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Showing posts from 2015

झूलते हुए रस्सी में मरोड़ बनी रहती थी, पकड़ थी कि ढीली पड़ जाती थी।

एहसास में बने रहने का नाम जिंदगी है वरना तुम पत्थर हो। गलतियां करो, और पछताने से ज्यादा रोया करो। उस शाम जब तुमने जब ये कहा था झील में किसी ने पत्थर फेंका था, कुछ पानी दो गुच्छे ‘टुभुक’ की आवाज़ के साथ उछले थे। बात सच्ची थी। मुझे अब भी याद है। दिन भर की हंसी मजाक के बाद यह पहली गंभीर बात तुमने कही थी जो तुम्हारे हिसाब से दिन का पहला मजाक था। तुम्हारे मंुह से जब भी इस तरह की बात निकलती थी, तुम हथेली से मुंह दाब कर बेतहाशा हंसती थी। अचानक से तुम्हारे ऐसा बोलने के बाद भी तुम आदतन हंस हंस कर दोहरी होने लगी थी। दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं एक जो लम्हे को जी कर आगे बढ़ जाते हैं, उन लोगों के लिए जो इसे अपने मन में टांक लेंगे। दूसरे टाइप के लोग पहले में ही आ गए।  तुमने यह बात जब मुझसे कही थी तो मेरे दामन से उम्मीद का आखिरी सिरा भी छूट रहा था। मैंने भी आदतन तुम्हारी इस बात को नहीं माना। इस मामले में भी दो तरह के लोग होते हैं। एक समझाने मात्र से समझ जाने वाले। और दूसरा टाइप वाले में मैं हूं - मुझे ठोकर खाने, खाते जाने, चीज़ों को उसके हाल पर छोड़ देने और अगर हो पाया तो समय हाथ

लोग क्यों मरते हैं

बाबा लोग मरते कैसे हैं? क्या किसी प्रतीक्षा में? चमत्कार के? आत्मीय मिलन के? किसी से कुछ कहने के? कैसे मरते हैं? क्यों देखने में ऐसा लगता है कि वो एक एक दिन के साथ पक रहे हैं। उनकी आंखों पर जैसे एक मसनुई सी चमक की परत चढ़ी जाती है। क्यों वे अपने हृदय की गहराई से हमें कॉल तो करते हैं लेकिन हम उन्हें सुन कर भी अनसुना कर जाते हैं। ऐसा नहीं है कई बार लोगों की पुकार जिसे हम सच्ची पुकार कह सकते हैं, सुनाई दी है। ऐसा क्यों होता है कि आड़े वक्त हम प्रमादवश किसी दो कौड़ी के क्षणिक रिश्ते, किसी भौतिक वस्तु की लालच में उस व्यक्ति को सरासर नज़रअंदाज कर जाते हैं जिन्हें हमें कभी किसी खाई से सरपट बाहों में भरकर उठा लिया था। यह खाई कैसी जानलेवा खाई थी न। जानलेवा शब्द गलत है यहां लेकिन एक पूरे समूचे संभावनाशील चीजों का चले जाना कितना त्रासद है न! जो हमारी आत्मा को बचा लेते हैं और वापस से हमें सुरक्षित हमारे ही हाथों में सौंप देते हैं हम कैसे उससे विमुख हो जाते हैं। क्या हमें पता होता है कि जीवन दर्शन में वो हमारा पिता है और हमे अउस पिता के सामने अपने छुटपने का अहसास होता है। कई बार नज़र चुराने की क्रिया क

हमारे साथ रहो, न रहो।

कोई बेचैनी का परदा है जो रह रह कर हिल जाता है। खिड़की के उस पार से हवा की हिलोर उठ ही जाती है। धूल धक्कड़ से कमरा भर जाता है। इसे अपने हाल पर छोड़ दो तो हर सामान पर परत चढ़ जाती है। फिर इनके बीच से कोई सामान उठाना ऐसा लगता है हीरे की दुकान से पेंडेंट उठा रहे हों। इसी में से एक है तुम्हारी हेयर क्लिप। शार्क मछली की तरह खूंखार तरीके से दांत फाड़े हुए। अभी जिस एंगल से यह देख रहा हूं एक रूद्रवीणा रखी लगती है। ठहर गया हूं इसे देखकर। समय जैसे फ्रीज हो गया है। वक्त की सारंगी जैसे किसी नौसिखिए से एक पूरी पर अकेली तार पर अनजाने में ही बज गई हो और वह धुन दिल की टीस का तर्जुमा हो। वो धुन फिर नहीं लौटता। जानता हूं कि तुम भी दोबारा नहीं लौटोगी। दोबारा कुछ नहीं लौटता। हम फोटोकॉपी करने की कोशिश करते हैं, अपना प्रयास करते हैं और हू ब हू वैसा हो फिर से होने की कामना करते हैं। लेकिन दोबारा से वह करते हुए थोड़ा समझदार हो जाते हैं, नादानी जाती होती है। तुमने कैसा उजास भरा है मेरे अंतस में! एक समानांतर दुनिया ही खोज दी जहां हर अमूर्त वस्तु प्राणवान है। हर स्थूल चीज़ें चलती फिरती शय है। ऐसा लगता है जैसे खजाना पा

