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Showing posts with the label Silent Era

एक ही रंग दिखाता है सात रंग भी

 सच बता निक्की, वो जानबूझ कर ऐसा करता होगा ना? आखिर कितने दिन तुम किसी को अनदेखा कर सकती हो ? कभी, कभी तो, किसी भी पल, एक बार भी, थोड़ा सा भी, एक्को पैसा, एकदम रत्ती भर भी, कभी तो उसको लगता होगा कि हम उसके लिए मरे जा रहे हैं, क्या बार भी वो आंख भर के देख नहीं सकता है, और सबको तो देखता है, गली में शाम ढ़ले लाइन कटने पर बगल वाले बाउंड्री पर बैठ सबके साथ अंतराक्षरी खेलने का टाइम निकाल लेता है पर मेरे लिए समय नहीं है ! ऐसा कैसे हो सकता है यार? साला बड़ा शाहरूख खान बना फिरता है। सिमरन ने पूछा - मेरी शादी में आओगे? बस आंख नचाकर बंदर सा मुंह बना कर कह दिया - उन्हूं और उल्टे कदम स्टाईल मार चलता बना। और हमलोग भी क्या फालतू चीज़ होते हैं यार ! यही इग्नोरेन्श पसंद आ जाता है कि साला सारी दुनिया के छोकरे बिछे रहते हैं, एक इशारा जिसे कर दूं तो शहर में चाकू निकल आए लेकिन हम हैं कि जो हमें हर्ट करेगा उसी से प्यार होगा। अब उसी दिन की बात ले। बीच आंगन में मैं पानी का ग्लास दे रही हूं तो नहीं ले रहा। भाभी से लेगा, सुनीता से भी चाहे कोईयो और डोमिन, चमारिन रहे सबके हाथ से ले लेगा लेकिन हम द...

नाऊ द टीयर्स आर माई वाइन एंड ग्रीफ इज माई ब्रेड/ईच सन्डे इज ग्लूमी, व्हिच फील्स मी विद डेथ

आओ आबिदा हमारे परेशां दिल को अपनी आवाज़ की प्रत्यंचा पर चढ़ा दूर तक फेंको। मुझे सुर बना कर अपने तरन्नुम में ढ़ाल लो। मेरा अस्तित्व जो कि महज एक छोटा सा पत्थर है आधी ज़मीन गड़ी हुई कि जिससे आने जाने वालों लोगों के लिए एक बाधक बना हर रहगुजर को ठेस लगाता रहता है। आओ आबिदा। आओ सिर्फ तुम्हारी आवाज़ का सामना करने के लिए मैंने सारी तैयारी कर ली है। आज हमारे और तुम्हारी आवाज़ के बीच मेरे कोई जज्बात नहीं कोई अल्फाज़ नहीं, कोई एहसास नहीं। मैं तो क्या तुम भी नहीं। मगर बस तुम्हारी आवाज़...! आओ आबिदा। मैंने अपनी ही सिंहासन तोड़ने की तैयारी कर ली है। मुझे आज नदियों, पहाड़ों, खाईयों, फूलों की जलवागर जज़ीरों को याद नहीं करना। मुझे तुम्हारी आवाज़ के मार्फत बस इतना जानना है कि जिन्हें खोने का इल्म मुझे है, जिसे जाने के सदमे को मैंने यह सांत्वना देकर जी लिया कि यादें कभी नहीं मरती, चेहरे अमर हो जाते हैं, वो हमारी दिल में रहेगा, ज़़रा अपनी आवाज़ से वो सब झूठा साबित कर दो, सारे जख्म हरे कर दो, वही दर्द उकेर दो। एक मूर्तिकार की मानिंद अपने रूतबेदार आवाज़ को पलती छेनी बना मेरी गले और छाती से होते हुए द...

आँखों के लाल डोरे में तैरती है शराब. बेजोड़ उदहारण में शराब और नशे का ये वाहियात जोड़ है.

