बैकग्राउंड में इंटरसिटी की सीटी, छक छक छुक छुक। अब ट्रेन धुंआ नहीं उड़ाता मगर ले जाता है आज भी अपनी रफ्तार के साथ। साथ तो क्या सफर करेगा लेकिन पीछे छूटते चीजों का मलाल रहता जाता है। सर्दियों में आग के सामने मत बैठो। आग कोढ़ी करता है। देर रात शीतलहर में सर्द हाथ आग के आगे करो तो वो भी पुरलुफ्त अंदाज़ में किसी आत्मीय की तरह हाथ थामता है...... और फिर बातों का सिलसिला जो चलता तो मुंह पर बिना गुना वाला ताला लग जाता है....बातें झरते बेहिसाब और यादों के नरम नरम, हौले हौले गिरते पत्ते। आदमी कहां कहां प्रेजेंट रहता है। कैसे कैसे बहता है कि बहते हुए भी कहीं न कहीं ठहरा ही होता है। कच्चे से दो टुकड़ों में ऐसे ही पाॅडकाॅस्ट, देर रात इंटरसिटी की सीटी, अंगीठी में आग तापना और प्रवासी मज़दूर की याद। घर कहां है की पड़ताल अब क्या बस बोली में रच बस कर रह गई है? सजनी मिलन का नाटक तो न खेल सके, विरह को मगर जी गए।
I do not expect any level of decency from a brat like you..