अंदर/कमरा/शाम साढ़े सात बजे.
बोरीवोली के इस खोली में पढाई करना उतना ही मुश्किल है जितना के दादर के एक कमरे में धोती को दीवार बनाकर दो परिवारों का रहना या फिर अँधेरी के एक सूखे नाले में किराये देकर चार-चार घंटे की नींद लेना... तिस पर से किरासन तेल से जलता, गंदला सा लालटेन, मध्धम पीली सी रौशनी और ताख पर रखी बेअदबी और बेतरतीबी से रखी किताबें.
किताबें... हाँ साहिबान... किताबें. सस्ती-महंगी किताबें, चोरी की किताबें, उठाई गई किताबें, छिनी गई किताबें, मांगी गई किताबें, रख ली किताबें, छुपा ली गई किताबें, चाटी गई किताबें, ओझल हो गई किताबें, नूर बरसाती किताबें, रुलाती-गुदगुदाती किताबें, स्वस्थ किताबें, उबकाई देती किताबें, काम की किताबें, निठल्ली किताबें, बेगैरत किताबें, उठती किताबें, गिरती किताबें फिर उनपर गिरती किताबें, कसाई किताबें, गालियाँ सुनवाती किताबें, कोसते दोस्तों की किताबें, मुहब्बत की किताबें, आसमानी किताबें, अपनी किताबें, परायी किताबें, इठलाती किताबें, हालत पर रोती, मुस्काती किताबें, मगरूर किताबें, पन्ने फड़फड़ाती किताबें, दीमक लगी किताबें, वाहियात किताबें, दंगाई किताबें, अमनी किताबें, सिखाती किताबें, बिगाड़ती किताबें... पर किताब महज़ इक शब्द है या आबेहयात साहब... गोया अपने आप में ही एक बीमारू आइडेंटिटी है... आप नाम ले कर तो देखिये आपको भी बीमार बना देगी...
बाहर/पार्क/शाम-तकरीबन चार बजे
अमृता ने कान में सोने की बालियाँ पहनी है... मैं उनमें ऊँगली घुमाते हुए कहता हूँ “तुम्हारा बाप सचमुच चोर था”. अगली चिठ्ठी में वो लिखती है “साले, इस अंदाज़ से तो तुमने मेरी तारीफ़ भी नहीं की थी, याद है तब मैं कटे शीशम की तरह गिरी थी !”
हम दोनों हरी दूब पर लेट कर आसमान देख रहे हैं... फिलहाल हमपे आसमान गिरा है. उहापोह की स्थिति है मैं क्या संभालूं क्या नहीं.
बाहर/सड़क/दोपहर/करीब एक बजे
“आज के डेट में पचास लड़का किसी कॉलेज से घसीट के लाइए... और यहीं डाकबंगला चौराहा पर सबको गोली से उड़ा दीजिए, कोई आंदोलन नहीं होगा, मेरा गाईरेंटी है.”
मेरे मित्र जब यह बात उत्तेजना में कहते हैं तो एक इंकलाबी मुहिम में शामिल हुआ युवा, पेट्रोल के बढे दाम पर एक चुनावी दल के बिहार बंद के आह्वान पर कहता है “मादरच*** केंद्र में समर्थन करता है यहाँ के लोग को चूतिया बना रहा है... हम लोग जो मुख्य विपक्षी हुआ करते थे, इसी के कारण आज हासिये (सही पढ़ा) पर चले गए हैं”
बाहर/गली/ सुबह दस बजे
मैं बारिश के कोहसारों से बीच घिरा हूँ, छोटी-छोटी बूंदें पहले सा लगी पानी पर ऐसे गिरती है मानो कढाही के उबलते तेल में जीरा डाला हो, वहीँ बड़ी-बड़ी बूंदें वैसी ही है जैसे माँ छत पर कड़ी धूप में बड़ी पार रही हो.
अंदर/रात/ दो बजे
दिन भर कपडे की इस्त्री करने वाला गुरबचन थका राह सो रहा है, उसकी बीवी उसे “दोबारा” के लिए उकसा रही है...
रेडियो पर गाना आ रहा है – “शी... शी.. शी...शी. शी. शी... वोल्यूम कम कर...”
उधर, रुनिया का बुखार आज भी नहीं उतरा... नींद में बडबडा रही है, उसकी माँ अपना नींद तज कर माथे पर ठंढी ढूध में डुबाकर पट्टियाँ लगा रही है. उसका मरद ओसारे पर घुटने जोड़े जाने किसका नक्शा बना रहा है, बल्ब के साये में उसकी परछाई बड़ी और भयानक हो उठी है.
