Skip to main content

गौरी, मन चकरघिन्नी सा नाचे है रे!

गौरी (गौरीशंकर) मन चकरघिन्नी सा नाचे है रे। तू ही बता न ऐसे में मैं क्या करूं। काकी चूं चूं करती है। काकी बक बक करती है। कुत्ता भौं भौं करता है। भाभी की मुनिया भें भें रोती है। खुद भाभी भी घूंघट काढ़े भुन भुन करती रहती है। सचदेवा पिंगिल पढ़ता है। कठफोड़वा टक टक करता है। देहरी पर बंधी बकरी चकर चकर खाती रहती है, टप टप भेनारी गिराती रहती है और में में किए रहती है। अउर ऊ जो गईया है का नाम रखे हैं उसका कक्का दिन भर मों मों किए जाती है। हमको मरने के बाद बैतरनी का का जरूरत ? इसी हर हर कच कच में जिन्दे बैकुंठ है। आदमी तो आदमी जनावर तक सुरियाए रहता है।

भोर हुआ नहीं, पंछी बोला नहीं, अजान पड़ा नहीं, घरिघंट बजा नहीं, रत्ना ओसरा बुहारी नहीं, सुधीर घोड़ा वाला खाना चना गुड़ अंटी में दाब के दौड़ने निकला नहीं कि भर हंडी भात परोस दो बूढ़ा को। भकोस कर हम पर एहसान करेंगे। और उस पर भी मिनट दू मिनट सुई टसका नहीं कि सुनो रमायन। हमारा पेट गुड़ गुड़ करता है। मन हद मद करता है। चित्त थर थर करता है। बैठल ठमा बूढ़ा मौगी जेकां कथय छै।

बीनी से हांक रही गित्तु। गौरिया पर साल पारे गए कटहल के अचार संग गर्म भात मिलाकर कंठ के पास रखे जा रहा है। हर तरह से बहुत भूखा है गौरी। गित्तु की खबर कई साल से नहीं थी। उसका चेहरा कितना बदला, ससुराल कैसा मिला। अमरपुर से कल्हे सांझ को टमटम लिया था, एक थान कपड़ा बगल में दबाए। खाली हाथ कैसे आता न, बचपन की दोस्त जो ठहरी गित्तु। एक ही बात समझ में आया गौरी को कि गित्तु को चैन नहीं है। वह तसल्ली से उससे कहीं अकेले में उससे बात करना चाहता है। घर वाले मोहलत नहीं देते। गित्तु अकच्छ है। घिरनी की तरह नाचती रहती है।

गौरिया को अपने ऊपर ग्लानि होती है। मेरी वजह से सबके उलाहने सुन रही है गित्तु। नहीं ही आता तो क्या हो जाता? गित्तु है कि कुछ खिलाकर भेजना चाहती है, थाली तैयार था जिसमें दो फक्का अचार था और एक पुराने स्टील के लोटे में पानी। वैसे तो आंगन में हर कदम पर पैर से पीढ़ा टकराता है लेकिन समय पर पीढ़ा नहीं मिलता। गौरी संज्ञान लेता है, गित्तु घबराती है तो और भी ज्यादा बोलने लगती है। अपना उतावलापन छिपा रही है या ग्लानि। इस एक पंद्रह बीस मिनट में क्या कुछ कर लेना चाहती है? हमारे बीच यही पंद्रह बीस मिनट हैं और हमें इसी मिनट में सबकुछ हल कर लेना चाहिए।

नहीं समझती गित्तु। ससुराल में मेहमानवाजी की इज्जत बचाने पर तुली हुई है। नहीं ही मिलता पीढ़ा तो अपना पूजा करने वाला आसन ही दे देती है बैठने को।

तू कभी और नहीं आ सकता था ? इस बार तो रहने दे लेकिन फिर आएगा न? देख तेरे लिए कुछ कर भी नहीं सकी। मकई कटने का समय है न, सब खेत में उलझे हैं। बब्बू ट्यूशन गया है, सात बजे तक लौटेगा। है तो ट्यूशन ही पर कोचिंग जैसा पढ़ाता है मास्टर। अभी क्या बजा होगा? बीनी झुलाते गर्दन उचकाते हुए देखती है गित्तु। धूप  भंसा घर के खपरैल को पार कर रही है। सवा पांच बजा है। अब दिन भी लंबा........