एक भारी शाम का हाले दिल

अपने दामन में जाने कितने दुख दबा रखे हैं आज आसमान ने कि मटमैला दिख रहा है। भादो महीने के गंगा नदी के मटमैले पानी की तरह जिसके सैलाब में ढेर सारे गति रोकने वाले पेड़ अपने जड़ समेट बह जाते हैं। लेकिन बादलों में बहाव नहीं है। इसलिए आसमान ठहरी हुई है। अपनी जगह हल्की लाल बुझते बालू की तरह। भारी। और शामों के मुकाबले सर पर ज्यादा झुकी हुई। औसत गीलेपन से ज्यादा भीगे स्पंज की तरह। एक हज़ार चोट सहे हैं और सौ बात छुपाए तो एक और ही सही। जो मन भारी है तो इस बात कि क्यों आए दिन बताना पड़ता है। क्यों हर बार अपनी ईमानदारी साबित करनी पड़ती है। रिश्ता सिमटता है तो उसका नाम प्रेम पड़ जाता है। यह मनी प्लांट है, फैलती लत्तरों जैसा। एक पत्ते से पेड़ सकता है और पेड़ से वापस एक पत्ते के रूप में अलग हो सकता है। इंडिया हैबिटैट सेंटर की वह शाम हसीन थी। सर्दी अभी आई न थी और गर्मी जा रही थी। शाम दो मौसिमों के मिलने और बिछड़ने का जंक्शन था। मैं गर्मी के रूप में अपने दिल में उमस भरे उससे मिलने आया था। और वो जैसलमेर के खुले आसमान तले औंधी लेटी रेत के ठंढे धोरों की तरह। मेरी बड़ी से बड़ी चिंता उसके हंस

माचिस की सुग्गा नाक पर का मसाला

गुस्साती है वह तो जैसे आम के मीठका अचार से चाशनी सूख जाती है पूरी जल चुकने के बाद काठ पर खत्म हुई मोमबत्ती बैठ जाती है। छेड़ते जाओ उसको हर मुलायम परत उघड़ती है। मुंह फुलाना भी उसका मेरी उंगलियों को मुलायम बनाता है उसके गुस्से की ज़रा ज़रा कागजी चुप्पी मेरे दिल पर पैठ जाती है। देर तक काबिज रहता है पोरों पर वह एहसास मोम का  मैं लाख जतन करता हूं मनाने का उसको त्यौरियां तब थोड़ी और चढ़ आती है ज़रा सा वह और हसीन हो जाती है मैं ख्याल करता हूं कि मुझे उसका अधखुला सीना दिखता है कई बातों को जब्त किए जो ऊपर नीचे होता रहता है उस वादी से अनकहे शिकवों का धुंआ उठता रहता है मैं शब्द तलाशता रहता हूं बोलने को फिर से उससे वह देर तक बात बनने नहीं देती है चाहता हूं समय के प्रेशर कुकर में प्रेम की दाल गले  मगर वह गलने नहीं देती है हाथ रखूं हाथ पर उसके झटक देती है नीचे झुक कर जो उसकी आंखों में झांकूं तो मुंह फेर लेती है उसे मनाने के लिए मैं नए सिरे से कोई बात उठाता हूं  और उसके कंधे पर हाथ रखने की कोशिश करता हूं जानती है वह शायद ये भी  कि मेरी हथेली के स

विलंबित ताल

हर ताल विलंबित है। हर कदम लेट है। कदम के रूप में एक पैर उठता है तो दूसरी ज़मीन पर रखने की दर लेट है। पेड़ों के पत्ते एक बार जब झूम कर बांए से दाएं जाते हैं तो उनका फिर से दांए से बांयी ओर जाना लेट है। आदमी घर से निकलने वाला था पर लेट है। स्टेशन से गाड़ी खुलने में लेट है। बहुत मामले रूके पड़े हैं और उनपर कार्यवाई लेट है। दफ्तर में टेबल से फाइलों का सरकना रूका है। चमत्कार होना रूका हुआ है। प्रेम होना तक मुल्तवी है। की जा रही प्रतीक्षा भी होल्ड पर है। बारिश रूकी हुई है। जाम से शहर रूका हुआ है। गाए जाने वाला गीत भी जुबां पर रूका है। किसी से कुछ कहना रूका है। किसी से झगड़ लेने की इच्छा रूकी है। किसी के लिए गाली भी हलक में रूकी हुई है। बाप से बहस करना रूक गया है। मां को घर छोड़कर भाग जाने की धमकी भी पिछले कुछ महीनों से नहीं दी गई है। लिखना रूका है। पढ़ना ठप्प है। जीना रूका पड़ा है। पेड़ों पर के पत्ते रूके हुए हैं। आसमान में चांद रूक गया है। किसी का फोन पर हैलो बोलकर रूकना, रूक गया है। कुछ हो रहा है तो उसका एहसास होना रूक गया है। सिगरेट जल्दी खत्म होना रूक गया है। बारिश अपने ब

