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अक्ल के मदरसे से उठ इश्क के मयकदे में आ


अक्सा: उमरा, तू इज़हार क्यों नहीं कर देती ?

उमरा: उसकी जरूरत है क्या ?

अक्सा: दुनिया बड़ी तेज़ है री, अपना सामान ना छांको तो किसी और हो जाता है। मेरी देख, मैं इंतज़ार ही करती रह गई।

उमरा: तो मैं भी कर लूंगी, ऐसी मोहब्बत किस काम की कि कहना पड़े..... तकरीबन रोज़ ही तो मिलना होता है उससे....जिसे आंखें पढ़ना न आए उसके लिए जिंदगी भर आंखों में इंतज़ार ही सही।

अक्सा: उफ्फ! यही तो हमारी गलती है उमरा, हम इश्क में बहुत जियादा ही कुछ दाना होने लगते हैं। हमारी हरकतें तो नादान हो हुई जाती हैं मगर एहसास के पैमाने पर जज्बात यकायक चार दरजा ज़हीन हो जाता है।
उमरा (जैसे अक्सा के बयान से गुम हो): ये सब मैं कुछ नहीं जानती.... (चहककर) तुम्हें पता है, हम दोनों का नाम बहुत छोटा है, बस कुछ हर्फों का ही हेर फेर है बस। कल को अगर फिलम वाले कोई गैरज़बान में सनीमा बनाएंगे तो जहां जहां हमारा नाम आएगा उनको डबिंग और लिपसिंक करने में कोई दिक्कत पेश  न आएगी।

अक्सा (चिढकर): और तुम दोनों इस तरह लोगों की जबान में एक दूसरे को पा लोगे। हाय मैं मरी जाऊं, ज़हनी तौर पर पैदल हो गई हो क्या तुम, बौराई ही जा रही हो। (चंद लम्हा रूककर) अब कहोगी, हम दोनों को एक ही तरह के रूमाल पसंद आते हैं, वो भी मेरी तरह मोटे सफहे पर लिखना पसंद करता है। दरगाह वाले पीर की ज़बान उसे भी जंचती है। गली में नफीस तलफ्फुज से उर्दू बोलने वाला फराज़ उसका भी पसंदीदा है। अल्लाह! गोया मुहब्बत न हुआ, सगुफ्ता और फिरोज का ऊंचे जबान में अफिल बे ते से का झगड़ा हो गया।

उमरा: जितनी तू जबान की तेज़ है न अक्सा काश दीगर मौंजू में भी होती ! लेकिन यहां तो पलटकर मुझे ही फलसफे सिखला रही है।

अक्सा (बात काट कर): एक मिनिट उमरा बेगम, फलसफे मैं नहीं तू दे रही है, मैं तो वही बता रही हूं कि अगर तेरा उस पर दिल आया है तो वक्त रहते उस पर अमल कर, मैं तो सलाहितें दिए जा रही हूं और तू है कि मुझ पर ही चढ़े आ रही है। क्या मेरा दिमाग खराब है? मुझे गली की वो.....उस.... दाद लगे, रोएं झड़े...... वो तेरा मनपसंद रूस्तम कुत्ते ने दांत लगाया है ?

उमरा (आंखों में प्यार भरकर): ऐसा नहीं है री। आजकल मेरी बातों का बुरा न मान। मेरे कहे और किए पर आजकल मेरा खुद अख्तियार नहीं रहता। कान पर पेंसिल रखकर सारा घर बौराई फिरती हूं, जब सब जगह खोज लेती हूं और थक कर बैठ जाती हूं और सर खुजलाते हुए याद करती हूं तो टक से पेंसिल गिर पड़ता है। (पास आते हुए) तू तो मुझसे कहीं जियादा अक्लमंद है
(शब्द के उलट दिमाग पर उंगली फिराते हुए फिर अक्ल और मंद को वाजिब वक्फे से अलग करती है)

/अक्सा अपमान में चिढ़कर घुटने के पास उसे हौले से एक लात जमाती है, बदले में उमरा झपटकर उसे पीछे से पकड़ लेती है। दोनों बाहें उसे गले में डाल उसकी पीठ पर लरज आती है, दोनों के गेशु खुले हैं और थोड़ी दूर से देखने पर बरगद के नीचे पीपल नज़र आता है।/

