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कोई समझा कर घर ले आए हमको

मैं घर से भागा हुआ वो आदमी हूं जो गुस्से से भागा था। जाते समय के साथ मैं गांव की तरफ और सरकता जा रहा हूं। वहां के रहन सहन सोच पर और हावी होती जा रही है। अपने तरफ की बोली-भाष कान में शहद घोलती है। इस बेरूखी और बनावटी दुनिया में पुकार का सम्बोधन मात्र दिल को झकझोर देता है। जिस दिन वहां से चलने के लिए ट्रेन में बैठता हूं तो एक मायूसी छा जाती है। मन बैठने लगता है। उत्साह मुर्झा जाता है। एक मुर्दानगी छा जाती है। रेलगाड़ी अपने रास्ते पर बढ़ती है और मैं यह सोचने पर मजबूर हो जाता हूं कि घर छोड़कर ठीक कहां किया? ऐसा क्यों है कि यहीं खुद को पूरा पाता हूं। हम साला लोअर मीडिल क्लास लोगों के लिए समाज में सर्वाइव करना और भी मुश्किल है। बीच के रास्ते ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा। ऑटो चला नहीं सकते, कचरा उठा नहीं सकते, पढ़ाई एक बोझ है जिसके लिए मां बाप से पेट काट-काट कर जैसा भी पढ़ाया। अंधविश्वास और प्रगतिशीलता का चंवर डुलाता यह समाज अपने आप ही मुग्ध है। लानत है ऐसे समाज पर जो अब तक पाप-पुण्य और अच्छे बुरे के दलदल में लिथड़े हुए कीड़े की तरह रेंगते हुए विकास के दंभ में जी रहा है। असल में लोअर मीडिल क्लास एक भौंडी सी खुद को परिभाषित करती हुई सी गाली है जो जैसा है उसे मेंटेन रखने के लिए, इज्जत बनाए रखने के लिए जी रही है। 

 कभी कभी लगता है मैं नहीं सक सकता यहां। जबरदस्ती यहां बना हुआ हूं। खुद को साबित करने का जैसे एक दबाव है। ये जगह मेरे लिए नहीं है। मुझमें इतनी ऊर्जा नहीं है। मैं जीत नहीं रहा हूं जिए रहा हूं। मैं ऑफिस में काम करके, मीटिंग अटैंड करके, क्लाइंट की ब्रीफिंग लेकर, बॉस के साथ प्रजेंटेशन करके, रेडियो, टीवी के लिए लिखकर, रिकॉर्डिंग लाइनअप अप करके, वाइस ओवर आर्टिस्ट के साथ उठते बैठते हार रहा हूं। ये पुर्नजन्म भी होता तो कोई बात थी। अपने अतीत की आईडेंटीटी मिटाकर जीना ज्यादा बोझमुक्त रखता। यही सालता है। रोशनी और उम्मीद की तरह हम अपने आज़ादी से जीने के स्वाद को भी चखते हैं और एक बार यदि उसका स्वाद लग गया तो ये उतारे नहीं उतरता। क्यों ख्याल आता है कि हम कौन थे? समय का कैसा फेर है और कैसी प्रगति है कि करियर का सही चलना ही हमारी सफलता का पैमाना बन गय है? एक सुखद बचपन और शानदार किशोरावस्था के बाद प्रेम की विफलता के बाद यह जीवन की असफलता है। मेरे जैसे कई युवा इस रोग को, इस दर्द को, मन की अंधेरी सुरंग में रेंग रहे इस एहसास को जी रहे होंगे। इस पैमाने पर हम खारिज हो चुके लोग हैं। नियति मुझे कल को भले बंबई ले जाए लेकिन मैं रिवर्स गीयर में चलने वाला आदमी हूं। 

जितना मैं घर से दूर रह रहा हूं, घरेलू होता जा रहा हूं। दाल-भात, लिट्टी-चोखा, चूड़ा-आम, सत्तू के अच्छा कुछ भी नहीं लगता। गोबर से लीपे हुए आंगन से ज्यादा साफ और गरिमामयी कुछ नहीं लगता। वहां मैं सुबह के साढे पांचे से शाम के सात बजे तक एक पैर पर खड़े रहते हुए भी नहीं थकता। रात को जल्दी गहरी नींद आती है। आधी जरूरतें घट जाती हैं। खर्चे कम हो जाते हैं। मुंहामुही सबका हालचाल लेते हैं। चेहरे को वहां पढ़ना आसान हो जाता है। वहां की किस्सागोई धड़कती है। 