सुबह आंख खुलते ही जो सबसे पहले चीज़ सोची वो यह कि आज पीना है। पीने को लेकर इतना मूड बनाकर नहीं पिया। हमेशा सोचा और पिया। यह बिल्कुल वैसा है जैसे 15 को मेरी शादी हो यह सोच की बात है लेकिन अगर आज 15 ही हो तो आज शादी का काम करना है। अतः आज पीना है। इसके लिए मैं कल रात से ही मूड बना रहा हूं। यह क्या उम्र है कि मुझे हर चीज़ के लिए अब तैयारी करनी पड़ती है। आज की शाम चाहता हूं कि सारी दुनिया शराब में डूब जाए। दिल करता है अखबार में इश्तेहार दे दूं जैसे एनजीओ संस्थाएं आठ से साढ़े आठ लाईट, पंखा बंद करने का आहवान करती हैं। शराब मेरी नस नस में उतर आए। मैं क्या पीयूंगा यह दोस्तों पर छोड़ता हूं लेकिन पीने में मज़ा तभी है जब मैं अपने हलक में थोड़ी थोड़ी देर रोक कर घंूट लूं। जैसे पुराने भोथरे ब्लेड से चेहरे के नीचे शेविंग करते समय कई जगह से खून की धार बह निकले और बहुत इत्मीनान से उस पर फिटकरी लगाई जाए। होता अक्सर ये है कि पी लेने के बाद मैं एक स्त्री में तब्दील हो जाता हूं, एक पतित स्त्री में। नहीं नहीं मीना कुमारी को याद मत कीजिए। पीना और लिखना बादशादत देती है। कितना भी बूढ़ा हो जाऊं...

वक़्त के गर्म बाज़ार में एक हम ही तही-दस्त हैं

आई ओफेन सी यू इन माय बालकनी इन द डिफरेंट पोजेज़ समटाइम्स विद काॅफी मग इन केजुअल समटाइम्स व्हेन यू आर    नॉट    ओनली यू इवेन नो, डैट इज़ योर इमेजि़ज,    नॉट   यू बट देयर इज़ समवन इन माय हार्ट  हू डिक्लेयर्ड - यू आर माय हनी आई    ओफेन    सी यू इन माय बालकनी... ओ.. ओ.. ओ ... कैसे कैसे बुनती हूं, क्या क्या गुनती हूं। दो कांटों के बीच ऊन का धागा उंगली से झगड़ता रहता है जैसे कोई लम्बी बहस हो या जैसे मेरी ही बेटी हो और यह शिकायत लेकर मायके आई हो कि कैसे घर में मुझे ब्याह दिया। हर फुर्सत में लड़ती हो। मैंने सर्दियों में कई कई स्वेटर बस इसी ख्याल में बुने हैं, तुम्हें सोचते हुए। तुम जो कि एक मसला हो बड़े भी बस ख्याल में ही हुए। तुम्हारे जितना स्वेटर तैयार हो जाता है मगर तुम वही के वही बने रहते हो।  इन दिनों आसमान मटमैला रहता है और पूरा वातावरण धूल से भरा लगता है मानो परले गली में कोई जोर जोर से झाड़ू लगा रहा हो। नीबूं के पेड़ों पर पत्ते नहीं हैं और वे ठूंठ बन गए है। तुम्हारा राह तकते मेरे पत्थर हो जाती...

याद तेरी कभी दस्तक, कभी सरगोशी से...

टेबल कवर पर हाथ फेरो तो हथेली से धूल चिपकती है। हिन्दी व्याकरण की किताब खोजने ज़मीन पर समतल ना बैठ पाने वाले स्टूल पर चढ़कर खोजने की कोशिश की तो मंझले रैक से कितने तो रील वाली आॅडियो कैसेट गिरने लगे। सनसेट प्वांइंट, सिफर से लेकर वीर- ज़ारा तक के। एक भी कैसेट पर उसका सही कवर नहीं लगा है। शादी के गीतों वाली कैसट में मुकेश का गोल्डन कलेक्शन है और जगजीत सिंह वाले कवर में यूफोरिया। एक इंसान में भी ऐसी ही बेवक्त, बदतमीज़ और अनफिट ख्याल भरे रहते हैं।  02.09.1995 के बाद से घर में कुछ नहीं बदला है। एक ट्रंक रखा है अंदर वाले कमरे के कोने में, उसके बगल में चार-चार ईंटों पर खड़ा आलमारी, बची हुई जगह पर मच्छर अगरबत्ती का स्टैण्ड, किसी टेढ़े कांटी पर मुंह फुलाया रूठा लालटेन लटका है। बचपन में जब लाइट कटती थी तो भाई बहन इसी लालटेन के दोनों तरफ बैठ कर मच्छरों, अंधेरों और बिहर खेतों से आती झींगुर की आवाज़ों के बीच पढ़ाई करते। रोशनी सिर्फ सामने होता। दोनों के पीठ पीछे पसरा मीलों का अंधेरा। भाई के आगे एक किताब होती उसके बाद लालटेन फिर एक किताब और आखिर में बहन। इसका ठीक उल्टा क्रम बहन की तरफ से भी हो...

सची माता गो, आमी जुगे-जुगे होई जनोमो दुखिनी...!

