एक अरसा हुआ इधर कुछ लिखा नहीं। ऐसी दूरी कभी नहीं आई थी। अपने करने से ज्यादा हम अपने होने का शोर करते रहे। दूरी जाने कितने चीजों में आ गई है। बारिश की झिर झिर सुनाई नहीं देती। कबूतर का नबावों की तरह मंुडेर पर विश्रााम की अवस्था में टहलने पर निगाह नहीं जमती। ढ़ेर सारा अब पानी बरसता है और व्यर्थ नालों में बह जाता है। सिगरेट की पैकेट गलत समय पर खत्म हो जाने लगी है। जिंदगी का धीमापन चला गया। जिंदगी अभी इस वक्त रात के दो बजकर नौ मिनट पर प्रेस में किसी प्रूफरीडर द्वारा करेक्शन किया हुआ आखिरी पन्ना लग रहा है। कुंए की जगत पर बैठा समझ नहीं आता कई बार कि खुद को खोजने के लिए पानी में छलांग लगा दूं या जो इक्के दुक्के लोग कूदने से बचाने के लिए आखिरी बार टोक रहे हैं उनका कहा मान लूं। कितने तो काम थे। शीशम पर मिट्टी चढ़वानी थी। भंसा घर का छत छड़वाना था। रीता माई को बांस के पैसे देने थे। केले के खान्ही बेचने थे। आंगन का
I do not expect any level of decency from a brat like you..