देख तो दिल कि जां से उठता है

देख तो दिल कि जां से उठता है ये धुंआ कहां से उठता है कई बारी यह लगता है कि जैसे दिल पिछली रात ही जला दी गई बस्ती है जहां अगली सुबह हम राख चुनने जाते हैं। यादें हैं कि मरती नहीं, अनवरत सताती है। और जो भूलने की कोशिश करो तो कोसी नदी के सैलाब की तरह दोबारा ज्यादा खतरनाक तरीके से लौटती है। और अगर याद करने बैठो तो उनके संग बॉटल में लगे मनी प्लांट की तरह कोने निकलने लगते हैं। सिरा से सिरा जुड़ने लगता है और लत्तर बनने लगता है। कौन सी कानी कहां जाएगी और जाकर किससे मिल जाएगी कहना मुश्किल है।  हम अपने दिमाग की तरह कहानियों का उपयोग भी बदमुश्किल एक दो प्रतिशत ही कर पाते हैं। वजह - कहानियों के भीतर कहानी। कई सतहों पर कहानी। परत दर परत कहानी। चीज़ों को श्वेत और श्याम में अगर हम देखने का हुनर विकसित कर लेते हैं तो ज़रा सा ज्यादा महसूस करने की भावना हममें उन विषय वस्तु के प्रति सहानुभूति भी जगा जाती है।  यह हमारे महसूस करने की ही ताकत है कि हम बिना मजनूं हुए मजनू का दर्द समझ सकते हैं, बिना जेबकतरा हुए जेब काटने वालों की मानसिकता समझ सकते हैं। इसलिए हमें जजमेंटल नहीं हुआ जाता है।

हिसाब

आखिर क्या जोड़ता है हमें। हमारे अंदर का खालीपन। या एक दूसरे के अंदर जब्त दर्द को हम कुरेद देते हैं। ऐसे तो कोई हर्ट नहीं करता जैसे तुम मुझे कर देती हो। ऐसे तो कोई नहीं छूता जिससे मैं तुम्हारी राह में बिछ बिछ जाता हूं। ऐसे तो कोई इस्तेमाल नहीं करता कि इस्तेमाल होते वक्त तो तकलीफ होती है और तुम बेहद थकाती भी हो लेकिन उसके बाद यह सोच कर अच्छा लगता है कि मुझे तुम्हारे द्वारा ही इस्तेमाल होना है और तुम ही मुझे इस्तेमाल के दौरान सबसे अच्छा एक्सप्लोर कर पाती हो।  कभी कभी ऐसा लगता है जैसे किसी लंबी यात्रा पर जाने वाला हूं। या बिछड़ने वाला हूं तुमसे। या हमारे बीच कल को एक बेहद लंबी चुप्पी पसर जाएगी। कि हम एक दूसरे से बोलना बंद कर देंगे लेकिन एक दूसरे से हमारी उम्मीदें खत्म नहीं होंगी। लेकिन ये उम्मीदें हैं भी तो कैसी... एक दूसरे को याद करने की, मेरे लिखने की, तुम्हारी आवाज़ सुनने की, साथ समय बिताने की, जाने क्या क्या आपस में बातें करने की.... तुम्हें देख लेने की.... तुम्हारे लिए रोने की, तुम्हीं से हर्ट होने की....  कई बारी लगता है तुम किसी अजाने देस के अंचल में गाई जाने वाली लो

प्रति-शोध

ऐसा लगा कि तुमने सरे बाज़ार मेरे जवान और कोमल सीने से दुपट्टा उड़ा दिया। उसी सीने का ख्याल कर तुम किसी अंतरंग पल मुझसे कहते थे कि तुम्हारा यह छुपा हुआ सीना मुझे शरीर बनाता है। आज सबके सामने जो तुमने यूं उघाड़ा तो मैं एक ही पल में जीते जी मर गई। लगा किसी ने तीन सेल वाली टार्च की बत्ती आंखों में ही जला दी। अंधी हो गई अपमान और शर्म के मारे।  मेरा कंधा झूठा होकर सिकुड़ गया था। एक स्त्रीसुलभ परदा। निर्लज्जता से लोहा लेती लाज। ऐसी लाज जो हारती नहीं बस बेबस महसूस करती है कि तुमने बराबरी से युद्ध नहीं किया। तुमने युद्ध के नियम तोड़े। दरअसल तुम्हें अपनी तय हार की जानकारी थी। तुम्हें पता था कि तुम देर तक टिक नहीं सकोगे। ऐसे में अपने मरदानेपन के खोखले अहंकार में चूर होकर तुम ऐसे चाल चलकर स्वयं को विजेता समझते हो। हर बार स्तंभन को तैयार तुम्हारा लिंग तुम्हें मदांध करता है। लेकिन, मैं पुर्ननवा हूं हर पल नई हो जाने वाली। चार ही दिन बाद जब मुझे किसी महफिल या जलसे में देखोगे तो तुम्हारे अंदर पलने वाली व्यस्नी मछली तड़प उठेगी। फिर वैसी ही हूक उठेगी। यह देखकर और तिल मिल मरोगी कि आज दुनिया