                    ... और जंगल में नदी उतरती जा रही है। उफनती हुई ,  बड़ी गाढ़ी ,  मटमैली नदी। वेग से बहना ,  वेग में बहना ,  तेज़ हवा के साथ झूमती ,  पागल ,  उन्मत्त नदी। पहली नज़र में बरसाती नदी ,  भादो की नदी ,  अपने साथ छोटे झाड़ झंखाड़ तो क्या बड़े बड़े पेड़ों को को उखाड़ बहा ले जाने वाली नदी। सबको अपने साथ यूं बहाते लिए चल रही है कि किनारों पर बैठे लागों को बात करने का मौका मिलता है। बातों में अंदेशा है - बरगद होगा  ?  नहीं ,  अब इनती भी तेज़ हवा नहीं है कि बरगद जैसे मिट्टी से गूंथे जड़ वाले पेड़ को भी उखाड़ दे। पूरब से पागल हवाएं चल रही हैं। पेड़ों के कान पश्चिम की ओर मुड़ गए हैं। कान का कच्चा होना इसे ही कहते हैं। सभी एक साथ निंदा रस का आनंद ले रहे हैं। एक पूर्णिमा की सांझ समंदर किनारे रेत के घर का नक्शा बनाती है। गुलदाऊदी के फूल खिले हैं ,  बागों में। तमाम तरह की कई और फूल भी खिले हैं सभ्य से बर्बर फूल तक। हवाएं यूं चल रही हैं जैसे कान में शंख बजते हों और लड़की क...

मूक फिल्में और सेंसरशिप

सन 1917 तक सेंसरशिप जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी. कौन सी फिल्म प्रदर्शनयोग्य है, कौन सी नहीं, यह तय करने का अधिकार पुलिस अफसरों को होता था. आम तौर पर वे फ़िल्में आसानी से प्रदर्शन कि इजाजत दे देते थे, जब तक कि राजनीतिक लिहाज़ से कोई आपत्तिजनक  बात किसी फिल्म में न हो. होलीवुड के असर के कारण उन्ही दिनों मूक फिल्मों के दौड में भी चुंबन, आलिंगन और प्रणय के दृश्य फिल्मों में रखे जाते थे. उस ज़माने की एक फिल्म में ललिता पवार को बेझिझक नायक के होंठो को चूमते देखा जा सकता है. न तो दर्शकों को और ना ही नेताओं को ऐसे दृश्यों में नैतिक दृष्टि से कुछ आपत्तिजनक लगता था. फिल्मों को सिर्फ मनोरंजन का माध्यम समझते हुए ऐसे दृश्यों को सहजता से ही लिया जाता था.  मगर 1917 में ब्रिटिश हुकूमत ने ब्रिटेन का सेंसरशिप अधिनियम हमारे यहाँ भी लागू कर दिया. इस अधिनियम को लागू करने के पीछे मुख्य मकसद भारत के अर्धशिक्षित लोगों के सामने पश्चिमी सभ्यता के गलत तस्वीर पेश करने वाली अमेरिकी फिल्मों पर प्रतिबन्ध लगाना था. भारत के फिल्मकारों ने सेंसरशिप लागू करने का कड़ा विरोध भी किया, क्योंकि सेंसरशिप में भी भेदभ...

मूक सिनेमा का दौर

दादा साहब फालके की फिल्में की सफलता को देखकर कुछ अन्य रचनात्मक कलाकारों में भी हलचल मचने लगी थी। 1913 से 1918 तक फिल्म निर्माण सम्बंधी गतिविधियां   महाराष्ट्र   तक ही सीमित थी। इसी दौरान कलकत्ता में   हीरालाल सेन और जमशेद जी मदन   भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हुए। फालके की फिल्में जमशेद जी मदन के स्वामित्व वाले सिनेमाघरों में   प्रदर्शित   होकर खूब कमाई कर रही थीं। इसलिए जमशेद जी मदन इस उधेड़बुन में थे कि किस प्रकार वे फिल्में बनाकर अपने ही थिएटरों में   प्रदर्शित   करें। 1919 में जमशेदजी मदन को कामयाबी मिली जब उनके द्वारा निर्मित और रूस्तमजी धेतीवाला द्वारा   निर्देशित   फिल्म ' बिल्म मंगल '   तैयार हुई। बंगाल की पूरी लम्बाई की इस पहली कथा फिल्म का पहला   प्रदर्शन   नवम्बर , 1919 में हुआ।   जमदेश जी मदन ( 1856-1923) को भारत में व्यावसायिक सिनेमा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है।   वे एलफिंस्टन नाटक मण्डली के नाटकों में अभिनय करते थे और बाद में उन्होंने सिनेमाघर निर्माण की तरफ रूख किया। 1907 में उन्होंने  ...