Skip to main content

इनकार



...और घोड़े ने यकायक अगले दोनों पैर उठाये और वापस वहीँ का वहीँ रख  दिया. जो बाल उसकी गर्दन पर लहरा रहे थे उनमें सुस्ती आ गयी. पैर नीचे करते ही उसने अनिक्षा से अपना मुंह फेर लिया. फिर क्या था एक इंच भी टस से मस नहीं. एकदम से से चुप्पी साध लिया, जंकर सा ब्रेक लगना भी नहीं के घिसट के थोडा आगे चले गए. यों के जैसे बेतहाशा दौड़ते हुए किसी ने बड़ी गहरी खाई सामने प्लांट कर दी हो. दोनों पैरों के खुर पड़ने से ज़मीं चोटिल जरूर हो गयी  पर रुकना - एकदम फुल स्टॉप की तरह. तत्क्षण. गज़ब का सामंजस्य. और संयम.

वेग से दौड़ते घोड़े पर उन्मत्त घुड़सवार ने आगे चलने के लिए क्या कुछ नहीं किया. उकसाने वाली आवाज़े निकाली. अपनी भार से घोड़े को यों उत्साहित करने की कोशिश की जैसे बचपन में गिल्ली डंडा खेलते वक़्त गिल्ली से नीचे हलकी सी ज़मीन में जगह बने जाती है ताकि गिल्ली को डंडे से हवा में लहराया जा सके. इस असफल प्रयास से उबकर उसे माँ -बहन से अलंकृत गालियाँ दी गयीं गोया घोडा उसके सारे शब्दों के भावार्थ समझ रहा हो. हालांकि घोडा घुड़सवार के स्पर्श, बोल और आँखों की भाषा से वाकिफ था.

पुचकारने का सिलसिला भी चला तो चाबुक ने भी दरियादिली दिखाते हुए जम कर उसके जिस्म को प्यार किया. इस प्यार से उसके शरीर पर कई लम्बी लम्बी धारियां निकल आयीं. एकदम ताज़ा, लाल-भूरे रंग में. जिस्म गोरा नहीं था अतः नील पड़ने की सम्भावना क्षीण थी. घोडा ने चाबुक योँ खाई मानो पेशेवर मार खाने वाला हो. इस दौरान रकाब से पांव निकल घुड़सवार ने उसके पेट, गले और पैर और जिस्म से जोड़ पर भी ताकत आजमाई.

घोडा कोई बात कहना चाहता था. तीव्र गति से दौड़ने से उसके नथुने सूज रहे थे, उथल पुथल से नाक से पसीने के रूप में कुछ फेन सा निकल रहा था... (नहीं नहीं. घोडा स्वस्थ था. फेन से कोई और मतलब ना निकालिए)  घुड़सवार को उससे कोई लेना -देना ना था. वो तो सैर करना चाहता था. प्यार तो अस्तबल में होता है या सैर के बाद पर काम के वक्त घोड़े का यूँ कदम पीछे खिंच लेना अपमानजनक था. मूड पर पानी फिरने जैसा. हवाखोरी के नशे में व्यवधान पड़ना था. ऐसे में गुस्सा प्यार पर हावी हो गया. सो सवार ने खल खिंच लेने की धमकी देते हुए भरपूर ताकत लगाकर कुछ चाबुक बरसाए. हाँफते हुए थोडा सा सोचा भी क्या यह वही घोड़ा है  जिसकी तंदरुस्ती पर फ़िदा हुए थे ? जिसके आँखों में जूनून की हद तक नशा समाया था ? जिसे दुलार करते तो भी वो मुझसे आँख मिलाने की हिम्मत नहीं कर पाता था ? 

तो इतना तो पक्का था इस राह और आगे बढ़ने से अनिक्षा दर्शाने पर घोड़ा कुछ कहना जरूर चाहता था. 

घोडा क्या कहना चाहता था मुझे भी नहीं मालूम.  मैं जानवरों की भाषा नहीं जानता. जिंदगी में इतना सकारात्मक भी नहीं की मुझे घुडसवार कहा जा सके क्योंकि इंसान के तौर पर मैं भी घोड़ा ही हूँ और मेरी सवारी भी कोई और करता है.

इसी तरह दौड़ते - हाँफते कुछ गली के मुहाने पर मैं भी कदम खींच लेता हूँ. चाबुक पड़ती जाती है मार खाए जाता हूँ.

Comments

  1. ओर जिंदगी फिर अगली सुबह हाथ में हंटर लिए....नए दिन के उगने की घोषणा करती है.....

    ReplyDelete
  2. हमे तो यह अपनी आत्मकथा लगती है।

    ReplyDelete
  3. मुझे लगता है अंतिम पांच लाईने ही लिखी जाती तो एक सम्पूर्ण पोस्ट बन जाती.. सारा सार तो उन्ही में है

    ReplyDelete
  4. उत्कृष्ट लेखन...बधाई..

    नीरज

    ReplyDelete

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार रच डाला. मनोरंजन प्रधान फिल्मों को व्यावसायिक सिनेमा के श्रेणी में रखा गया.             एक दीर्घकालीन संघर्ष के बाद स्वतन्त्रता के अभ

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष्टि से देखता है, यह बड़ी अजीब बात

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने   कलकत्ता का पहला सिनेमाघर एलफिंस्टन पिक्चर पैलेस   बनाया। यह सिनेमाघर आ