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लिखना बंद हो गया है। ऐसा लगता है कि मेनीपुलेट हो गया हूं। लिखने के मामले में भ्रष्ट हो गया हूं। टेकेन ग्रांटेड और ईज़ी लेने की आदत पड़ गई है। पहले से आलस क्या कम था! लेकिन अब तो न मेहनत और न ही प्रयास ही। भाव की प्योरिटी भी दागदार हुई है। 

कई बार यह भी लगता है कि बस मेरा लिखना तमाम हुआ। जितना जीया हुआ, भोगा हुआ और महसूस किया हुआ या फिर देखा हुआ था लिख दिया। शायद झूठ की जिंदगी जीने लगा हूं। सच से ऊपर उठ गया हूं। ये भी लगता है कि खाली हो गया हूं। जितना था, शराब की बोतल की तरह खत्म कर लुढ़का दिया गया हूं। अब किसी की लात लगती है या हवा तेज़ चलती है तो बस पेट के बल फर्श पर लुढ़कने की आवाज़ आती है जो आत्मप्रलाप सा लगता है। 

बहुत सारी बातें हैं। कई बार लगता है मीडियम और अपने जेनुइन लेखन के बीच सामंजस्य नहीं बिठा पा रहा। रेडियो और टी.वी. के लिए जिस तरह के सहज और सरल वाक्यों की जरूरत होती है, उसी आदत में जब अपनी डायरी या ब्लाॅग के लिए लिखता हूं तो अपना ही लिखा बड़ा अपरिचित सा मालूम होता है। कई बार तो फिर से उसे पढ़ने पर हास्यास्पद लगता है।

लब्बोलुआब यह कि उम्र जितनी बढ़ती जा रही है, सोचने समझने की शक्ति घटती जा रही है। वो हिम्मत जाने कहां चुकती जा रही है। आधी से अधिक बातों के बारे में लगता है कि यह लिखने से क्या फायदा। या फिर यह भी कोई लिखने की चीज़ है भला। 

जितना बड़ा हो रहा हूं कंफ्यूज हो रहा हूं। भरोसे से आखिर क्या कह सकता हूं?

एक सधे वाक्य की तलाश में जीवन जाया कर रहा हूं। 

Comments

  1. ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ है..अमूमन ऐसा तब होता है जब हम कुछ असाधारण या सभी को अचम्भित कर देने के लेखन की तैयारी में रहते हैं, हम या तो हर बार अपना सर्वश्रेष्ठ लिखना पसन्द करते हैं या तो लिखना ही पसन्द नहीं करते और अपने लिखे को काटकर डायरी बन्द कर देते हैं ।

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  2. जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, बात वही है। ख़ुद से भागते जाने की।

    जितने भी शब्द तुमने यहाँ इस्तेमाल किए हैं, उन्हे ध्यान से देखो। 'मेनीपुलेट', 'भ्रष्ट', 'टेकेन ग्रांटेड', 'कंफ्यूज' सब किस तरफ़ ले जारहे हैं। कोई तो धागा देते होंगे हाथ में?

    लिखना है तो इतनी सजगता कहीं बाहर से आए, यह अच्छी बात नहीं। अंदर सब 'मकैनिज़्म' मौजूद है। वह देख लेगा।

    और यह जो न लिखना है, शायद ज़िद है, सरल होने की। और एक बात तो तुम ख़ुद कह गए, मीडियम और ख़ुद के बीच सामंजस्य बिठाने वाली।

    पिछली पंक्ति में आई आख़िरी वाली दोनों बातें काबिलेगौर है। और हमें पता है, तुम लौट आओगे..:)

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  3. thahro....socho fir chalo
    kai baar jyaada vichaar karne se khyaal ud jaate hai

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  4. खुद को खोना, पाना, लिखना, बहना ही जिंदगी है हर समय झरने की तरह बहना संभव नहीं, जिस दिन खड़ा पानी हो जाएंगे, झील बनने का मन होगा, जिस दिन झील हो जाएंगे नदी बनने का, जिस दिन नदी बन जायेगे तो समुद्र बनने का और फिर ताउम्र समुद्र की लहर बन किनारों पर सर पटकते रहने की जगह चुनेंगे बूंद बनना और फिर एक दिन धो डालेंगे कोई पत्ती, सौंधी खुशबु से महका देंगे कोई कोना, खिड़की पर खींच देंगे लकीरे, लिख लेंगे एक कविता, कोई कहानी और कुछ देर को छोड़ देंगे अपनी अँगुलियों के निशा पढ़ने वालों के दिल की दीवारों पर...

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