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Showing posts from April, 2011

यही आगाज़ था मेरा, यही अंजाम होना था...

-1- -2- प्यार में कुछ नया नहीं हुआ, कुछ भी नया नहीं हुआ। एहसास की बात नहीं है, घटनाक्रम की बात है। हुआ क्या ? चला क्या ? वही एक लम्बा सा सिलसिला, तुम मिले, हमने दिल में छुपी प्यारी बातें की जो अपने वालिद से नहीं कर सकते थे, सपने बांटे और जब किसी ठोस फैसले की बात आई तो वही एक कॉमन सी मजबूरी आई। कभी हमारी तरफ से तो कभी तुम्हारी तरफ से। सच में, और कहानियों की तरह हमारे प्यार की कहानी में भी कुछ नया नहीं घटा। प्यार समाज से पूछ कर नहीं किया था लेकिन शादी उससे पूछ कर करनी होती है। घर में चाहे कैसे भी पाले, रखे जाएं हम उससे मां बाबूजी और खानदान की इज्ज़त नहीं होती मगर शादी किससे की जा रही है उस बात पर इज्ज़त की नाक और बड़ी हो जाती है। कोई दूर का रिश्तेदार था जो मुझ पर बुरी नज़र रखता था। मैंने शोर मचाया तो खानदान की इज्ज़त पैदा हो गई। और जब अपने हिसाब से जांच परख कर अपना साथी चुना फिर भी इज्ज़त पैदा हो गई। बुरी नज़र रखने वाला खानदान में था इससे इज्ज़त को कोई फर्क नहीं पड़ा लेकिन एक पराए ने भीड़ में अपने बांहों का सुरक्षा घेरा डाला तो परिवार के इज्ज़त रूपी कपास में आग लगने लगी। और प्यार

याद तेरी कभी दस्तक, कभी सरगोशी से...

टेबल कवर पर हाथ फेरो तो हथेली से धूल चिपकती है। हिन्दी व्याकरण की किताब खोजने ज़मीन पर समतल ना बैठ पाने वाले स्टूल पर चढ़कर खोजने की कोशिश की तो मंझले रैक से कितने तो रील वाली आॅडियो कैसेट गिरने लगे। सनसेट प्वांइंट, सिफर से लेकर वीर- ज़ारा तक के। एक भी कैसेट पर उसका सही कवर नहीं लगा है। शादी के गीतों वाली कैसट में मुकेश का गोल्डन कलेक्शन है और जगजीत सिंह वाले कवर में यूफोरिया। एक इंसान में भी ऐसी ही बेवक्त, बदतमीज़ और अनफिट ख्याल भरे रहते हैं।  02.09.1995 के बाद से घर में कुछ नहीं बदला है। एक ट्रंक रखा है अंदर वाले कमरे के कोने में, उसके बगल में चार-चार ईंटों पर खड़ा आलमारी, बची हुई जगह पर मच्छर अगरबत्ती का स्टैण्ड, किसी टेढ़े कांटी पर मुंह फुलाया रूठा लालटेन लटका है। बचपन में जब लाइट कटती थी तो भाई बहन इसी लालटेन के दोनों तरफ बैठ कर मच्छरों, अंधेरों और बिहर खेतों से आती झींगुर की आवाज़ों के बीच पढ़ाई करते। रोशनी सिर्फ सामने होता। दोनों के पीठ पीछे पसरा मीलों का अंधेरा। भाई के आगे एक किताब होती उसके बाद लालटेन फिर एक किताब और आखिर में बहन। इसका ठीक उल्टा क्रम बहन की तरफ से भी होता।

बदहवासी में भागना, पहचाने पेड़ों से टकराना और गिरना...