गांव की आदत मुझपर कुछ इस तरह तारी रहती है कि रात के तीसरे पहर नींद में लगता है कि मैं भागलपुर के बाज़ार में हूं। जहां चिरौता बेचने वाले, मछली खरीदने की गुहार और जल्दी से जल्दी जंक्शन पहुंचाने की अपील जब आपस में गुंथ जाती है। मुझे एक एक आदमी को रोककर बात करने का मन होता है। उसकी बोली भाषा में रम जाने का दिल करता है। जिक्र हो गया तो अब उसी भाषा में लिखने को ऊंगलियां कसमसा रही है- 

-कि हो कहां घॉर भेल्हों?
-तोरे गामों के छिकियै।
-गांव भेल्हों लत्तीपुर, थाना बिहपुर आ जिला भागलपुर।
-देखलिहौं नय पहिनै कभी गामों में अहील्लि पूछलिहौ।
-अच्छा त तोंय गंगा के ई पारो के भेल्हो?
-आंय हो चाहै कि छहो तोंय सब? उन्हरको लोग सनी गंगा के ऊ पार बोलै छय। ई पार और ऊ पार के कि मतलब?
-मतलब त यहै कि एन्हेंय बोलल जाय छै बाप दादा के जुगो से
-यहै?
-तबे कि। 

मैं उसके जैसा बोलना चाहता हूं। मैं अपना सवाल खुद बोलने के बाद उसका उत्तर बन उसके गले से निकलना चाहता हूं। एक गंवई आर्त स्वर, उसका पंक्चुएशन, उस पैनी नज़र का तंज अपनाना चाहता हूं। अक्सर पुआल की खूशबू आती है। गीले भूसे में चोकर मिलने की। लाल साग की जड़ों के साथ मुलायम गीले मिट्टी की। मैं भी अपनी मिट्टी से उखड़ गया हूं बाबा। गांव के बुखार में अक्सर रहता हूं। वह मेरे अंग-अंग तोड़ता रहता है।

कोई समझा कर घर ले आए हमको।

Comments

  1. लाल पान की बेगम - रेणु

    http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=43&pageno=1

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  2. बेहतरीन प्रस्तुति

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  3. इतने दिनों से इंतेज़ार कर रहे थे। लौट आते हो तो अच्छा लगता है। ऐसे यहाँ भी लौट लौट आया करो।

    पता नहीं यह क्या है। हम सब लौटना चाहते हैं, अपने अंदर की सबसे कोमलतम अनुभूतियों की तरफ़, पर काश सच में लौट पाते। अपनी ज़मीन से उखड़कर हम कहीं के नहीं है। बस हम उसे कभी पूरे न हुए सपने की तरह दिल के हर कोने में ज़िंदा रखे रहने की ज़िद लिए जीते रहते हैं। पर सच वो जीना नहीं है। बिलकुल भी नहीं..साँसों को इन शहरों में वेंटीलेटरों पर जिलाए हुए हैं। टीस है जो कभी ख़त्म होती नहीं दिखती। पर कुछ न करने की कुछ न कर पाने छटपटाहट मारे रहती है।

    हम सबका खुली आँखों से देखा सपना है लौट जाने का..

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    1. धन्यवाद शचीन्द्र । बिल्ली का छींका टूट नहीं रहा था। एक जड़ता सी आ गयी थी। सबसे सुकूनदेह जगह यही है। तुम इंतज़ार कर रहे थे तुम्हारा धन्यवाद।

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    2. इधर लगता है हम सब बिल्ली के इंतज़ार में हैं। वो छींक नहीं रही, हम यहाँ आ नहीं रहे। या मामला कुछ और है..पता नहीं.. मौसम, मूड, वक़्त, बिजली, जगह, मौका, टूटी खिड़की, सामने वाला पेड़, कोई याद, .. पता नहीं क्या.. लिखना जारी रख पाने अपने संघर्ष के दिनों से गुज़र रहा हो जैसे। पर फ़िर भी थोड़ा बहुत लिखना चल रहा है। कागज़ पर भी कुछ ठीक नही चल रहा। बस वहाँ भी कसमसा कर रह जाते हैं।

      इंतज़ार ऐसे ही रहेगा.. लौटते ही बताना..

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  4. कल 06/जून /2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

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  5. जमीन से उखडने का दर्द।

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  6. चाहते रहो। अच्छी बात है नीरस होती जा रही ज़िंदगी में चाहते ज़िंदा रहने की तसल्ली देती है

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  7. mast lkhalhau ............ bahuttai din bad ailaho han...........

    jiyo..............hai ho.

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