प्रतीक्षा

जीवन जीते जीते हम कितनी चीज़ों से मोह लगा बैठते हैं। ख्वाहिशें हैं कि कभी खत्म नही होती। हर मुहाने पर जाकर सोचते हैं कि काश थोड़ा और होता... कभी किसी रिश्ते में... कभी कोई मीठा सा लम्हा.... वक्त है कि ऐसे पलों पर भागा जाता है और रेशम पर रेशम की तरह फिसलता जाता है। हम यह सोचते हैं कि ज़रा और चलता।  हमारा दिल भी अजीब होता है। हम किसी न किसी मोड़ पर किसी न किसी को चांस देते हैं। कभी घटनाओं के दोहराव में तो कभी अनुभव के लिए तो कभी एक उम्मीद में जो हमारी आत्मा में रोशन राह भर दे। आत्महत्या करने के कई मौके आते हैं और अगर अभागे न हुए तो कोई दिलबर हमें फिर से मिलता है। हम खुद को प्यार के मौके भी देते हैं। कुछ कम देते हैं और मेरे जैसा आदमी ज्यादा देता है। दिल कभी नहीं भरता। यह शाश्वत भूखा और प्यासा है। हर वक्त थोड़ा और मोहलत मांगते हम न जाने कितनी ही घटनाओं, संबंधों, दृश्यों से अपना दिल जुड़ा लेते हैं और यह मोह हमारे लिए परेशानी का सबब बन जाता है। मैं यह क्यों लिख रहा हूं पता नहीं। मन में किसी स्तर पर शायद चल रही है यह बात इसलिए लिख रहा हूं। इसकी शुरूआत क्या है, क्यों है, और इसकी अगल

बी विद मी

शाम का सन्नाटा फिर से काबिज है। और मेरा मन तुम्हारी ओर लौटने लगा है। दिन भर काम कर लिया मैंने। आज कल तुम ही मेरी शराबखाना हो। दिन भर के बाद की ठौर हो। मैं भी कितना मतलबी हूं। दिन में कई बार याद आने के बाद भी कुछ नहीं कर पाता हूं। लेकिन शाम होते ही तुम्हारे ख्यालों से मुझे बीयर की महक आने लगती है। तुम्हारी तस्वीर देखता हूं तो लगता है जैसे मेले में अपनी सहेलियों से छूट गई लड़की हो। आंखों में वही लहक लिए कि जो भी मिलेगा तुम्हें तुम्हारे घर तक पहुंचा देगा। लेकिन मैं खुद भटका हुआ हूं घर से। खबर तो है मुझे कि तुम्हें कैसा लगता होगा लेकिन शायद पहुंचा नहीं सकूंगा। मैं तुममें अपना घर देखता हूं। तुम्हारे साथ शायद घर तलाशने की सोचूं मैं। तुम मिल तो गई हो मुझे लेकिन मुझे नहीं पता कि मुझे तुम्हारा करना क्या है। सिर्फ पाने खाने का नाम प्रेम नहीं है, अगर ऐसा होता तो मैं विजेता था। अच्छी बात यह है प्रेम में कि इसे दुनिया की नज़र से नहीं देख सकते हम। हमें एक दूसरे के लिए ही होना है।   एक दूसरे को समझने को भी जरूरी नहीं मानता मैं। बस जस्ट बी विद मी।  कभी कभी मन होता है कि तुम्हारा नाम ल

जोड़े की आवाज़

कभी कभी दिमाग की नसों का धड़कना भी सुनाई देती है। घड़ी की टिक टिक की तरह बजती हुई। एक शांत शोर। सर्दी की एक शांत सुबह की तरह जब किसी अभौतिक बात पर सोच सकें। कि जैसे धूप में कुर्सी लगा कर बैठे हों और हाथ पर एक तितली मर्जी से आकर बैठ जाए। बिरंगी तितली। अपनी हर सांस के साथ पंखों को खोले और बंद करे। पंख जब खुले तो किसी कविता की किताब की जिल्द लगे। उनपर बनाने वाले की उम्दा कशीदाकारी हो। गोल गोल हाईलाटेड घेरे, साड़ी की काली किनारी, और थोड़ा ऊपर कभी नीला रंग घुलते तो कभी पीला... तो कभी रंगों में में कई रंग...। एक सपनीला संसार। जैसे पॉलिस करके खुद के रोज़ अपने घर से निकलती हो। अपने ऊपर की लिपस्टिक को और गाढ़ा करके लगाती हो। कभी जो हमारे उंगलियों को छू जाए एक कच्चा रंग हमारे हाथ पर रह जाए। उसका सिग्नेचर’.....  छूअन ऐसी जैसे किसी मेमने के कान.... कुछ चीज़ें सुभाव से ही हमारे मन को निर्मल बनाती हैं..... कुछ के पंख ऐसे होतें हैं जैसे सफेदी जा रही दीवार पर बैठी हो। उसकी तंद्रा भंग हुई हो वो उड़ने के लिए अपने पंखों का गत्ता खोली ही हो कि उस पर सफेदी के छींटे पड़ गए हों। कुछ के पंख ऐसे होते हैं - जैसे क

