लिखने के लिए आज मैंने तमाम तरह के नुस्खे आजमाए। घंटों सूनेपन के कोलाहल में बैठा रहा। यू-ट्यूब पर कई तरह के आक्रामक और सेंटीमेंटल वीडियोज़ देखे। एक लाइनर के मुताल्लिक सोचा और सोच कर यह पाया कि सलीम जावेद ने अपने मेहनत और अनुभव के वन लाईनरर्स अमिताभ के मुंह से जब बुलवाया होगा तो कितना दर्द होता होगा! मीर, गालिब के शेरों को आधा पौना करके देखा। बचपन याद किया और चाहा कि स्मृतियों से ही उठा कर कुछ लिख टंटा खत्म करूं। और तो और मैंने अपने ज़ख्मों को भी च्यूटी काटी साहब कि कोई तो तड़पो, कुछ तो दुखो, तमाम तोहमतों, जिल्लतों, मान-अपमान-सम्मान को याद किया। अपनी तो अपनी गैरों की प्रेमिकाओं को याद किया। जब उनकी नर्म, गुदाज़ बाहों के बारे में सोच कर कुछ न बना तो बेवफाईयों को याद किया। वस्ल ने काम ना दिया तो विरह का दामन थाम लिया। किसी भोले, मासूम बच्चे की आंखों में भी झांक लिया। लेकिन सब के सब धरे रह गए। ऐन वक्त कोई काम ना आया और मैं खुद को उत्तेजित करने में असफल रहा।
सुबह पार्क में भी बैठा था, पेड़ों, फूलों, पत्तियों से नए और घिसे हुए मानी तलाश करने की भी कोशिश की। किसी बस के साथ-साथ तक दौड़ा। दौड़ा और खूब दौड़ा। इतना तेज़ दौड़ा कि दौडना पीछे छूट गया और अब बदहवासी में भागने जैसा लगा रहा। रफ्तार कुछ यंू हो गई कि मैं बस के कंडक्टर को देख रहा था वो हैरानी से मुझे कि यह कैसे संभव है! फिर ऐसा समय भी आया कि पैर पीछे छूटते गए और मेरी नज़र अपने रास्ते से ज्यादा बस के चक्कों पर टिक गई। उसकी घूमती टायर जो बस स्टाॅप से सरका था तो उस पर '
रालसन' और 'आईएसआई' का निशान दिख रहा था। हल्के हल्के दौड़ते हुए मुझे लगा मैं योग भी कर रहा हूं। मेरी नज़र तेज होती चक्कों पर भी रालसन और आईएसआई के निशान को भी देख रही थी।
अब मेरी रफ्तार इस कदर है कि मुझे उन पहियों पर कसे मोटे मोटे नट-वोल्ट नज़र आ रहे हैं। मेरे शरीर से मेरा दिमाग निकल कर उन पहियों के नीचे आ गया है जबकि मेरे पैर धीरे धीरे थम रहे हैं। मेरी मानसिक तरंगे उन्हीं पहिए के उसी पेंच में फंसती जा रही है। खोपड़ी से रील जैसा कुछ निकल रहा है जो छिटके धूप में थोड़ी थोड़ी चमक जाती है। कुल मिला कर मैं एक टेपरिकाॅर्डर में फंसा पुराना कैसेट हो गया हूं जिसकी रील अपने केंद्र से बुरी तरह फंस कर ज़ाम हो गई है।
मैं थकने लगा हूं। पैर बस घिसट रहे हैं। नट वोल्टों का भी अब तेज़ी के घूमते देखना अब बंद हो गया है। वहां कुछ स्टील जैसा है बस वो चमक रही है। बेतहाशा हांफते रहा हूं, दिल की धड़कन असामान्य हो चली है, शायद नापना संभव नहीं है, सामान्यतया मैं मुंह बंद करके दौड़ता हूं यह इस वक्त फेफड़े को किसी समंदर के उपर मंडराती जितनी हवा चाहिए। 'हांफना' नामक यह क्रिया मेरे नाक तो नाक, मुंह, आंख और कान तक से निकल रहा है। पिंजरे के नीचे और कमर के बची की खाली जगह पर जोरों का दर्द हो रहा है। मेरे दोनों हाथ वहां चले गए हैं। मालूम होता है किडनी अपने जगह पर नहीं रही। कहीं गिर गई है। मैं वो जगह ज़ोर से पकड़ दबाए हुए हूं।
मैं सांसों से भर गया हूं। किसी घाट पर हूं। किसी ने मेरी गर्दन को अपने बलिष्ठ हाथों से पानी में डालकर तब निकाला है जब जीवन की डोर टूटने ही वाली थी। दुःख होता है एकाकार होने के लिए इतना कुछ करना पड़ता है और ये होना इतना मुश्किल होता है।
हैरत की बात है लेकिन कि बस मेरे ज़हन में अब भी है। लेकिन आंशिक रूप से कम होती हुई। मन के एक पतली, बेहद महीन रेखा पर बाल भर सरकती हुई।
लिखने के स्तर पर भी यह सोच की यह सामानांतर पटरियां चलती रहीं। आखिरकार 'ओ. टेस्टेड' के तमगे से महरूम रहा और रेल के खाली डब्बे सा जंग पड़ी पटरियों पर किनारे लगा लुढ़का दिया गया।
दिल्ली की भागती सड़कें , थकान थकान सिर्फ थकान .... लिखने के लिए एक सुकून की तलाश
ReplyDeleteकितना कुछ माँगती है, यह कल्पना की नगरी..
ReplyDeleteये और पिछली कुछ पोस्ट पढ़ी. बहुत अच्छा लिख रहे हैं...
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