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Showing posts from May, 2010

चिरनिद्रा

फोन पर जब वो ‘ हाय सागर ’ बोलती तो दोनों तरफ कुछ मिलावट सी होने लगती... उसकी आवाज़ में मेरे नाम का अर्थ घुल जाता... मंथर सी चाल होती और होते गहरे भाव... गर उस वक्त सिर्फ इन दो शब्दों का आडियो ग्राफ खींचा जाए तो एक सरल रेखा भर उभरे, इतनी संयत जैसे लता मंगेशकर का रियाज़, आधी नदी के बाद का स्वच्छ पानी, पीली रौशनी में गुसलखाने में रखा पहला कदम, इन शब्दों से लगता मेरे जिस्म के शराब में किसी ने बर्फ का टुकड़ा डाला है, वही बर्फ पहले सीधे अंदर जा कर पैठी है फिर उठकर ऊपर आती है और तैरने लगती है. मैं आँखें बंद कर उसकी आवाज़ से गुज़रता तो अपने को एक अँधेरी गुफा में पाता जहां मेरे ही शरीर की झिल्लियों की तस्वीर लगी है और कोई इंस्ट्रक्टर फलाने- फलाने जगह पेन्सिल की नोंक रख बता रहा हो कि “ बाबू! मुश्किल है ” .... तभी मेरे पार्श्व में ऐसा संगीत बजता जैसा राजेश खन्ना को लिम्फोसर्कोमा जैसी कोई संगीन बिमारी बताने पर बजता है.... जब मैं उसे बताता कि लोग मेरे साथ बड़े दयनीयता से पेश आते हैं तो मेरा निशाना लोग नहीं बल्कि वही हुआ करती... उससे बात करते-करते मुझे माइग्रेन से दोस्ती हो गई है. मैं उससे बतान

जन-गण मंगल दायक जय हे

सुबह के साढ़े आठ बज रहे है. सुनहरी धूप खिली है. मध्धम हवा चल रही है, सड़के जैसे धुली हुई हैं. हर तरफ चहल-पहल है. लगता है कुछ होने वाला है जिसके लिए सब उत्साहित हैं. हमारे जैसे बच्चे तो रात भर सोये भी नही. यही लगता रहा अभी ज़रा एक देर में सुबह हो जायेगी पर कैसी होगी सुबह ! क्या शमशेर बहादुर के कविता जैसी “ लाल खड़िया चाक मल दी हो किसी ने   ” या फिर...  नहीं उस वक्त मंटो के कहानी कतई याद नहीं आई कि “ आज़ादी के बाद भी सब कुछ वैसे का वैसा था. पेड़ वहीँ खड़े थे, आदमी भी वही थे और हालत भी वही थे ” ... सच्ची, कतई ऐसा कुछ ख्याल नहीं था... कसम से. मैं बड़ी हसरत से तकता हूँ तिरंगा, देखता हूँ आसमान, राष्ट्रगान जब आरोह-अवरोह में बज रहा होता है तो पुलकित होता हूँ, ठिठक जाता हूँ, मोहित होता हूँ, हर्षित होता हूँ और भाव-विहोर हो जाता हूँ. और जब बैंड “ जन- गण  मंगल दायक जय हे ” की ऊँची छलांग  लगाता  है; तभी आकाश में तीन लड़ाकू विमान केसरिया, उजला और हरे रंगों का धुंआ छोड़ते हुए तिरंगे पर फूल बरसता हुआ गुज़रता है, तभी  हर बच्चा अपने कोरे दिल पर पहली बार हिंदुस्तान लिखता है. यह उसका पहला प्यार होता ह

