बहुत सारा प्यार करने के बाद यूं अचानक लगता है कि जैसे अब प्यार नहीं कर रहे हैं। अब अपने अंदर का अकेलापन किसी से सांझा कर रहे हैं। कि जैसे एक समय के बाद ये बड़ी वाहियात शै लगती है। लगता तो ये भी है कि प्यार नहीं होता ये बस आत्मीयता, घनिष्ठता उसके साथ में सहज लगना, अपने मन की बात को बेझिझक उसके सामने रख देने की बेलाग आज़ादी, फलाने की आंखों में अपने इंसान भर बस होने का सम्मान वगैरह वगैरह में बंट जाती है।
कल रात यूटीवी वल्र्ड मूवीज़ पर एक सिनेमा देखा। ए गर्ल कट इन टू। विश्व सिनेमा बस उस बड़े फलक को महसूसने और सिनेमैटोग्राफी के लिए देखता हूं। कम लोग हैं जिनके लेखन के शब्दांकन और उसका फिल्मांकन पर्यायवाची हो सकता है या कागज़ पर है।
कथित फिल्म की नायिका एक टी.वी. कलाकार है और एक 50 साल के लेखक से प्यार कर बैठती है। मुहब्बत भी अजीब शै है साथ ही बौद्धिकता भी। अपनी जवानी निसार कर रहा एक जूनूनी लड़का उसे प्रोपोज कर रहा है लेकिन उस लेखक का भेजा महज एक बुके उसे अंदर से रोमांचित कर देता है। वह सब कुछ छोड़कर भागी भागी उसके पास जाती है। यहां बिस्तर साझां करना कोई शर्त नहीं।
कहानी के बीच में थोड़ा विराम देकर मैं खुद को वही खूबसूरत नायिका मान यह सोचने लगा कि अगर मैं एक उन्मादी और समर्पित संभोग के बाद इस अतिबौद्धिक लेखक के सीने के बालों में उंगलियां फंसाए किस ख्याल से गुज़र सकती (याद रहे मैं नायिका) हूं।
कहानी पर आते हैं। ये प्यार के शुरूआती और जीवन के गुलाबी दिन हैं। मगर अच्छी स्क्रिप्ट भी लाइफ की तरह ही होती है। सच तो ये है कि इसकी स्क्रिप्ट नहीं होती मगर इतना तय होता है कि आदमी थोड़े दिन बाद कभी असुरक्षा का शिकार होकर या कभी समझदारी से क्या खोया- क्या पाया का हिसाब किताब लगाने बैठ जाता है।
बहरहाल, अतिमृदुभाषी लेखक जोकि शादीशुदा है वह नायिका से शादी करने से मना कर देता है। हालांकि वह उस लड़की से प्यार करता है। कुछ इस तरह कि तुम्हें सार्वजनिक रूप से अपना नहीं सकता मगर तुम्हें किसी और का होने भी नहीं देना चाहता है।
नायिका से झूठ बोलकर जाने वाला लेखक बाथटब में रेडियो पर उस टी.वी. कलाकार नायिका की जल्दबाज रईस युवक से शादी की खबर सुनता है। शादी वाले दिन वह लड़की के घर पहुंचता है। और फिर से वही सब कुछ शुरू करने का प्रस्ताव रखता है। लड़की उसे एक आम समझ वाली आदमी के रूप में बुरी तरह ज़लील करती है, और गेट आऊट कहती है, जो दर्शकों के अपने मन की बात है।
इन सब के बीच दृश्यांकन बहुत खूबसूरत है। शहर में ट्रामों का गुज़रना, पाॅलिस्ड वुडेन कलर के बीच किताबों की नीलामी के दृश्य। लड़की और सुलझे हुए लेखक के बीच के दृश्य। अगर हम पागल हैं और देर सवेर हमें इसका एहसास हो ही जाता है। अगर हम अव्यवस्थित हैं तो हम एक सुलझी डोर खोजते हैं। अगर हम मानसिक असुरक्षा या किसी भी तरह के असुरक्षा के शिकार हैं तो साथी में अपना सब कुछ उड़ेलकर उससे भी वैसा ही आऊटपुट चाहते हैं। जिंदगी यहीं कटु, सच्ची और अनस्क्रिप्टेड हो जाती है। फिल्म की तरह असल लाइफ के किरदारों में भी आम और परिपक्व समझ में झगड़ा है। ऐसे में ही कुछ दिन पहले अपनी ही एक महिला दोस्त की बात याद आ रही है जो अपने पति से कई दिनों से मन न मिलने के बायस बिस्तर पर एक रात कह उठी कि - जब शरीर से चिपकते हो तब सोचते हो कि मन और दिल से भी हमें वैसे ही मिलना चाहिए। ये कैसा रिश्ता बनाते हो कि अपना मन और स्वभाव को झगड़ने के लिए बचा कर रख लेते हो और शरीर परोस देते हो?
ज्यादा टी.वी. और सिनेमा नहीं देखता सो मैं पूरी फिल्म नहीं देख पाया।
और तमाम उठापटक के बाद सुबह से इस ख्याल से गुज़र रहा हूं कि प्यार से बड़ा कोई पाॅलिटिक्स नहीं है।
(शीर्षक चार्ली चैपलिन की उक्ति है.)
चलो ऐसा करते हैं कि हम दोनों दो अलग अलग कमरों में बंद हो, अंधेरे में एक दूसरे को आवाज़ दें।
ReplyDelete---
और ऐसा करते हुए यकीन करें कि शाम तक साइडबार में आपका लिंक चमक जाएगा. सबसे ऊपर. होता है ऐसा भी.
मन की गुत्थियाँ अनसुलझी है, कुछ तो और उलझ जाने के डर से उन्हें सुलझाना ही नहीं चाहते।
ReplyDeleteआजकल आने जाने खोने पाने से कौन डरता है बस सब अपने ही मन की करते हैं |
ReplyDelete