मैं बहुत परेशान हूं। रोना आ रहा है। जब सारी उत्तेजना, खून का उबाल, गुस्सा, तनाव, निराशा और अवसाद निकल आता है तब व्यथित होकर आंख से थोड़ा सा आंसू निकलता है। कितना अच्छे वे दिन थे जब दिन-दिन भर आंख से निर्मल आंसू झरते रहते थे। कमरे में, पार्क में, मंदिर-मजिस्द में, आॅफिस में, किताब में... कहीं भी बैठ कर खूब-खूब रोते थे। कोई रोकने वाला नहीं था। आंसू भी तब बड़ा साथ देता था। पूरी वफादारी से निर्बाध रूप से झरता रहता था। रोने की भी कोई सीमा नहीं थी। कई बार रोते रोते दुनिया साफ दिखने लगती थी जबकि दुनिया की नज़र में अंधे हो जाने से अवगत कराया जाता था।
रोने के बहुत से कारण भी नहीं थे लेकिन जो दो चार थे उससे कई और कारण खड़े हो जाते थे। एक बार याद है कि रोते-रोते आंखों का रंग भावुक हो गया था। पिया जाने वाला पानी पिशाब में ना बदल कर आंसू में बदल जाया करता था।
दो-दो, ढ़ाई-ढ़ाई दिन लगातार रोना, भादो महीने की किसी शापित झड़ी की याद दिलाता था। रो कर फ्रेश हो जाते थे। बीच में जब संदेह होता कि क्या वाकई रो रहे हैं! तो नाक और गाल का छू कर जांच लेते थे। उंगलियांया फिर तकिया, दीवार, हथेली, बेंच, कालीन और पन्नों पर गीली हो जाए तो यकीन हो जाता था। रोते रोते खुशी मिलती थी। यह खुशी हंसी के रूप में नहीं बल्कि सुख और संतुष्टि के रूप में होती थी।
रोना कितना बड़ा सुख था ! एक मौलिक अधिकार। जो छिन गया है। पहले प्रेम करके रोते थे अब खीझ कर रोना चाहते हैं। पहले रोते थे अब जतन करते हैं।
क्या आने वाले दिनो में हमस सारे मौलिक गुण और अधिकार छीन जाएंगे ? ऐसे बेसिक अधिकार जो फिर से बच्चे में तब्दील कर देने वाला, जोश से फिर से जुट जाने वाला, पवित्र कर देने वाला... इस तरह का जादुई उपहार भी क्या हमसे छिन जाएगा?
क्या ठीक से रोना भूल गए हैं हमलोग ? जैसे बड़ों की हंसी में सूनापन, उसकी मनोदशा, खीझ, संताप, दुःख और निराशा का मिश्रण होता है, क्या वही उसके रोने में भी अब नहीं होता ?
रोना, रोना कहां रहा ? वह भी रोते रहेने में बदलकर उपहास का पात्र बन गया है। रोना स्नेहिल ना होकर ‘रोते रहने‘, टूेसू बहाने, दुखड़ा रोने, गाते रहते, आलापते रहने, रैया गाने आदि मुहावरों में तब्दील हो गया है।
मां तुम्हारी अलता लगी फटी ऐडि़यां याद आ रही है। एक किनारे से पैर की पायल भी झांक रही है। तुम बहोत सुंदर लग रही हो और अब तुम्हारी अमानत का माथा चूम कर रोते रोते मैं भी सुंदर हो जाने की प्रार्थना कर रहा हूं।
आँसू को प्रभावित कर पाना बड़ा कठिन है
ReplyDeleteमैं जिन पलों को पकड़ने में नाकामयाब होती हूँ ... वे यहाँ मिलते हैं
ReplyDeleteजब सारी उत्तेजना, खून का उबाल, गुस्सा, तनाव, निराशा और अवसाद निकल आता है तब व्यथित होकर आंख से थोड़ा सा आंसू निकलता है।
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कितना अच्छे 'वे दिन' थे जब दिन-दिन भर आंख से 'निर्मल आंसू' झरते रहते थे।
...अब 'निर्मल वर्मा' के 'वे दिन' भी आँखों मैं आंसू नहीं ला पाते.
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प्रेमिका कहती है कि तुम्हारे आस पास से नेगिटिव 'औरा' आता है (औरा से उसका तात्पर्य फेसबुक स्टेट्स से है.)
और तब आपका उत्तर होता है कि 'अंतिम अरण्य' पढ़ कर भी मैं जीवित हूँ, सोचो मुझसे बड़ा पोजिटिव एटीट्यूड किसका होगा? :-P
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मुझे लगता है कि रोना शायद सबसे पवित्र भावना है, लेकिन म. श्या. जोशी के 'गुमालिंग' कि तरह, आप 'रोने' तक नहीं जाते, 'रोना' आप तक आता है...
...हमने देखा है तजरुबा करके.
हथकढ पर ये पढ़ने को मिला...वैसे तो तुमने पढ़ा ही होगा पर यहाँ कोट करने का मन है...
ReplyDeleteजोर्ज़ बालिन्त की एक खूबसूरत रूपक कथा है. 'वह आदमी रो क्यों रहा था." रंगमंच या किसी उपन्यास में रुलाई उबाऊ और भावुकता भरा प्रदर्शन लगती है परन्तु सचमुच की ज़िन्दगी में रोना एक अलग ही चीज़ है. क्योंकि ज़िन्दगी में रोना वातावरण पैदा करने वाला भौंडा प्रदर्शन नहीं होता. जैसे सचमुच के जीवन में डूबते हुए सूरज की ललाई किसी पोस्टकार्ड की याद नहीं दिलाती बल्कि बेहद आकर्षक और रहस्यमयी लगती है. ठीक इसी तरह सचमुच के जीवन में शिशु का रिरियाना मोहक नहीं लगता बल्कि ऐसा लगता है मानो वह बहुत पुरातन कोई अदम्य आदिम व्याकुलता व्यक्त कर रहा हो.
रोना जैसे नमकीन पानी में नहाना ...रूह को ताजा और पाक बनाए रखना... दुनिया और भाग्य औरत पर मेहरबान हैं दोनों ही पुरुष से आंसू छीन औरत की झोली भरते रहते हैं ...इसलिए रोने और आंसुओं पर उनका जन्मसिद्ध अधिकार हमेशा कायम रहता है...
ReplyDeleteनादान लड़के कुछ पता है तुम्हें कि कल रात तुम्हारी दारुण पोस्टें पढ़ कर एक अभागा बेचारा अपने ही आँसुओं के स्वीमिंग पूल मे डूब कर मर गया है..तब से हालैंड की पुलिस डान की तरह तुम्हारी तलाश मे है..छुप जाओ कहीं..ये वार्निंग भी देनी है कि इतनी खतरनाक तरीके से उम्दा और रुलाऊ पोस्टें ना लिखा करो..सरकारी बैन लग जायेगा सोचालय पे!!!!
ReplyDeleteआपके लेखन में वास्तविकता है।
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