7 जुलाई, 1896....
(दृश्य-श्रव्य जनसंचार प्राविधि से साभार)
मुंबई की वाटसन होटल में कुछ चुनिन्दा लोगों के सम्मुख लुमिएर बंधुओं की फिल्मों का प्रदर्शन किया गया. लुमिएर बंधुओं के इस चमत्कार को तत्काल कामयाबी मिली और टिकट दर एक रुपया होने के बावजूद बड़ी तादाद में दर्शक बायस्कोप देखने के लिए जुटे. इस कामयाबी के बाद इन फिल्मों का प्रदर्शन नावल्टी थियेटर में होने लगा. इस प्रकार भारतीय सिनेमा का सफर भी विश्व सिनेमा के लगभग साथ-साथ ही शुरू हो गया. लुमिएर बंधुओं ने अपना पहला प्रदर्शन पेरिस में दिसंबर, 1895 में किया था और छः महीने की अवधि में ही भारतीय दर्शकों को भी फिल्म देखने का मौका मिल गया. शेष विश्व की भांति भारतीय दर्शकों ने भी सिनेमा का दिल खोकर स्वागत किया. वाटसन हॉस्टल में आयोजित प्रथम प्रदर्शन देखने के बाद टाइम्स ऑफ इंडिया ने लिखा “एक शक्तिशाली लालटेन के माध्यम से वास्तविक जीवन से मिलते-जुलते बहुत से दृश्य परदे पर दिखाए गए. जिस प्रकार प्रत्येक पात्र की भाव-भंगिमाएं अत्यंत स्पष्टता से प्रस्तुत की जा सकीं, उससे पता चलता है की छायांकन की कला और जादुई लालटेन का गठजोड़ किस उन्नत स्थिति तक पहुँच चुका है. एक मिनट में लगभग 700 से 800 तक छायाचित्र पर्दे पर प्रकाशमान हो उठते हैं. इन दृश्यों को दर्शकों ने बेहद पसंद दिया. कहने का आशय यह है की विज्ञान के इस नए अविष्कार को देखकर दर्शक अभिभूत हो गए".
भारत में फिल्मांकन के प्रयास
कलकत्ता में हीरालाल सेन और मुंबई में हरिश्चंद्र सखाराम भाटव्देकर उर्फ सावे दादा – ये दो शख्स ऐसे थे जिन्होंने सर्वप्रथम चलचित्र तकनीक का प्रयोग किया था. सावे दादा मुंबई में अपना फिल्म स्टूडियो चलाते थे. बम्बई में जब लुमिएर बंधुओं की फिल्मों का प्रदर्शन होने लगा तब सावे दादा की भी उनसे दिलचस्पी उत्पन्न हुई. 1898 में ही उन्होंने लुमिएर बांधों से सिनेमैटोग्राफ ख़रीदा और तत्कालीन दो प्रसिद्ध पहलवानों पुंडलीक दादा और कृष्ण नहाबी की कुश्ती का फिल्मांकन किया. इस लघु फिल्म का प्रदर्शन मुंबई के गति थियेटर में किया गया था. उन्ही दिनों मुंबई में गणितज्ञ आर. पी. परांजपे के सम्मान समारोह का फिल्मांकन भी सावे दादा ने किया और 1903 में एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक समारोह में भी वो अपने सिनेमैटोग्राफ के साथ मौजूद थे. इस तरह उन्होंने चलचित्र तकनीक का कुशलता से उपयोग किया.
मुंबई में सावे दादा के साथ-साथ कलकत्ता में हीरालाल सेन ने भी चलचित्र तकनीक को अपनाया. वे भी पेशे से फोटोग्राफर थे, सन 1900 में फ्रांस की एक कम्पनी के कुछ कैमरामैन जब कलकत्ता आये तो हीरालाल सेन उनके सहायक बन गए और उन्होंने चलचित्र कला को अत्यन्त निकटता से देखा, समझा और जाना. उस दौर में कलकत्ता में घटने वाली कुछ प्रमुख घटनाओं को भी हीरालाल सेन ने अपने सिनेमैटोग्राफ के जरिये रेखांकित किया. सावे दादा और हीरालाल सेन दोनों ने कैमरे का रचनात्मक इस्तेमाल किया और संभावनाओं के कई ऐसे नए द्वार खोजे जिनके माध्यम से बाद में सिनेमा ने कलात्मक उंचाईयों को छुआ.
प्रस्तुतकर्ता सागर पर Saturday, April, 03, 2010
सिनेमा पर बहुत अच्छी और महत्वपूर्ण पोस्ट। सिनेमा पर ऐसे ही पोस्ट का इंतजार रहेगा।
ReplyDeleteअच्छी जानकारी से समृद्ध कर रहे हैं हिन्दी ब्लॉग जगत को आप।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ब्लॉग है आपका।
बहुत नयी जानकारी ।
ReplyDeleteबहुत अच्छी और महत्वपूर्ण पोस्ट।
ReplyDeleteलैंडमार्क बना रहे हो... सही है
ReplyDeleteसिनेमा के इतिहास का स्क्रिप्ट लिख रहें हैं...कोई फिल्म इस पर भी बनाने का इरादा रखते हैं...लगता है
ReplyDeleteभई सागर मे ज्वार-भाटे के फ़सल पकती लगे है आजकल...जबर्दस्त पोस्ट..ऐसे ही ज्ञान बढ़ाते रहिये हमारा..उम्दा ब्लॉगिंग!
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