वे भी क्या दिन थे जानां। जी मेल बालकनी की तरह लगा करता था। हम उसमें सुब्हो शाम बैठा करते थे और उसकी एक एक पट्टी टंगी हुई अलगनी की तरह लगा करती थी। आज भी सर्च मेल में तुम्हारा नाम डाल कर देखता हूं तो सिलसिलेवार रूप से मेल छंट कर आते हैं। एक पट्टी पर उंगली रखता हूं तो तह ब तह एक एक मेल में अठासी अठासी मेल पिन किए हुए खुल आते हैं। खुद को शादीशुदा महसूस करता हूं और लगता है किसी ने कपड़े उतार लाने का आदेश दिया है। और जैसे ही एक याद का एक सूख चुका कपड़ा अलगनी से खींचता हूं उन बड़े कपड़ों के नीचे छोटे छोटे अंतरवस्त्र तक गिरने लगते हैं। वो भी क्या दिन थे जानां। हम वर्चुअल एक दूजे का सर दबाते थे, एक दूसरे के कंधे पर सर रखते थे। कभी कभार रो कर दिल भी हल्का कर लेते थे। किस हद तक अकेला है आदमी। अब तक हॉलीवुड के फिल्मों में देखते थे कि हद से ज्यादा अमीर आदमी खोखला और अकेला होता है। लेकिन देखो तो हम जो आम आदमी हैं, घर छोड़ कर बाहर काम करने आते हैं। मां बाप, भाई बहन वाले हैं। जान तक दे डालने वाले दोस्त रखने वाले हैं लेकिन बेतरह अकेले हैं। अंदर आक्रोश नहीं है अब बेशुमार एक खालीपन है। एक पागलपना है। क
I do not expect any level of decency from a brat like you..