गर्म गर्म भात और अचार का मसाला! एक तेज़ जलन उठती है गौरी को। आंखों में पानी आ जाता है। किसलिए गीली हुई ये आंखें? किसके लिए? अचार के झांस के बहाने थोड़ा रो लेता है, उसकी हाल पर। आंख चुराकर देखता है गित्तु को। उफ। कितने बहाने! बड़ बड़ करने की आड़ में जाने क्या क्या बोले जा रही है।

'आज रात रूक जाता गौरी।'
एक अनचाही सी मिन्नती जिसमें न रूकने की आस छुपी है। बचपन का दोस्त है, ताड़ लेता है गौरी भी। रेलवे में ए सी मेन्टेनर का रिजल्ट नहीं आया, इलाहाबाद परीक्षा में इंटरव्यू में छंट गया, भुवनेश्वर रेलवे में गु्रप-डी का फाइनल रिजल्ट आने ही वाला है। कहने को अभी तक बस इंतज़ार है, निठल्ला है, रूक सकता है, लेकिन रूकने से सवाल पर ही कौर निगलने से पहले ही ऐसा उत्तेजित होकर जवाब देता है - 'उन्....उन्....उन्नहूं, कल सुबह ही दीदी इंटरसीटी से बेगुसराय जा रही है। फिर साढ़े दस बजे बाबूजी के साथ गौरीपुर बैंक जाना है, पैसा निकालने। वहां से भागलपुर, खतौनी का रसीद कटाने अमीन से मिलना है। कित्ते तो काम हैं गित्तु! और फिर मकई कटने का मौसम वहां भी तो है....'

आंखें फिर एक पल को मिलती है। जैसे चार चोर नज़र मिलते हैं। पंखा झलना एक पल के लिए रूकता है फिर बातों में आई धीमेपन दुगनी तेज़ गति से चल पड़ता है। गौरी भी अपने कंठ में अकट गया निवाले को पानी के एक लंबे घूंट से नीचे ठेल देता है।

खाना हो गया। गौरी हाथ धोकर हवा में हाथ झाड़कर उसे सुखा रहा है। तब तक धोकर रखे गए कपड़े गित्तु रस्सी पर पसार रही है। उसे लगता है कि यह क्या है जो एक कोने से दूसरे कोने तक खुले आंगन में खिंचा हुआ है जिसपर अलग अलग नाप के कपड़े सूखते हैं, बारिश में भीगते हैं और धूप खाते हैं!

गित्तु मुस्कुराती आंखों से गौरी को देखती है, अब नहीं दे सकती हाथ पोंछने के लिए उसे अपना दुपट्टा। सिर्फ इतना कहती है- 'आंचल से अब गौरी पूजते हैं, रोज़।'

यह क्या बोल दिया उसने। अचानक में बोले गए वाक्य कितना सच हो आया है। सुनकर गौरी को टीस मिली खुशी महसूस हुई है। वह तिलमिला सा उठा है। जीभ बाहर कर लंबी लंबी सांस ले अंदर की लहर निकालता है।
विदा लेने का समय आ गया। कुछ बातें समझीं हुई, कुछ समझाई। कुछ बातें तमाम खुलेपन के बावजूद वर्जित। कुछ पर चुप रहना बेहतर। कुछ सवाल हत्या के प्रतिक्रियास्वरूप हैरानी भरी आंखों से ताकती हैं। कई सवालों का जवाब नहीं मिला है। जबकि मिलना जवाब के लिए ही हुआ था।

स्टील की छोटी प्लेट में मेहमान को चार लौंग, दो इलाइची, चार मिसरी, एक जनेऊ और कम से कम ग्यारह रूपया देकर विदा करने का रिवाज़ है। दोस्ती थोड़ा सा रिवाज़ निभाता है बहुत सा रिवाज़ तोड़ता हुआ बुझी आंखों से गित्तु को देखता हुआ बस इलाइची लिए निकल पड़ता है।