लड़की वो जिसका अगला कदम क्या होगा ये पता न हो। लड़की वो जो किस करवट बैठेगी इसका अंदाजा न हो। लड़की वो जो मासूम चेहरा बनाकर चीख उठे। लड़की वो जो इतनी बेपरवाह कि बाल, दुपट्टा और हंसी उड़ी जा रही हो और यह न सोचे कि इनसे कैसे अनमोल हीरे मोती गिरे जा रहे हैं और इसे बचा कर रखना चाहिए। लड़की वो जो इतनी नासमझ कि छत से नीचे आती बीच सीढ़ी पर सबसे बचकर चूम लो तो चिल्ला उठे कि - ''मम्मी देखो इसने मुझे यहां सीढ़ी पर छुपकर जबरदस्ती किस किया।'' लड़की वो जो पैदाइशी कलाकार हो, हर सुबह उसका बदल यूं जैसे केले के नए पत्ते गोल गोल खुलते हैं। लड़की वो जिसकी दो आंखों में चूहे और खरगोश जैसी चलपता और गालों पर उगे सुनहरे रोएं जैसी हल्की नादानी हो। जो बार बार प्यार करने जैसी गलती पर मजबूर करे।  2011 की डायरी में यह दर्ज कर रहा हूं कि उन आंखों में अब किसी ताखे पर जलती डिबिया का कम रास में जलने जैसा संशय भी आ चुका होगा और थोड़ी बहुत अपनी थरथराती रोशनी की ज़द में दूर रखे किसी सामान के कद का हिलना डुलना भी। भौतिक चीजों की अभावों में नहीं होगी इससे बदन में उभार भी ऐसे आए होंगे जैसे मिट्टी के घरो की

छज्जे-छज्जे बारिश से बचता लंगड़ा जानवर

लड़का दुनिया भर की बातें किया करता। कहता - तुम्हें सांवला होना चाहिए था ताकि तुम्हारे पैर की चांदी की पायल ज्यादा चमकती। यूं गोरे पैरों में उजला रंग ज्यादा नहीं जंचता। कभी मोटे मोटे मासूम गालों में चिकोटी काट कर बच्चों को दुलराती हुई आवाज़ में कहता - थोड़ा और खूबसूरत नहीं होना था। और जब यह कहकर अपना मुंह उसके गाल के पास ले जाता तो जीभ पर थोड़ा सा नमकीन पानी आ जाता। यह कहां संभव था उसका खूबसूरत दिल दुनिया को दिखाया जाता लेकिन लोग थे कि हैरान थे कि साले को उसमें आखिर ऐसा क्या दिखा जो उससे जी लगाए बैठा है! अक्सर दोनों दूर तक घूम आते। ज्यादातर पहाडि़यों पर जाना होता। मुंह से भाप निकलते हुए एक दूसरे को देखना एक अजब सा सकून देता। अकेलापन पूरा भी था और अधुरा भी। प्रेमी प्यार करने के बाद वैसे भी अपना अधूरापन हर जगह साथ लिए चलते हैं। पहाड़ पर ही क्यों? तो इसका बड़ा साहित्यिक सा जवाब है कि वहां सदाएं गूंजती हैं और इश्क में गहरे उतरे हुए पर दूर-दूर रहते हुए जैसे प्रेमी नदी, झरना, परबत, फूल, तितली, जूगनू, रंग, मौसम, समंदर आदि से भी दिल लगा बैठते हैं कुछ उसी एहसास लिए पहाड़ पर जाते।   लड़की अप

शीशे का खिलौना था, कुछ ना कुछ तो होना था ! हुआ.

  मैं:  आज आया तुम्हारे घर,  कुछ वक्त बिताया रोशनदान देखे, अलमारी, अलगनी, दीवार और पंखे के ऊपर लगा जाला भी देखा।  पांच रूपए का बेसन, एक पाव दूध, सोयाबीन ढ़ाई सौ ग्राम और आटा आधा किलो रद्दी अखबारों के बीच किसी किसी काग़ज़ पर लिखा यह बजट भी देखा उदास किताबों के बीच मोड़े मोड़े पन्ने देखे लगा तुम्हारा उचाट जी, जम्हाई, बेवक्त किसी की पुकार अभी तक वहीं रखा है। ठीक उसी कांटी पर टंगा है अब भी तुम्हारा बी. एड. वाला बस्ता और टीचर्स डे के बहाने चश्मीश शिशिर का दिया बिना डंठल वाला गुलाब (यह अलग से छुपा कर ‘गुनाहों के देवता‘ में रखा है) ज्यादातर फूल की प्रजातियां, शब्दों के उद्गम, उनकी विशेषताएं और प्रयोग तो याद है पर क्या अब भी रोमांचित होती हो ? दिमाग में झटका लगता है ? कोई विलक्षण किरदार मिलता है ? साड़ी अब सिर्फ कपड़ा भर क्यों है ? रंग गैर जरूरी हुआ ? सुलोचना का जवाब: बावजूद सबके समंदर नहीं होते हम कि पर्याप्त मात्रा में ही होता है हममें नमक जैसा कुछ तो यूँ समझो कि धूप बेहद तेज़ खिली और जो तुम खोज रहे हो उसका वाष्पीकरण हो गया रूको-रूको-रूको  जो इतनी घनीभूत भी नहीं कि फिर से बरस सके वै