फोन पर जब वो ‘ हाय सागर ’ बोलती तो दोनों तरफ कुछ मिलावट सी होने लगती... उसकी आवाज़ में मेरे नाम का अर्थ घुल जाता... मंथर सी चाल होती और होते गहरे भाव... गर उस वक्त सिर्फ इन दो शब्दों का आडियो ग्राफ खींचा जाए तो एक सरल रेखा भर उभरे, इतनी संयत जैसे लता मंगेशकर का रियाज़, आधी नदी के बाद का स्वच्छ पानी, पीली रौशनी में गुसलखाने में रखा पहला कदम, इन शब्दों से लगता मेरे जिस्म के शराब में किसी ने बर्फ का टुकड़ा डाला है, वही बर्फ पहले सीधे अंदर जा कर पैठी है फिर उठकर ऊपर आती है और तैरने लगती है. मैं आँखें बंद कर उसकी आवाज़ से गुज़रता तो अपने को एक अँधेरी गुफा में पाता जहां मेरे ही शरीर की झिल्लियों की तस्वीर लगी है और कोई इंस्ट्रक्टर फलाने- फलाने जगह पेन्सिल की नोंक रख बता रहा हो कि “ बाबू! मुश्किल है ” .... तभी मेरे पार्श्व में ऐसा संगीत बजता जैसा राजेश खन्ना को लिम्फोसर्कोमा जैसी कोई संगीन बिमारी बताने पर बजता है.... जब मैं उसे बताता कि लोग मेरे साथ बड़े दयनीयता से पेश आते हैं तो मेरा निशाना लोग नहीं बल्कि वही हुआ करती... उससे बात करते-करते मुझे माइग्रेन से दोस्ती हो गई है. मैं उससे बतान
I do not expect any level of decency from a brat like you..