Skip to main content

याद पटना : एक सौ आठ डिग्री


काम से आज छुट्टी ली है। लिखना भी एक काम है। आज लेखनी जब फुर्सत पाती है के पन्नों से गुज़र रहा था तो सोचने लगा मेरा अतीत कितना लुभावना था! जबकि सुबह जैसे ही बिस्तर छोड़ा सबसे पहला यही ख्याल आया कि मैं वर्तमान अतीत को लिए चल रहा हूं बहुत पहले के अतीत को भूल चुका हूं। एकदम पहले के अतीत को नहीं। मेरा मतलब बचपन याद है। जवानी भूल गया और अब ये जिसे अब भी लोग जवानी कहते हैं और मैं अधेड़ावस्था ये जी रहा हूं। भूला क्या हूं ? तो दोस्त यार, कॉलेज, पटना यूनिवर्सिटी। गंगा भूल रहा हूं। रूपक सिनेमाहॉल की देसी एडल्ट फिल्में भूल चुका हूं। अप्सरा सिनेमा हॉल तो अब कहीं है ही नहीं स्मृति में।

वीणा वास्तव के कारण और पहली बार हार्डकोर एडल्ट फिल्मों के कारण जिसमें अंतिम के दस मिनट में सिलेबस के बाहर का शॉट के कारण छूट गए सामान की तरह याद करने पर याद आ जाता है। महिलाओं, लड़कियों के हिमायती अशोक अलबत्ता याद है। उसकी इमेज शाहरूख और शाहिद के चोकलेटी छवि जैसी थी। सिनेमाहॉल में जिन लड़कियों पर लाइन मार रहे होते, फिकरे कस रहे होते कि देख अभी शाहरूख काजोल को चूमेगा वही टिकट खिड़की पर डी सी लेने के वक्त बहन और दीदी बन जाती। रीजेन्ट का समोसा भी भूल गया। एलिफिंस्टन जबकि हॉट स्पॉट था, फिर भी उसे कभी सिनेमाहॉल नहीं माना। पर्ल तो पैदा होने के पहले से ही बंद था। उसे बंद देखने की आदत लग चुकी थी। हमें कुछ दरवाज़ों को बंद देखने की आदत लग जाती है, बावजूद हम वहां से गुज़रते वक्त उसे एक नज़र देख लेते हैं। देखना क्या एक उम्मीद है जो हमारे अंदर एक अप्रत्याशित चीज़ से गुजरने की लालसा छोड़ता है? कुछ दरवाज़े बरसों बंद रहते हैं और कई बार हम उस बंद के आगे खुलते हैं। ईश्वर की मूर्ति आंख खोलकर नहीं देखती इसलिए हम उसके आगे बहुत तरह के उपक्रम करते हैं।

मोना बिल्कुल याद है। मैट्रिक्स के हीरो की तरह। सुफेद पत्थर पर लगे दस हाथ के पोस्टर की तरह कि जब भी साइकल या रिक्शा कोलिज के लिए गुज़रता आंखें अपने आप पोस्टर की तरफ उठ जाती जिसके सेंटर में खून में नहाया हीरो रिवाल्वर ताने खड़ा है। एक साइड में विलेन की अराजकता है। एक कोने में विधवा मां को वचन देता नायक है, एक कोने में बार डांसर का आइटम सांग का दृश्य जिसमें उसके कसे डीप कट चोली में से गहरी कटान लिए उभार दिख रहे हैं। एक बलात्कार का दृश्य है और पोस्टर का चालीस फीसदी हिस्सा वो है जो नायक की मंजिल की तलाश के बीच की हमराही है। कई बार लगता इस एक्सट्रा को जांघों तक ही साड़ी रखने का काम मिला है।

रूपक सिनमाहॉल में लगे फिल्मों के दृश्य हास्यास्पद होते थे। कई बार एडिटिंग की गलतियां इस तरह होती कि सीन में शूटिंग के सामान और टेक्नेशियन के कमांड तक आ जाते थे। बेन सीड इस कदर बोरिंग हुआ करता कि उक्त दृश्य के हीरो और हीरोइन एक दूसरे ही इस कदर शर्मिंदा रहते कि दोनों की आंखें बंद रहती। चूंकि ये फिल्में पोर्न नहीं थी इसलिए हालत और भी बुरी होती। सीन का हीरो इस कदर मजबूर होता कि साऊथ इंडियन हिरोइन के मांसल होठों, गले, गर्दन, पेट, पैर और जांघों पर ही घूम फिर कर आना होता। बैकग्राउंड म्यूजिक ऐसा होता मानो म्यूजिक डायरेक्टर हारमोनियम या पियानो पर बैठ कर उतरना भूल गया हो। कई बार दोस्तों की खातिर सर में अमृतांजन लगा कर बैठे रहना पड़ता।