व्यावसायिक सिनेमा

   स्वतंत्रता आंदोलन के दौड में फिल्मकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर इस आंदोलन को समर्थन देने का प्रयास किया. तब तक देश में सिने दर्शकों का एक परिपक्व वर्ग तैयार हो चुका था. मनोरंजन और संगीत प्रधान फिल्मों के उस दौड में भी देशभक्ति पूर्ण सार्थक फिल्में बनीं.                         स्वतंत्रता के ठीक बाद फिल्मकारों की एक नयी पीढ़ी सामने आई. इसमें राजकपूर, गुरुदत्त, देवानंद, चेतन आनंद एक तरफ तो थे वी. शांताराम, विमल राय, सत्यजीत राय, मृणाल सेन और हृषिकेश मुखर्जी, गुलज़ार और दूसरे फिल्मकारों का अपना नजरिया था. चेतन आनंद की ‘ नीचा नगर ’ , सत्यजीत राय की ‘ पथेर पांचाली ’ और राजकपूर की ‘ आवारा ’ जैसी फिल्मों की मार्फ़त अलग-अलग धाराएँ भारतीय सिनेमा को समृद्ध  करती रहीं . बंगाल का सिनेमा यथार्थ की धरती पर खड़ा था तो मुंबई और मद्रास का सीधे मनोरंजन प्रधान था. बॉक्स ऑफिस की सफलता मुंबई के फिल्मकारों का पहला ध्येय बना और इसी फेर में उन्होंने सपनों का एक नया संसार रच डाला. मनोरंजन प्रधान फिल्मों को व्यावसायिक सिनेमा के श्रेणी में रखा गया.             एक दीर्घकालीन संघर्ष के बाद स्वतन्त्रता के अभ

समानांतर सिनेमा और दर्शकों की बेरुखी

समानांतर सिनेमा को प्रारंभिक दौर में काफी दर्शक मिले. मगर बाद में धीरे-धीरे इस तरह की फिल्मों के दर्शक कम होते चले गए. अस्सी और नब्बे के दशक के आखिर में सार्थक सिनेमा का आंदोलन धीमा पड़ गया. प्रकाश झा और सई परांजपे जैसे फिल्मकार व्यावसायिक सिनेमा की तरफ मुड गए. श्याम बेनेगल बीच में लंबे समय तक टेलीविजन के लिए धारावाहिक बनाते रहे. समानांतर सिनेमा की अंदरूनी कमियों के कारण भी यह आन्दोलन सुस्त पड़ने लगा. कारण यह हैं :- सार्थक सिनेमा आंदोलन से जुड़े फिल्मकारों ने अपने चारों ओर एक ऐसा कल्पनालोक रच डाला है, जिसमें से निकलना ना वे चाहते हैं और ना उनके लिए अब मुमकिन रह गया है.  उनके इस कल्पनालोक कला के लिए तो भरपूर स्थान है, पर व्यवसाय के लिए नहीं. जबकि इस मत पर कोई दो राय नहीं हो सकती है की कला और व्यवसाय में एक वैज्ञानिक रिश्ता होता है. यह रिश्ता ही कला को लोगों से जोड़ता है. चलताऊ फिल्मों के भीड़ के बीच जब दो-एक साफ़-सुथरी फ़िल्में आई तो इन्हें पहले अच्छा सिनेमा कहा गया. बाद में यह समानांतर सिनेमा हो गया. शुरू में मुख्यधारा की फिल्मों और समानांतर सिनेमा का कोई दर्शक वर्ग अलग-अलग नहीं था

