Skip to main content

Vomit



मन पर एक बड़ा भारी बोझ रखा है। मैं जी भर कर शराब पी लूं। अत्यधिक नींद की गोलियां खा लूं, तुम्हें बेतहाशा चूम लूं और इन सब में भी कहीं, कोई कमी रह जाए तो कलाई दुखने तक लिख लूं। मसलन आजकल चीन का रवैया ऐसा है कि अंटार्कटिका को भी अपनी ज़मीन का हिस्सा बता दे। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति कितने बेबस हैं, यात्रा ही करते रहते हैं। उनका देश क्या से क्या हो गया। उन बला की खूबसूरत पठानी औरतों को क्यों नहीं आज़ादी दी जाती ?  मैं जी भर कर लिख लूं। मन पर बड़ा भारी बोझ रखा है। 

आखिर हमारा स्पर्श इतना पराया सा क्यों है? क्या जो चीजें हैं उनके सामने होने पर भी मुझे संशय होता रहता है ? किसी भी चीज या घटना को सर्वाधिक महत्व देकर या फिर नगण्य मान ही तो चला करता हूं। स्वार्थ इतना कि अंजुमन में देर तक ठहाकों के इक्को सुनाई दे। आत्मा की एक भटकन होती है, जिस्म अपने अंदर एक बड़ा झाड़ू लिए घूमता है। रोज़ सुबह शरीर कई भागों में बंट जाता है और नियमित रूप से सारे शहर को बुहारता चलता है। सारी स्मृतियों को साफ-साफ कर देता है। दैनिक कार्यों में कितनी ही भूलें होती रहे लेकिन जो बुनावट की याददाश्त है उसकी धार कभी मंद नहीं पड़ती। बाबूजी कहा करते हैं - सुख जिसको कि कई बार भोग भी कहते हैं। तो भोग को तुम क्या भोगोगे, वह तुम्हें भोग लेगा। कैसा होगा वो दिन जिस दिन शराबी तो शराबी, शराब जैसी जैसी निष्पक्ष कौम से भरोसा उठ जाए ? क्या बचेगा फिर ? कच्चा भांग कहां मयस्सर है ? कल जिसका इंतज़ार अब होता नहीं और कल जोकि अब हो ही जाएगा। आज जितना बीतना था रीत चुका हूं। ज़हन में सबसे अपने खांचे हैं। सबका चेहरा गड्डमड्ड है। मैं एक रंगीन दुपट्टा पकड़ता हूं वो जाने कितनी हथेलियों से फिसलता निकलता जाता है। चढ़ते नशे का अगर दिमागी चित्र लिया जाए तो बहुत संभव है कि हल्की लाल पृष्ठभूमि में पुराने समय का लंबा चाौड़ा पोस्टर होगा जिसमें किसी कोने पर कोई किरदान या वक्त विलेन बना चेहरे पर गुस्सा लिए पिस्तौल ताने होगा। किसी कोने में मुठ्ठी भर भीड़ होगी। एक कोने पर अपनी ही प्रेम की कोई गुलाबी सी नायिका होगी। लेकिन इन सब के बीच से ठीक बीचोंबीच हमारा एक और चेहरा होगा। शायद यही होलसम जीवन होगा जिससे हम निकलते हैं, इन लोगों के बीच से। कभी चुपचाप से तो कभी आतंकित करते व्यक्तित्व के साथ। मैं जी भर का शराब पी लूं। मन पर बड़ा भारी बोझ रखा है।

मन पर बड़ा भारी बोझ रखा है। नींद की गोलियां खा लूं। आज तक हर गोली बड़ी तैयारी से खाई। फूल प्रूफ्ड प्लान के तहत। यह तैयारी मानसिक थी। दिखने के लिए तो बस दराज़ खोला था और एक घूंट पानी के साथ गोली उतर गई। लेकिन साहब आप तो चैन की नींद के लिए गोली खाते हैं न ? आखिर आप सोना चाहते हैं, बहोत लंबी नींद। क्योंकि सपने देखे कई दिन हो गए। क्योंकि मन के गांव में इतवार को बाइस्कोप लगाने वाला अब इधर का रूख नहीं करता और इस बायस अब सपना देखना खुद में एक सपने सरीखा हो चला है। तो फिलहाल गोली निगलने से जुड़ा आपका सपना, माफ कीजिए ख्वाहिश सिर्फ इतनी है तो मस्त नींद आए और कल जब उठें तो कालीन रूपी ज़मीन जो कि इंसानी कदमों की धूल से भारी हो गई है और जिसे सरकाना अब सिर्फ आपके बूते की बात नहीं रही, आप चाहते हैं कि वही ज़मीन कल घड़ी की सूईयों के तरह सरकता हुआ लगे। पार्क में लगे पौधे सफर करते दिखें, पेड़ों पर की जमी हुई हरियाली थोड़ी फिजां में भी घुला करे। एक छुपा ख्याल ये भी यहीं से अगर दुसरी दुनिया के लिए भी रूखस्त हो जाएं तो क्या बुरा हो ! तो इतना सोच कर जब वो दाना मात्र का ज़ालिक हलक के नीचे उतर जिस्म में घुलता है तो देखता क्या हूं कि बिडिल्ंग की पाइप के सहारे ऊपर चढ़ रहा हूं। क्या कोई माशूका से मिलने, किसी फैंटसी में रहने वाली राजकुमारी के कपड़े चुराने, खत पहुंचाने, चोरी से मिलने, पैसे छुपाने ? कहां, क्या, किसके यह कुछ नहीं मालूम। बस चढ़ रहा हूं। चढ़ रहा हूं इस उम्मीद में कि कहीं पत्तों के बीच छुपा होगा एक मटका। टप टप उसमें गिर रही होगी ठंडी ताड़ी! हाय रब्बा ! यह कैसी सोच है, यह कैसा ख्वाब है एक नशे से दूसरे नशे में उतरने का सपना !!! नींद की गोलियां खा लूं। मन पर बड़ा भारी बोझ रखा है।