उमा मुहब्बतें की तरह एममात्र फिल्म के लिए बस दिमाग पर जोर डालने पर याद है। बहुत याद है आम्रपाली अधूरी फिल्मों के कारण, सड़क पर घुटना भर पानी हो तो इस लालच में जाना कि आज ही रिलीज हुई सिर्फ तुम के टिकट मिल जाएंगे। और जो अमीर दोस्त मोना या रीजेन्ट के मुस्टंडे भीड़ कंट्रोलर से लाठी खाते हुए, पच्चीस रूपए की टिकट डेढ़ सौ में लेते हुए तीन बजे अपनी हीरोगिरी छांटेंगे तो हम दस रूपए में साढ़े बजे ही अपनी रिपोर्ट दे रहे होंगे। कोलेज भी हो लेंगे और घर जो कि उन दिनों गेहूं भी पिसवाने निकलता तो मां बाबूजी जोड़े में धमकियाते कि सिनेमा देखने गया है, उनको शक भी न होता। वो तो मेरे बाबूजी की हैसियत नहीं थी वरना वो मेरे लिए कोलेज और कोचिंग तक घर में ही खुलवा देते। लेकिन जब आपको बिगड़ना ही है न शिव खेड़ा की यू कैन विन आपको रोक सकती है  न स्वेट मार्डन। रिच डैड पूअर डैड हम जैसों को कभी जिम्मेदार नहीं बना सकती।

दिल्ली में काम करने के दौरान जो सिनमा देखी तो उसमें कोई रोमांच नहीं है। पटेल नगर के कमरे से हाफ पैंट और टी शर्ट में निकला और सत्यम मल्टीपलैक्स में जाकर बैठ गया। समझदारी अब इतनी आ गई है कि हिंदी सिनेमा के साथ बहुत कम बह पाता हूं। अंग्रेजी आती नहीं सो ज्यादा ऊंचा नहीं कूद सकते। बीच में यार दोस्त की मेहरबानी और माऊथ पब्लिसिटी से ईरानी, कोरियन, चीनी, जापानी सिनेमा देख कर उस पर रीझ जाते हैं।
तो ये सिनेमा इंद्रियों को संदेवनशील तो बना रही है लेकिन इसे देख कर दिमाग भी स्लो हुआ जाता है। इन कुछ फिल्मों में कई जगह लगता है सिनेमैटोग्राफर कैमरा रख कर उठाना भूल गया है और कैमरा ही दिमाग है सो वैसा ही मेरा दिमाग भी हुआ जा रहा है।

जवानी ठीक था। शहर के साथ साथ सिनेमा देखने की जद्दोजहद में जीवन की रॉ फुटेज से भी दो चार होना पड़ता था। लोहार को काम करते देखते, वेल्डिंग मशीन, साइकिल की नाचती रिम, पंक्चर चेक करने के लिए पानी कठौत की काली पानी में टेस्टिंग, बातों में ढ़ेर सारी गालियां, गालियों के हतप्रभ कर देने वाले विचित्र बिम्ब, दोस्तों के फैंटेसी, पुलिस जिप्सी से छिपते हुए वीमेंस कॉलेजों के चक्कर, इप्टा के नुक्कड़ नाटक।
बीबीसी उर्दू सुनते हुए उसे कॉपी करने की कोशिश करना - /ढ़ोलक की थाप/

'ये बीबीसी लंदन है। उदू नस्रियात की पहली मजलिस में जहांनुमा पेशे खिदमत है। इस वक्त पाकिस्तां में सुब्हो से साढ़े छै, भारत में सात, बांग्लादेश में साढ़े सात और यहां लंदन में ग्रिनह्व्चि में रात का डेढ़ बजा चाहता है। और अब पेश है इस वक्त की आलमी खबरें....'