उमरा (ज़ारी....): हाय कसम से मेरी जान! तू तो बिल्कुल सौंधा सौंधा महक समेटे भुट्टा है, कोई भी दाना दाना चख ले तुझे। बख्शी साब ने शोले में डोर से पतंग जब टूट जाती है तो रूत रंगीन हो जाती है, यह तुझे ख्याल करके ही लिखा होगा। (अक्सा हौले हंस देती है, भुट्टे के दानों की तरह होठों से बीच से उसके दांत हल्के बाहर झांकते हैं) हाय! शरमा गई।

(उमरा, अक्सा के सीने पर हाथ रख देती है, अक्सा की सांसें नामालूम कितना आशारिया कितना तेज़ धड़कने लगती है)

उमरा: हाय ये तो बहुत जोर से उठ और गिर रहा है, लगता है जैसे कोई अंदर से बाहर आने वाला है।

(अक्सा देर तक उसका हाथ वहां सहन नहीं कर पाती और झटके से हटा देती है)

(वह उठती है और अपने बालों को बांधने लगती है)

अक्सा (एकदम से गुस्से में) : उमरा, खबरदार मुझे ऐसा मज़ाक एकदम अच्छा नहीं लगता। वो तो तुम हो, इसलिए एक बार मुआफ किया, कोई और होता तो मेरे हाथों आज कत्ल होना ही था।

उमरा  (गंभीर होकर): सच अक्सा ! सच को झूठ के जामे में मत पहनाओ अक्सा। अपने बेजायकेदार जिंदगी का गुस्सा मेरे ऊपर न उतारो। साफ क्यों नहीं कहती तुझे ऐसा पड़कने वाला कोई तेरे पसंद को कोई नहीं है। गुस्सा तो तूने कर दिखाया मगर तुझे मेरे इस हरकत का गुस्सा नहीं है, यह कहीं और का बादल है तो तू बहाने से मेरे ऊपर जबरदस्ती बरसा रही है।

अक्सा: तू जो भी समझ ले, मेरा उस पर ज़ोर नहीं

उमरा: इसमें जोर जबरदस्ती की बात ही क्या है। देख अपनी हालत देख, यार दोस्त से भी तू अब बचने लगी है, बहाने करने लगी है, झूठ बोलने लगी है, परदा करने लगी है। देख अक्सा मैं तुझसे मुंह नहीं फेर सकती। मैं भी तुझ जैसी ही हूं। मगर दो घड़ी को अगर किसी बहाने से तेरा दिल बहला दिया तो तू गुस्सा हो जाती है। हर जगह अपने गुस्से को बीच में क्यों ले आती है। मैं भी जानती हूं मेरा हश्र भी तुझ जैसा ही होगा। तू  मुहब्बत में रहना सीख न मेरी तरह। इससे उबरेगी तो सिर्फ कड़वाहट होगी। यह सोचकर मैं भी कांप जाती हूं। क्यों न इसी में रहा जाए। क्यों न हरेक चीज़ से दिलजोई की जाए। किसी एक के क्या बनना, सबका बन के रहा जाए। ग़म में भी रहा जाए और उससे खुद ही उबरा जाए। सोसाइटी की सबसे दिलफरेब औरत भी दुनिया से जाने के बाद कई दिलों को एक पाक सनीमा की तरह पाक पैगाम दिए जाती है। और एक बार याद रख.... जो भी इस दायरे में रहता है न जिंदगी के सनीमा में वहीं सच्चा कलाकार होता है।

/उमरा उठती है, सूट के घेरे को फैलाते हुए चारों ओर घूमती है/

उमरा: हवा की तरफ बहता।

/उमरा एक पैर उठाकर बदन को मोर सा बनाती है/

उमरा:  नदी की बहती हुई।

/उमरा अपनी कमर को तानकर दरख़्त बनाती है और गर्दन और हाथ को ढ़ीली छोड़ देती है।/

उमरा: पेड़ की मजबूत बुनियाद और उसकी शाखों की तरह लचीली।

अक्सा फटी आंखों से सबकुछ देखती है। 

***
लेकिन कहां हो पाता है आदतें ओढ़ना सबसे ? 


Comments

  1. shukriya. is tez raftaar to khuda bhi duayein nahin kuboolta.

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    1. Naa phool, Naa Patti.... phir bhi Aapka swagat hai.

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