मन पर बड़ा भारी बोझ रखा है। तुम्हें बेतहाशा चूम लूं। चूम लूं जैसे कोई कच्ची उम्र का बच्चा अपनी पड़ोस की लड़की को घर के आसपास ही छुप कर चूमता है। इस चुंबन में चूमने का रस ना हो बस सुनी सुनाई बातों, देखे हुए दृश्यों की पुररावृत्ति करने की कोशिश हो। बचपन कितना अच्छा था ! जब थोक के भाव चुंबन मिलते थे। कभी एक टुकड़ा इमली की के एवज में, कभी नींबू के अचार की शर्त पर, कभी उसके बदले मास्टर से मार खा लेने पर। जब सुख की परिभाषा नहीं जानते तो थोक के भाव अनजाने में मिलता है जब उसकी चाह में मारे मारे फिरो तो अकाल में सारस की सी स्थिति! तुम्हें बेतहाशा चूम लूं। मन पर बड़ा भारी बोझ रखा है।

मन पर बड़ा भारी बोझ रखा है कि चूमने के मुताल्लिक काफी कुछ लिख चुका हूं और लिखा जा चुका है। सदियों से यह फिर भी वर्जनीय है। एक बड़ा वर्ग है जो चूम कर आने के बाद इसका विरोध करते है। लिखना इस पर भी था लेकिन रह गया। जी भर लिखना, जी भर कर खेलना होता है। एक फुटबाॅल लेकर गोल पोस्ट के पास मन भर गोल दागना होता है। खुद से पैनेल्टी काॅनर लेना होता है। यकीनन गोलकीपर अदृश्य होता है लेकिन फिर भी उसे वहां मानकर छकाते हुए गोल करना होता है। जाल में गेंद का जा समाना अंतिम लक्ष्य होता है। हसरत यह होती है कि कौन सी गोल किस आकर्षक अंदाज़ में जाल में जा फंसती है। गोल कैसे दागा गया है जिंदगी भी तो ऐसी ही होती है, लोग जीने की कोशिश भी इसी तरह करते हैं। बात कोई भी कहीं भी करो जिंदगी से जुड़ ही आती है। लिखना सारी बेबसी के बाद का कदम है। यह ज़ाम खाली करने के बाद लुढ़का दिए जाने जैसा है। खूब सारा लिखना कै करने जैसा है। 

...तो कलाई दुखने तक लिख लूं। मन पर बड़ा भारी बोझ रखा है।

Comments

  1. आपको पढ़ना अपने हृदय के छिपे कोनों में एक बार पुनः घूम आने जैसा है।

    ReplyDelete
  2. क्या कहूँ? आपका लेखन निशब्द कर देता है...शब्द कौशल और भाव हर बार की तरह अप्रतिम...अद्भुत...

    नीरज

    ReplyDelete
  3. kya likhu kuch nahi pata......par sach mein man par bada bhari bojh rakha hai................. :-(

    ReplyDelete
  4. तुम इतने शब्द कहाँ से लाते हो सागर और उन्हें भावों में कैसे गूंथ देते हो कि मालूम ही नहीं पड़ता कि शब्द भाव के लिए हैं कि भाव शब्द के लिए.

    ReplyDelete
  5. मन का बोझ आत्मा पर भारी ना पड़े खुद को एक गुल्लक की तरह खाली कर डाला और पढ़ने वाले दब गए शब्दों और अर्थ के भाव तले...

    बचपन! थोक के भाव सुख का गोदाम! क्या बात है!

    ReplyDelete

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार रच डाला. मनोरंजन प्रधान फिल्मों को व्यावसायिक सिनेमा के श्रेणी में रखा गया.             एक दीर्घकालीन संघर्ष के बाद स्वतन्त्रता के अभ

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष्टि से देखता है, यह बड़ी अजीब बात

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने   कलकत्ता का पहला सिनेमाघर एलफिंस्टन पिक्चर पैलेस   बनाया। यह सिनेमाघर आ