मुंह फेर कर आगे बढ़ आए गौरी को कच्चा रास्ता सूनी पगडंडी सा जान पड़ता है। लगता है वे गित्तु की आंखें हैं जिसमें वो अपना होकर भी गैर होकर चल पड़ा है। भुरभुरे ईंटों की गली से निकलते गौरी के मन में सांझ ढ़ले किसी आंगन से उठती लोकगीत सुनाई देती है -

सरसों के कली सिय जोत महान हे तीसी फूल
रंग दुलहा सोहान हे तीसी फूल
उगल चार चार चांद हे तीसी फूल
मोर सजना महान हे तीसी फूल

एक आवाज़ और उसमें आ मिलती है - गौरी, मन चकरघिन्नी सा नाचता है रे, तू ही बता न मैं क्या करूं?
वह तेज़ी से पीछे मुड़कर देखता है। गली का मोड़ तो कब का खत्म हो चुका है।

Comments

  1. सुनो रे, अब एक ठो उपन्यास लिख ही दो. भिटनी भिटनी पोस्ट केतना लिखोगे?

    ReplyDelete
    Replies
    1. गे बिलाय, कत्ते त बात छय. और केना कहियो.

      कहीं खोज न रेणु के लिखल 'संवदिया'.

      Delete
    2. http://books.google.co.in/books?id=zwKeNzNg2Q4C&pg=PA248&lpg=PA248&dq=%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B5%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE+%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80&source=bl&ots=bOIDDJDcMj&sig=JJFLVPBvJJ-wgk6BPOnMCxWWQIE&hl=en&sa=X&ei=U0I9UuSpBILBrAfov4CADw&ved=0CH4Q6AEwCQ#v=onepage&q=%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B5%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE%20%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80&f=false

      page- 248

      Delete

Post a Comment

Post a 'Comment'

Popular posts from this blog

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार रच डाला. मनोरंजन प्रधान फिल्मों को व्यावसायिक सिनेमा के श्रेणी में रखा गया.             एक दीर्घकालीन संघर्ष के बाद स्वतन्त्रता के अभ

समानांतर सिनेमा

            आज़ादी के बाद पचास और साथ के दशक में सिनेमा साफ़ तौर पर दो विपरीत धाराओं में बांटता चला गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. एक धारा वह थी जिसमें मुख्य तौर पर मनोरंजन प्रधान सिनेमा को स्थान दिया गया. इसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया. दूसरी तरफ कुछ ऐसे फिल्मकार थे जो जिंदगी के यथार्थ को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे. उनकी फिल्मों को सामानांतर सिनेमा का दर्जा दिया गया. प्रख्यात फिल्म विशेषज्ञ फिरोज रंगूनवाला के मुताबिक, “ अनुभूतिजन्य यथार्थ को सहज मानवीयता और प्रकट लचात्मकता के साथ रजत पथ पर रूपायित करने वाले निर्देशकों में विमलराय का नाम अग्रिम पंग्क्ति में है ” . युद्धोत्तर काल में नवयथार्थ से प्रेरित होकर उन्होंने दो बीघा ज़मीन का निर्माण किया, जिसने बेहद हलचल मचाई. बाद में उन्होंने ‘ बिराज बहू ’ , ‘ देवदास ’ , ‘ सुजाता ’ और ‘ बंदिनी ’ जैसी संवेदनशील फिल्में बनायीं . ‘ दो बीघा ज़मीन ’ को देख कर एक अमेरिकी आलोचक ने कहा था “ इस राष्ट्र का एक फिल्मकार अपने देश को आर्थिक विकास को इस क्रूर और निराश दृष्टि से देखता है, यह बड़ी अजीब बात

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने   कलकत्ता का पहला सिनेमाघर एलफिंस्टन पिक्चर पैलेस   बनाया। यह सिनेमाघर आ