एक आवारा लड़की की- सी डेयरिंग आंखें

शाम का धुंधलका है। हौले हौले चाय की ली जा रही सिप है। दिन भर के काम के बाद पंखे के नीचे सुस्ताने का अहसास है। एक सपना है कि तुम मेरे ऊपर लेटी हुई हो। हमारे बदन एक दूसरे में गुंथे हुए हैं। सांसें बगलगीर हो। रह रह हरकत हो रही है। एक कुनमुनाहट उठती है जो जिसके आहिस्ते आवाज़ मेरे कानों में जब्त हो जा रही है। मेरे कान यह सब सुनकर जागते हैं। कभी कभी ऐसा भी हो रहा है कि मेरी नाक तुम्हारी कंठ के आस पास के हिस्से में लगती है। मेरे दांतों की हल्की हल्की पकड़ तुम्हारे गले को हौले हौले पीसती है और खतरनाक चीख भरी हंसी बिस्तर से उठती है और रह रह कर वही दम तोड़ देती है। वह हंसी मेरे अंदर झुरझुरी पैदा कर रही है। तुम्हारी छाया में बरगद का पेड़ मैं हुआ जा रहा हूं। तुम्हारी लटों से उलझा अलमस्त। तुम्हारे रूप में एक फक्कड़ सी फकीरी मुझे नसीब हो जाती है। मेरे दो पैरों के बीच सरकी हुई साड़ी से तुम्हारे पैर के अंगूठे बिस्तर की जिस्म में धंस रहे हैं। एक अखाड़े में जैसे बाजी शुरू होने से ठीक पहले जैसे भाले की नोंक धंसायी जाती है। तुम्हारा बदन, यह वो चाक है जिस पर चढ़ कर किसी बर्तन की छब-ढब नहीं बिगड़ती। अपन

समसामयिकी

मैं जिससे भी इन दिनों टकराता हूं पाता हूं कि सबने एक तरह से घुटने टेक दिए हैं। वे बहादुर सिर्फ अपने मसलों पर बन रहे हैं। सबकी पहली और आखिरी प्राथमिकता अपना परिवार भर है। देशभक्ति भी अब एक फ्रीलांसिंग नौकरी की तरह हो गई है। संवेदनहीनता और पलायनवाद तो थी अब कहीं न कहीं लोगों ने अपने अंदर ही जैसे गिव अप कर दिया है।  एक काॅपीराइटर होने के नाते, काम के बदले ही सही अपने क्लाइंटों से पैसे पाने के एवज में खुद को गुनहगार मानता हूं। सीधे सीधे शब्दों में मुझे यह समझौता लगता है। जिसके लिए कोई एक्सक्यूज नहीं है।  दरअसल दिल अब कुछ भी नहीं बहलाता। अंदर की लेयर का जागता आदमी मर गया है। और जो ऊपर गतिमान दिखता है वो बस एक व्यसनी शिकारी है, मौके की तलाश में। मुझे अच्छा मौका मिल जाए, मुझे अच्छी नौकरी मिल जाए, मुझे अच्छा प्रेम मिल जाए। सब कुछ मैं, मेरा, मुझे आधारित।  हम सब एक फ्लैट वाली घरफोड़ू औरत की तरह हुए जा रहे हैं। चुप्पा, कोना दाबने वाला। मेरी बाल्टी, मेरा मग, मेरा पर्दा, मेरा बिजली बिल, मेरा गैस सिलिंडर वाला। न न करते हुए भी, हम पूरा विद्यार्थी जीवन यह प्रण दोहराते रहे कि हमा

प्रेम : साँझ की बेकार चिंता

प्रेम बहुत काॅम्पलीकेटेड विषय बना दिया है हमने। या कि प्रेम जटिल ही है? शायद दिल के लगने से कहीं कोई बड़ा वस्तु है प्रेम। हमारी तो भाषा भी बहुत गरीब है कि हम झट किसी अच्छे लगने वाले एहसास को प्रेम का नाम दे देते हैं। क्या कभी हमारे समझ में आएगा प्रेम? बहुत विरोधाभास है। अगर रोज़ प्रेम को लेकर कुछ नया नया या अलग से एहसास या समझ उपजते रहते हैं तो इस तरह को कभी नहीं समझ सकेंगे कि क्या है प्रेम या रोज़ ही समझते रहेंगे। तो क्या अनपढ़ और जाहिल व्यक्ति नहीं करता प्रेम ? क्या उसके प्रेम करने की योग्यता नहीं है? उसके अंदर उस बुद्धि विशेष का अभाव है? वह कैच नहीं कर पाएगा प्रेम की नित नई परिभाषा को ? अब तो कई बार यह भी लगता है कि हमने प्रेम का सतहीकरण और सरलीकरण कर दिया है। कई बार लगता है प्रेम को हमने दूषित कर दिया है। आम आदमी का रंग देने में, ऊपर ही ऊपर इसे सबकी जिंदगी से जोड़ने में। तो क्या प्रेम संबंधों के इतर भी होता है। हम पहाड़ पर बिना किसी के संपर्क में (यहां तक कि प्रकृति भी) रहकर प्रेम में होने का दावा कर सकते हैं या प्रेम पर भाषण दे सकते हैं। समय के साथ प्रेम बस चर्चा करने, पढ़ने,