आज शनिवार रात को ऑनलाइन बुकिंग टिकट करवाते हैं इतवार को जाकर हाफ पैंट में ढ़ेर सारे एक्सक्यूज मी, थैंक यू, ओह शिट, ह्वाट ए फकिंग मूवी के साथ देख आते हैं। लगता ही नहीं कि सिनेमा देखा। हिंदी सिनेमा तो बीच के कुछ महीनों में एक टुच्ची सी चीज़ में कन्वर्ट हो जाती है।

स्मृति में दानापुर का डायना सिनेमाहॉल है। शाम ढ़ले क्रिकेट का मैच हार कर जब हम जबरदस्ती सस्ती सब्जी लेने दीघा पठाए जाते तो मुसहरी और बिना प्लस्टर की दीवारों पर ठोके गए गोयठा (उपले) के बीच आने वाले वहां हफ्ते में लगने वाले फिलिम को साइकिल का स्टैंड लगाकर ध्यान से पढ़ रहे होने का जिक्र आता है। वहीं ठीक बगल में इस हफ्ते हमें मूर्ख बना दिए गए फिल्म का पोस्टर लगा रहता जिसकी हेडिंग चल रहा है, शान से का होता।

उन दिनों दानापुर साइकल से पच्चीस मिनट का रास्ता था और सिनेमा के पैसे घर से मिले एक किलो आलू के लिए पैसों में से साढ़े सात सौ ग्राम लिए जाने की मार्जिन से निकलते। पांच किलो आटे में से आधा किलो बेच देते तो एक समोसे का हिसाब निकल आता। दीघा में ही एक अन्य अतिनिम्न दर्जे का सिनेमाहॉल जिसका नाम अब याद की सिलेबस से पूरी तरह बाहर हो चुका है वहां जोहराबाई और हीराबाई सरीखा फिल्म लगा करता।

और याद में इतना ही दर्ज है कि पहली बार बड़ा हाथ तब मारा जब यह प्लान किया कि गर्लफ्रेंड को ऐसे रीझायेंगे कि  हां कह ही देगी। पहली महंगी गिफ्ट में एक माऊथ ओर्गेन, आर्चीज़ से एक लॉक होने वाली जिंस के कपड़ों में घिरी डायरी के लिए मैट्रिक में कैमेस्ट्री के प्रैक्टिकल के नाम पर पैसे मारे थे इस दलील पर कि यह भी कैमेस्ट्री बनाने के लिए ही जद्दोजहद की जा रही है।

सवाल उठता है कि आखिर किससे हम इश्क कर रहे थे ? क्या सिर्फ एक लड़की से?
 




*****
Copy to :

जेनुइन नज़र रखने वाले मेरे सभी आवारे दोस्त.

Comments

  1. चलिए हम याद दिलाए देते हैं दीघा का दूसरा सिनेमा हाल अल्पना था। एक ज़माने में दो रिक्शों में हमारा परिवार वहाँ बलम परदेसिया देखने गया था। आठवीं से इंटर तक तो सिनेमा हाल में जाकर देखा नहीं और उसके पहले हम सब साथ ही जाते रहे। एलिफिस्टन में मंथन, मोना में कुर्बानी, वैशाली में घरौंदा, पर्ल में हम पाँच, अप्सरा में दुल्हन वही जो पिया मन भाए और अशोक में देखी गई नदिया के पार की स्मृतियाँ अभी तक परिवार की साझी स्मृतियों का हिस्सा है। रूपक, वीणा और रीजेंट में भी जाना होता रहा पर कोई ढ़ंग की फिल्म वहाँ देखी हो ये याद नहीं आता।

    उर्दू सर्विस का आरंभिक वाक्य सुनाकर आप मुझे सीधे तीन दशक पीछे ले गए।

    ReplyDelete
  2. Digha wale cinema hall ka naam hai "Alpana" jaha dharm paaji, mithun paaji ke alawa adult filme lagti hai

    ReplyDelete
  3. Digha wale cinema hall ka naam hai "Alpana" jaha dharm paaji, mithun paaji ke alawa adult filme lagti hai

    ReplyDelete

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार रच डाला. मनोरंजन प्रधान फिल्मों को व्यावसायिक सिनेमा के श्रेणी में रखा गया.             एक दीर्घकालीन संघर्ष के बाद स्वतन्त्रता के अभ

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष्टि से देखता है, यह बड़ी अजीब बात

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने   कलकत्ता का पहला सिनेमाघर एलफिंस्टन पिक्चर पैलेस   बनाया। यह सिनेमाघर आ