सागर-ओ-मीना

मैं जब शराब पीने वाला होता हूँ तो धरती रुकी हुई सी होती है कुछ कहने को बेताब पर कहती कुछ नहीं. या कहना नहीं चाहती. एक उमस जैसा माहौल होता है गोया जब तक बरसे ना, गर्मी बनी रहती है. यह बिलकुल वैसा ही होता है जैसा जब तक कोई कविता मन में घुमड़ते हुए कागज़ पर ना आ जाये. एक बार कागज़ पर आ गई, अपना बोझ खतम. घंटा टेंशन, और वैसे भी टेंशन लेने का नहीं देने का!!! कम से कम कुछ घंटे के लिए तो आदमी हल्का हो जाता है. घूमती है धरती जब पीता हूँ शराब, डोलती है धरती, सांस लेने लगती है जब पी कर चलता है शराबी. शराब की तलब होना सेक्स की इक्छा रखने जैसा कुछ नहीं है. हाँ इसकी शुरूआती तलब आप फोरप्ले से जोड़ सकते हैं. यह कहना मुठमर्दी ही होगा कि मैं जब फ्रिज का दरवाजा खोलता हूँ तो बोतलों के गर्दन पर ठहरी ठंडी बूंदें देखकर मेरा दिल दारु पीने का नहीं करता बल्कि तब तो लगता है कोई नयी दुल्हन अलसुबह सबसे नज़रें बचाते नहाकर बाथरूम से नंगे पैर निकल रही है जिसकी आधी गीली बदन पर ठहरी बूंदें अमृत के माफिक लगती है. लोग गलत कहते है कि शराब आदमी को बेसुध करती है मुझे तो लगता है की यह ज्यादा सोचने को देती है अलबत्ता यह

राज़ की बातें लिखी और खत खुला रहने दिया

किशोरावस्था से जवानी की ओर जाती तुम्हारे बचपने का यह उच्चतम स्तर होगा. अब तुम थोड़ी गंभीर हो जाओगी. अल्हड़ता दूर जाने लगी होगी. होंटों पर लिपस्टिक लगाकर आईने में देर तक नहीं हँसती होगी अब करीने से तुम्हें लिपस्टिक लगाना भी आ गया होगा. तुमने अब दुपट्टा ठीक से पिन-अप करना सीख लिया होगा. मेरी आँखों में अब तक वही मंज़र कैद है कि तुम रेत पर ठीक किसी नदी की तरह अपने सीने से आँचल हटाकर मेरे शहर को बसाई हुई हो. तुम्हारी गुदाज़ बाहें मेरे आगोश में मसक रही है. कसमसाई हुई तुम कभी मेरे आस्तीनों से खेलती हो, झेंपती हो और कभी टूट कर प्यार करती हो. यूँ कभी-कभी बीच में जब मैं भी अपनी आँखें खोलकर तुम्हारे होंठों को अपने होंठ के इतने करीब देखता हूँ तो मेरा दिल धक् से रह जाता है. मैं तुम्हें अपने हैसियत से बाहर जाकर नापने की कोशिश कर रहा हूँ. कहीं भरी आकाल में तब बारिश हुई थी. भूखे को अनाज मिला था. उस दिन किसी किसान के आँगन से बैल नहीं खोले गए थे. कहीं कोई खुदा किसी अभागे पर नेमत बरसाया था. कोई भागा हुआ घर लौटा था और माँ के चेहरे पर पहली बार नूर दिखा था. कृष्ण ब्रज के बहाने सृष्टि को प्रेम का महत्त

पहला प्यार

पहला प्यार  (सब-टाइटल : निम्नमध्यम मोहल्ले का  प्यार  ) शादी के बाद रश्मि लाल रंगों में लिपटी पहली बार अपने मायके आई है... गोरे-गोरे हाथ, भरी-भरी चूडियाँ, करीने से लगाया हुआ सिंदूर, बहुत सलीके से पहनी हुई साडी, मंगलसूत्र, डीप कट ब्लाउज, बाजूबंद... कुल मिलकर ऐसी बोलती संगमरमरी मूरत कि कोई पुराना आशिक देख ले तो अबकी तो मर ही जाए... लिखित गाईरेंटी, स्टाम्प पेपर पर, तीन इक्का, खेल खतम. सोनू के दूकान के पास से जब रश्मि गुजरी तो ऊपर वर्णित स्विट्ज़रलैंड की वादी को देखकर सनसनाहट में उसने अपने होंठ काट लिए.... एक सिसकारी भरी और सारी ताकत किस्मत जैसी किसी अदृश्य चीज़ को गरियाने में लगा दिया... सोनू, रश्मि का पुराना आशिक, कक्षा आठ से उसके ट्यूशन-कोचिंग के दिनों से उसके आगे-पीछे डोलता हुआ. रश्मि जब भी घर से निकलती तो उसे गली के मोड से कोलेज और कोलेज से गली के मोड तक सशरीर छोड़ता सोनू. उसके बाद रश्मि को अपनी आखों से उसके बेडरूम तक छोड़ता था... आज उसके प्यार में बर्बाद होकर उसी मोड पर सी.डी. की दूकान खोले बैठा है जो अब कितनी भी घिसी हुई सी.डी. चलने में एक्सपर्ट हो चुका है, वो एक ग्राहक को जो