शापित फसल

उसके बारे में कोई एक सूरत नहीं उभरती। जुदा जुदा से कुछ ख्याल ज़हन में आते हैं। मेरी छोटी सी उम्र में उसी का मौसम रहा करता है। किसी रात का ख्वाब थी वो। क्षितिज से उतरती सांझ में दरिया पर सुरमई सी बहती हुई। पानी पर किरोसिन की तरह बहने वाली, रंगीन नक्शे बनाती हुए, फिसल जाने वाली..... जिस्म के रोओं पर रेशम सी सरक जाने वाली। झींगुरों के आवाज़ के बीच प्रतीक्षा की रात गहराती है। कई  प्रश्न अनुत्तरित छोड़ जाती है। कई बार लगता है यह क्या है जो मुंह चिढ़ा रहा है। यह क्या है जो मिटता नहीं। यह क्या है जिसकी खरोंचे लगती रहती है। जो कभी खत्म नहीं होता और अपने होने का आततायी एहसास दिलाता रहता है। यह अधूरा होने का एहसास। एक बेकली, एक अंतहीन सूनापन जो अपने खालीपन से भरा हुआ है। एक व्यग्र सुबह की तरह...किसी स्कूली बच्चे के छुट्टी के इंतज़ार की तरह... जैसे किसी भी पल उससे टकराना होगा। किसी दोपहर की फुर्सत सी जैसे - टक-टक, टक-टक की आवाज़ के साथ कठफोड़वा गम्हार की डाली पर अपनी चोंच मारता है। छत पर भिगोकर पसारा गया गेहूं सूख जाता है। पूरे बस्ती में मुर्दा वीरानी छाई रहती है। समय की नाड़ी मं

दृश्य हमारी आंख में मुंतक़िल हो जाता है

उदासी का ऐसा घेरा जैसे काजल घेरे तुम्हारी आंखों को किसी सेनानायक द्वारा की गई मजबूत किलाबंदी द्वितीया की चांद की तरह मारे हमें घेर कर। पीड़ा तोड़ता है हमारी कमर प्रेम जैसे - सर्प का नेत्र सांझ जैसे नीला विष रात जैसे तुम्हारी रोती आंखों से बही काजल की अंतहीन क्षेत्रफल वाली सियाह नदी बही, उफनी, फैली, चली और निशान छोड़ गई। छत पर एक बच्ची घेरे में कित-कित खेलती मेमना कोहरे का एक टूसा सहमति से खींचती आई बाल बनाती, धूप हर मुंडेर से उतर जाती सूरज वही दिन लेकर लेकिन हर नए पर चढ़ता कलाकारी वही, बस कलाकारों के नए नाम गढ़ता दृश्य हमारी आंखों में बंद हो जाता है पेड़ पर हो रही बारिश झड़झड़ाती है हमने यह क्या था जो समझने में उम्र गंवा दी सुलगता क्या रहा दिल में फिर किसे हवा दी हाथ खाली थी खाली ही रही तुम जो मिले थे समझने वाले कहने वाले, रोने वाले कट जाती है नसें मन की तलछट में झुंड से छिटके मछली सी सर पटकती, धूप में और चमकती फिर प्यास से मरती दृश्य हमारी आंख में बंद हो जाता है कोई तितली पस्त होकर अपने पंख खोलती है नाव आँखों में चलती है, अंतस उसको खेता है किनारे लगने से ज्या

हम एक दिन और मर गए

बेखुदी है, एक बेहोशी। जैसे कोई बहुत अज़ीज़ में बैठा हमसे दूर जा रहा हो। नाव आंखों से ओझल होती जा रही हो। एक उम्मीद और वो भी बैठती लगे। एक ही संबल जो डूबता जाए। थोड़ी सी बारिश के बाद एक मटमैला पीलापन दीवार पर सरक आया है। खिड़की से दीवार पर जो हिस्सा देख रहा हूं वहां गमले में लगे एक पौधे की डाली डोल रही है। ऐसा लगता है मन यही एक मटमैला पीला दीवार है और इस पर कोई जीवित तंग करता खयाल डोल रहा है। दिमाग पर अब तक उसके एकदम आंखों के पास आकर मुस्कुराने का अक्स याद है। उसके होंठों से निकलता एक अस्फुट स्वर जिसका मतलब समझने की कोशिश में अब तक हूं वो क्या था? दीवार की टेक लगाए बैठा हूं। लेकिन चार पैग के बाद ऐसा लग रहा है कि हथेली और तलवे में जलन है, हल्की खुजली भी....। कुछ मतलब है इसका क्या है नहीं पता। अटपटी और अस्पष्ट सी होठों कुछ बातें हैं जो किसी से कहना है, जिसकी हिम्मत होश में कहने की नहीं होती। हवा में नीचे की ओर बार बार कंधे झुक आते हैं जैसे किसी पर झुकना हो। दूर से कोई देखे तो समझे कि बचपन में सरेशाम से ही ऊंघ रहा हूं। दीवारें क्यों इनती बु बनी खड़ी हैं। इन्हें तो अब सजीव हो जाना चाहिए थ

