नए कमरे की बाथरूम की दीवार पर बहुत सारी बिंदियां सटी हैं। कंधे तक सीमेंट की पुताई की गई उन दीवारों पर बिंदियों की लड़ी अपने लाल होने के बायस ही उभरती प्रतीत होती हैं। बाथरूम की दीवारें नीम नींद में अधमुंदी आंखों से देखती है। जब नल खुलता है और पानी की धार गिरती है तब सीमेंट की पुताई वाली वे दीवारें सौंधी-सौंधी महकती है। दीवार की तन्द्रा टूटती है। वे सारी बिंदियां कमर की ऊंचाई पर चिपके हैं। जब नहाने बैठता हूं तो वे बिंदियां एकदम सामने पड़ती हैं। कई बार नहाना विलंबित कर उन बिंदियों से मूक संवाद करने लग जाता हूं। वे भी मेरी तरह वहां नहाने बैठती होगी। अपने बदन पर पानी डालने डालने तक उसे ये अपने माथे पर से ये बिंदी जल्दबाजी में हटाई होगी। कई बार तो एक दो मग अपने शरीर पर डालने के बाद चेहरे पर हाथ फेरने के क्रम में उसकी उंगलियों से टकराई होगी तब जाकर उसे इसे हटाने की सूझी होगी। ऐसा हर जगह होता है। गांव में चापाकल के पास बैठकर नहाती औरतें पेटीकोट अपने उभारों के ठीक ऊपर बांधने के बाद चुकुमुकु बैठकर चापाकल पर ही बिंदियां साट देती हैं। नदी में डुबकी लगाती औरतें पास के पत्थर पर इसे साट जैसे अपनी हाज़िरी लगा कर भूल जाती हैं।
वहां ये बिंदियां उन अनपढ़ औरतों के भूले कि किए गए हस्ताक्षर हैं। याद रखने की होड़ में उनमें वे छूट गई आदतें हैं जो उन्हें कुछ भला बनाती हैं। खुद की शिनाख्त को भूलवश कुछ यूं छोड़ते क्या उसने कभी यह सोचा होगा कि जिसे मैंने कभी देखा नहीं आज इतवार के इस दोपहर ढ़ले बाथरूम के एकांत में मैं उसके बारे में सोच रहा होऊंगा। यह तय नहीं है कि चार प्याला लगाने के बाद, गीले माथे बिंदियों की संख्या कितनी है, हो सकता है मैं जिस बिंदी को घूर रहा हूं वो एक ही हो लेकिन मुझे बहुत सारी नज़र आ रही हो।
स्त्रियां अपने होने के निशान को कैसे कैसे छोड़ती हैं! तवे पर अंतिम रोटी सेंक लेने के बाद बंद आंच पर एक चुटकी आटा डाल देने में। रात के खाना होने के बाद भी रोटी वाले डिब्बे में आधी रोटी बचा कर रखने में। कपड़े में मेरी जिंदगी में भी कुठ ऐसी औरतें हैं जो छूटती नहीं। वे किन्हीं न किन्हीं आदतों, स्वभाव की वजह से मन में घर बनाए हुए है। उनकी याद नहाने के बाद भीजे कंधे पर रखी गीले ठंडे एहसास हैं।
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प्रिय बहार,
सोचकर अच्छा लगता है कि इस घटिया दौर में जब लेखकों और कवियों की साख दांव पर लगी हुई है, जब आमजन की नज़रों में वे एक संदेहास्पद पात्र बने हुए हैं, जब गिनती के कुछ चमकदार चेहरे अतिसाधारण लिख रहे हैं फिर भी तुम्हारा विश्वास उनमें लगातार बना हुआ है। दरअसल हमलोग पलायनवादी स्वभाव के हैं। रंगे हुए सियार। चीज़ों से हमारा लगाव बदलता रहता है। ज्यादातर चीज़ें हम बस मन लगाने के लिए करते हैं। हमारी मातृभाषा में इसे ‘डगरा पर का बैंगन’ बोलते हैं। हिन्दी में कहूं तो जिधर वज़न देखा उधर लुढ़क गए टाइप। तुम्हारी बनावट दूसरी है। जितनी सुंदर तुम हो उतना ही सुंदर सोच और पुख्ता यकीन भी। तुम एक हारे हुए ट्टटू पर दांव लगा रही हो, यह देखकर और भी आश्चर्य होता है। अक्षररूपी ब्रह्म में तुम्हारा विश्वास बना रहे।
विश्वास बना रहे... आमीन !
ReplyDeleteबिंदी के बहाने कितना कुछ। आपके जीवन में बनी रहे बहार और अक्षरब्रह्म।
ReplyDeleteShukriya Aasha Madam :)
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