्र लिखने थे। प्रेमिका को इस सदी की सबसे महान और खूबसूरत खोज बताते हुए कुछ मौलिक इन्सीडेंट्स की याद दिलानी थी। परवाहों को किनारे रख कर अमर प्रेम करना था। पत्र में कुछ दृश्य यूं साकार कर देने थे कि लड़की अपना घर बार और हकीकत को भूल बैठे, हमारे पैरों की हवाई चप्पल तलवे पर कैसे घिसती जा रही है यह तो भूले ही साथ ही बाली उमर में मुहब्बत का वो दीया जला दिया जाए कि कोरी चुनरिया पर कोई दूजा रंग ना चढ़े और खुदा ना खास्ता चढ़े भी तो बस आपकी ही याद आए। क्योंकि सुबह सुबह ही किसी प्रेम पुस्तक में यह पढ़ा गया है कि हर मर्द चाहता है कि फलाना औरत उसका पहला प्रेम हो और हर औरत चाहती है कि चिलाना मर्द उसकी आखिरी मुहब्बत हो।
कि अचानक काले बादल घिर आते हैं, एक कचोट उठता है दिल में। सब छोड़ कर बाहर निकल जाते हैं। जाने कहां चलते जा रहे हैं। वही भींगते पेड़, लजरते पत्ते। टप टप गिरती बूंद। एक एक बूंद में प्रतिबिंबित समूची सृष्टि। दिमाग में ढेर सारे फिल्मी सीन। राजकपूर कैसी निश्छल हंसी। कैसी विनम्रता। काहे की चालाकी। मन पर तो सादगी से ही छाया जा सकता है हमेशा के लिए। अबकी मिलेगी तो माफी मांग लूंगा। मिलेगी ? कहां ? कैसे? किस तरह ? हम्म ! वक्त क्या हुआ ? साढ़े बारह में लाइब्रेरी से निकले थे। बहुत अधिक तो पौने दो हो रहे होंगे। उसके स्कूल की छुट्टी हो रही होगी। अभी एम जी रोड से उसकी बस गुजरेगी। दिखेगी क्या ? अगर खिड़की किनारे हो तब? चांस लेने में क्या जाता है। चलते हैं। खिड़की खुली होनी चाहिए बस। मैं तो कैसे भी पहचान लूंगा। वो मुझे देख पाएगी, पहचान सकेगी ? इतनी जल्दी में ? क्या फर्क पड़ता है, मुझे अपने मर्ज का इलाज करना है। यूं मारे मारे फिरते और इस हालत में देखेगी तो उसे दुख ही होगा।
बस गुज़र चुकी है। लड़के को एहसास भर ही हुआ है कि उसने उसे देखा है बस एक क्षण के लिए। निकलना, भींगना, चलना सफल रहा। एक पेड़ के नीचे बैठा है। सिनेमा के कुछ सीन फिर हावी हो जाते हैं। मीनार की छत होगी, अंधेरा होगा बस एक हाथ तक की दूरी तक दिखने जितना प्रकाश होगा। बारिश होगी। ठंड से कांपते हम दोनों होंगे। मुड़ी तुड़ी गीली सिगरेट होगी। थरथराते होंठों से उसको जलाने की कोशिशें होंगी। नीचे हर जगह पर हम कैमरा रख देंगे। क्लोज अप जहां इमोशंस लेगा, लांग शाॅट कविता के रूप में तब्दील हो जाएगी। यादगार सीन हो जाएगा। यही तो है सिनेमा। भोगा हुआ सच और कसक को पर्दे पर उतारना। जो नहीं हो पाया यहां साकार कर देना। और जो हो सकता है अधिकाधिक संभावना को दिखा देना। मरे और बुझे हुए हृदय में भी प्राण फूंक देना। आखिरकार प्रेम का संदेश देना। यही तो है सिनेमा। वाह राजकपूर वाह। तुम्हारे बहाने हम कितना कुछ सीख रहे हैं जान रहे हैं। मैं जानता हूं मुझे ये लड़की नहीं मिलेगा। जिंदगी इतनी भी फिल्मी नहीं लेकिन यह एहसास... ! इसका कोई जोड़ नहीं। प्रेम का कोई नहीं।
अब शब्द नहीं सूझ रहे। जिंदगी भी कैसी होती है न। अचानक मिली खुशी पर चहक उठते हैं और जब बहुत जतन से कुछ पाते हैं तो संतुष्टि दिल में अजगर की तरह पसरती जाती है। नहीं मिलता है तो कहने को कितना कुछ होता है- आंख भर आंसू के साथ ढेर सारी शिकायतें, बेशुमार बेचैनी, खारा समंदर जैसी जुबान, व्यक्तित्व में कसैला व्यवहार। मिल जाए तो बस एक शांत चुप्पी। बहुत अधिक तो खुदा के लिए भी - शुक्रिया।
कोर्स की किताबों को दरकिनार करते हुए आषाढ़ का एक दिन और धर्मवीर भारती को पढ़ते हुए दो यादगार प्रेम पत्र लिखने थे। प्रेमिका को इस सदी की सबसे महान और खूबसूरत खोज बताते हुए कुछ मौलिक इन्सीडेंट्स की याद दिलानी थी।
ReplyDeleteआप प्यार में जीते हैं? छिः... गलत बात सर
(Darpan Sah)
darpan...ab ye din aa gaye ki apni id se comment nahin kar rahe...galat baat sir :P
ReplyDeleteHaan Puja Don't know comment hi nahin hote pehle ke 2-3 comemnt bhi sagar ke wahan any-mouse se hi kiye hain. :)
ReplyDelete:) :) bade log bade log...moderate kar dete hain lagta hai :D
ReplyDeleteये गाने देख सिहरन हो जाती है, अब भी।
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