वेटिंग

मन पक रहा है तुम्हारे साथ। समय के साथ धीमे धीमे। कोई जल्दी नहीं। फसल के दाने जैसे पकते हैं अपनी बालियों में.... रोज़ की प्र्याप्त धूप, हवा का सही सींचन, पानी की सही खुराक से। कुम्हार की बनाई हांडी की तरह। बनना, सूखना और फिर आग में सिंकना और तब आती उससे ठमक ठमक की आवाज़। एक बुढ़िया के चेहरे पर झुर्रियों का आना.... किसी वृहत्त कालखण्ड को समेटने वाले उपन्यास के लिए रोज़ पन्ना दर पन्ना दर्ज होते जाना। जैसे लावा संग उजला बालू मिलकर लावा भूनाता है, सुलगते कोयले पर एक फूटी हांडी में हम साथ साथ पक रहे हैं।  कोई जल्दी नहीं, कोई बेताबी नहीं, बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं, कोई वायदा नहीं की तर्ज़ पर हमारे बीच का रिश्ता पक रहा है। अपनी अपनी जगह पर एक दूसरे में गुम हम अपने रिश्ते में ग्रो कर रहे हैं।  गजरे की भीने भीने सुगंध की तरह जो सालों बाद भी अवचेतन में तंग करती है। नवीं में गणित के सवाल हल करते समय जब मां बेख्याली में अपने इलाके की लोकगीत गाती है और हम अठ्ठाईस की उम्र में उस लय को याद करते हैं। नारंगी रंग के उस सिंदूर की तरह जिसे हमारे गांव की स्त्रियां अपने नाक से मांग तक धारण करती

खगोलवेत्ता के सर पर गड़ा तंबू

यह एक खोया हुआ दिन है और तमाम रास्ते तुम्हारी तरफ जा रहे हैं।  मैं एक सैलानी हूं। तुम्हारे साम्राज्य में आया हूं। अपने पीठ पर बस्ता लटकाए, हाथ में पानी का एक बोलत किए। तुम्हारी अकूत सुंदरता पर मोहित हूं। बनाने वाले ने तुममें नैर्सगिक सौंदर्य बख्शा है। पहाड़, जंगल, नदी, झरना, विस्तार, ढ़लान, सपाट मैदानी भूभाग, एक अप्रतिम शांति जैसे सारे शोर चुप हों। जैसे मन की सारी उलझनों का जवाब मिल गया हो। मेरे अंदर से सारी उलझनें जैसे निकल कर इसी जंगल में बिला गई हो। मैं प्रकृतिस्थ हूं। एक प्रकार से समाधिस्थ। आंखों के आगे इस ढ़लुवा ज़मीन पर छोटे छोटे हरे पेड़ देखता हूं तो लगता है जैसे मेरे अंदर से करूणा की एक ब्रह्मपुत्र फूट रही है। जैसे सारी दुनिया में इस नदी का विस्तार होना चाहिए। जैसे सारी चीज़ें मुझमें ही समाहित हैं।  इस तरह किसी का हाथ थामे शौकिया किसी बूढ़े सा टग रहा हूं जिसे कुछ भी कहने की जरूरत नहीं, बस साथ होने का एहसास होना चाहिए। अंदर से अकेले को भी साथ का यह संबल चाहिए। तुम्हारी पनाह में घूमते घूमते यह डिमांड और सप्लाई जैसा कुछ मामला है।  खो गए लोगों की याद में  1. पेड़

अपडेट

लिखना बंद हो गया है। ऐसा लगता है कि मेनीपुलेट हो गया हूं। लिखने के मामले में भ्रष्ट हो गया हूं। टेकेन ग्रांटेड और ईज़ी लेने की आदत पड़ गई है। पहले से आलस क्या कम था! लेकिन अब तो न मेहनत और न ही प्रयास ही। भाव की प्योरिटी भी दागदार हुई है।  कई बार यह भी लगता है कि बस मेरा लिखना तमाम हुआ। जितना जीया हुआ, भोगा हुआ और महसूस किया हुआ या फिर देखा हुआ था लिख दिया। शायद झूठ की जिंदगी जीने लगा हूं। सच से ऊपर उठ गया हूं। ये भी लगता है कि खाली हो गया हूं। जितना था, शराब की बोतल की तरह खत्म कर लुढ़का दिया गया हूं। अब किसी की लात लगती है या हवा तेज़ चलती है तो बस पेट के बल फर्श पर लुढ़कने की आवाज़ आती है जो आत्मप्रलाप सा लगता है।  बहुत सारी बातें हैं। कई बार लगता है मीडियम और अपने जेनुइन लेखन के बीच सामंजस्य नहीं बिठा पा रहा। रेडियो और टी.वी. के लिए जिस तरह के सहज और सरल वाक्यों की जरूरत होती है, उसी आदत में जब अपनी डायरी या ब्लाॅग के लिए लिखता हूं तो अपना ही लिखा बड़ा अपरिचित सा मालूम होता है। कई बार तो फिर से उसे पढ़ने पर हास्यास्पद लगता है। लब्बोलुआब यह कि उम्र जितनी बढ़ती जा रही ह