मेरा एक ठेठ देहाती दोस्त कहता है “बिहान होने में अभी काफी वक्त है, रे सागर, सुट्टा सुलगाओ”
अंदर/परीक्षा होल/ दोपहर बारह बजे
... और हाँ, श्वेता आज शैम्पू करके आई है... बाल लापरवाही से खुले हुए हैं... पसीने के बायस एक दो बाल उसकी गर्दन और पीठ पर चिपके भी हुए हैं... मेरा दिल करता है कि एक पेन्सिल उठाऊं और एक चेहरा उसके चमकते पीठ पर भी बना दूँ... इस बात का खुलासा जब मैं उससे करता हूँ तो...
मैं : हाँ, क्यों नहीं.
श्वेता : क्या मेरा एक चेहरा काफी नहीं है ?
मैं : नहीं, तुम्हारे पास फिर भी दो ही चेहरे होंगे, अभी तो क्या है कि लोग कई चेहरे लिए घूम रहे हैं,
...
..
.
... नहीं क्या ?
डाकबंगला चौराहा- पटना शहर का एक मुख्य मार्ग... राजनीतिक गतिविधियों वाला मार्ग और दुर्गा पूजा के दौरान भव्य पंडाल के लिए प्रसिध्द
ReplyDeleteभैया गज़ब !!
ReplyDeleteकमाल का शब्द चित्र ...सब जीवंत हो उठा
ReplyDeleteWaqayi kamal ke shabd chitr hain! Ek ke baad ek chaukhat badalti gayi...!
ReplyDeleteवल्लाह!!! ये शख्स जो भरा बैठा था इतने दिनों से.. आज मौका मिलते ही उगल बैठा.. एक साथ एक ही पोस्ट में मजबूरी.. प्रेम.. आक्रोश.. मासूमियत.. अंतरागता.. सब कुछ समेट डाला जानी..!
ReplyDelete"आसमान गिरा है... क्या संभालूं क्या नहीं." ये कहाँ से लिख दिया रे पगले.. जबरदस्त ना कहू तो क्या कहू..?
और श्वेता की पीठ पर चिपके बाल.. ! मोतियों के हार से नवाज़ा जाना चाहिए इस थोट को..
और हाँ वो इतनी सारी किताबे..!" पीठ इधर ला और शाबाशी ले ले..
किताबें! कमाल है - इस पर ही किताब लिख डाली।
ReplyDeleteभई वाह!
कुछ छिपा नहीं, सब कुछ साफ साफ।
ReplyDeleteसोचे थे सुधर जायोगे .ओर बिगड़ के लौटे हो...
ReplyDeleteआख़िरी की चार लाईनें हथौड़ा सा मार गई !!!
ReplyDeleteसाहसपूर्ण लेख !!!
शुक्रिया
दिल-दीमाग खर्च और खुरच डाले...
ReplyDeleteडा. अनुराग की शब्द-चर्चा से यहां तक पहुंचा। यह सोचालय तो मिट्टी की गंध लिए है ! जबकि हम डर गए थे कि कहीं.... :-)
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteटाइप करते हो कि डायरेक्ट पोस्ट हो जाता है? :)
ReplyDeleteकहानी लिखते हो .. पोस्ट लिखते हो या चलचित्र खैंचते हो ..... बहुत जीवंत लिखते हो जैसे ये चलती फिरती दुनिया कोई केनवास बन गयी हो और तुम्हारे पात्र चल फिर रहे हों ....
ReplyDeleteजाईये आप कहाँ जायेंगे
ReplyDeleteये नजर लौट के फिर आएगी...
सही है..लगता है कि कुछ गलतफहमी रही होगी डॉक साब को..सागर साहब सुधरने वालों मे नही है..गये तो सो पूरे पटने को बिगाड़ के लौटे होंगे..अब दिल्ली वाले खैर मनाएँ..साहब के दिमाग की रियक्सन बड़ी फाश्ट होती है..कि अमृता के कानों की बालियों पे उँगलियाँ फिराते हुए दिमाग डाकबंगला चौराहे पे जुलूस की नब्ज भी ले आता है..और इम्तिहान के वक्त पर्चे के सवालों जवाब भी गुस्ताख आंखें सामने वाली साबुन धुली पीठ पर खोजती रहती हैं..
ReplyDeleteउम्मीद है कि पर्चा अच्छा ही हुआ होगा... :-)
Wo bhi kya din the naa doston...!
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