तुम हो

तुम एक कैनवास हो। धूप और छांव की ब्रश तुमपर सही उतरती है। तुम खुले आसमान में ऊंची उड़ान भरती एक मादा शिकारी चील हो जो ज़मीन पर रंगती शिकार को अपनी चोंच में उठा लेती हो।  तुम एक सुवासित पुष्प हो जिसे सोच कर ही तुम्हारे आलिंगन में होने का एहसास होता है। तुम एक तुतलाती ऊंगली हो, जिसके पोर छूए जाने बाकी हैं तुम मेरे मरे मन की सर उठाती बात हो  तुम हो तो मैं यकीन की डाल पर बैठा कुछ कह पा रहा हूं तुम हो रानी,  तुम हो। तुम्हारे पीठ की धड़कन सुनता हूं तुम्हारे मुस्काने की खन-खन बुनता हूं मैं स्टेज पर लुढ़का हुआ शराब हूं  और तुम उसका रिवाइंड मोड की स्थिति मैं वर्तमान हूं तुम अपनी अतीत में ठहरी सौम्य मूरत तुम हो रानी,  तुम हो।  सेक्सोफोन पर की तैरती धुन तुम्हारा साथ, लम्हों की बाँट, छोटी छोटी बात हरेक उफनती सांस, हासिल जैसे पूरी कायनात आश्वस्ति कि तुम हो।  तुम हो रानी,  तुम हो। 

पतली लकीर की सिसकी

रूम पर की दीवार घड़ी रूक गई है। नौ बजकर पचास मिनट और चालीस सेकेण्ड हुए हैं। और यहीं पर घड़ी रूक गई है। सबसे बड़ी सूई चालीस और इकतालीसवें सेकेण्ड के दरम्यार थिरक रही है। एक हांफती हुई स्पंदन। एक बची हुई सांस। एक खत्म होने की ओर दस्तक। एक पूंछ कटी छिपकली की पूंछ जो बस थोड़ी देर में थम जाएगी। जिंदगी भी यहीं आकर रूक गई है। पैर बढ़ते तो हैं तो लेकिन कोई कदम नहीं ले पाते। इस घड़ी को देखता हूं तो अपने जीवन से बहुत मैच करती है। अव्वल तो एक ही हिस्से में घंटे, मिनट और सेकेण्ड की सूई है। और दूसरी तरफ सपाट मरूस्थल। एक हिस्से में कुछ हैपनिंग। दूसरी ओर निचाट अकेलापन। दरअसल होता क्या है कि हमारे जीवन की घड़ी में भी सभी सूईयां किसी न किसी वक्त एक दूसरे से मिल जाती हैं। बस तभी हमें जिंदा होने का एहसास होता है। उन वक्तों में अपनापन होता है। और बाकी वक्तों में अधूरापन। और बाकी वक्तों में सूनापन। और बाकी वक्तों में खुद से अजनबीपन। और बाकी बचे वक्तों में हम मरते जाते हैं। शनैः शनैः....

पांच फ़ीट छह इंच पर हम ठहरे हुए कोहरे हैं

किताब का एक पन्ना पढ़ा। पहली बार सरसरी तौर पर। दूसरी बार, ध्यान देकर। तीसरी बार, समझ कर। चौथी बार और समझने के लिए। फिर कुछ समझा। पांचवी बार पढ़कर पूरा मंतव्य समझ गया। कुछ छूट रहा था फिर भी। अर्थ तो समझ गया लेकिन उस पंक्ति को लिखा कैसे गया था वो भूल रहा था। छठी बार फिर पढ़ा। एक पंक्ति में एक सोमी कॉलन, दो कॉमा, एक द्वंद समास के बीच इस्तेमाल होने वाला डैश और एक पूर्ण विराम से लैस वह वाक्य, जिस पर ध्यान नहीं दे पाते हैं। पढ़ना एक आवेग होता है। घटनाक्रम को तेज़ी से जी लेने वाला मैं इमारत को तो देख लेते हैं लेकिन उनमें लगने वाले इन गारे और ईंट को नज़रअंदाज़ कर देता हूं जबकि यह हमारे कहन में बहुत सहायक होते हुए मनःस्थिति का निर्माण करती है। कई बार यह विधा का मूड बिल्डअप करती है।  ***  सुबह से मन थोड़ा उद्विग्न है। जाने क्यों हम किसी से कुछ कहना क्यों चाहते हैं? सब कुछ होने के बाद भी क्यों हमें सिर्फ बेसिक्स की याद सताने लगती है। इतनी छोटी छोटी चीज़ कैसे एक समय इतना बड़ा बन जाती है कि कई दिनों से रोया नहीं, सोता रोज़ हूं, लेकिन सोया नहीं। पेट साफ रहने के बावजूद क्यों भारी भारी लगता है? मन पर, स