दीदी का खत...

बिसरे ज़ख्मों पर नमक जैसे मेरे प्रिय बेटे, तुम्हारा पिछला खत पढकर यह संबोधन दिया है जिसमें तुमने घर की याद के बाबत बात पूछी है. नितांत एकाकी क्षणों में घर की याद आ जाती है. जैसे सूप में आपने आँखें फटकते हुए, फटे हुए ढूध का खो़या खाने में नमकीन आंसू का जायका तलाशते हुए या चावल चढाने से पहले उसे चुनते हुए हुए आनाज और कंकड के फर्क पर शंकित होते हुए... फिर अपनी पत्थर होती आँखों को कोसते हुए... अबकी साल भी आम के पेड़ में मंजर खूब आया है और सांझ ढाले उनसे कच्चे आम की खुशबु घर के याद के तरह आनी शुरू हो गयी है... अब यह कमबख्त रात भर परेशान करेगी. तुम्हारे घरवालों ने मुझे कहाँ ब्याह दिया, हरामी ने जिंदगी खराब कर दी. ससुराल जेल की चाहरदीवारी लगती है और मैं सजायाफ्ता कैदी सी. मैंने ना ही कोई विवादास्पद बयान दिया, कोई विद्रोही तेवर वाली किताब ही लिखी है. कोई सियासी मुजरिम हूँ जो मुझे ससुराल में नज़रबंद रखा गया है. मैं क्यों अपने घर से निर्वासित जीवन जी रही हूँ ? कहीं यह तुम दोनों दोनों पक्षों की मिलीभगत तो नहीं ??? मर्द तो दोनों जगह कोमन ही होते हैं ना ??? टेशन से  छूटने   वाली  गाडी में

वसीयत

सत्रह की उम्र जैसे पगडण्डी पर लुढकती कोसको की गेंद... कबड्डी-कबड्डी की आवाज़ लगाती बिना टूटन की साँस... हर चौकोर खाने में चपटा सा टुकड़ा रख कर कित-कित खेलती साक्षी जब आईने में शुरू से खुद को देखती तो लगता दुनिया यों उतनी बुरी भी नहीं है जैसाकि बाबूजी कहते फिरते हैं...  सूना सा गला सादगी के प्रतीक थे... और नाक-कान में नारियल के झाड़ू की सींक... दो चोटी कस कर बांधना... फिर एक सिरे से पलक खोलती तो एक ही चीज़ की कमी लगती- बिंदी की .... तो ये लगाई बिंदी और हो गयी तैयार साक्षी.. अब देखो इतने में कैसी खिल उठी है. अब ज़रा सी देर में धूप भंसा घर के खपरैल के नीचे सरकेगी और वो होगी खेल के मैदान में सबकी छुट्टी करने. लेकिन श्रीकांत का क्या ? उसके बारे में क्या सोचा है उसने ? जिसने खेलने के बहाने इनारे पर बुलाया है... पर मेरा मन तो खेलने का है पर श्रीकांत जो दूसरे गांव से मिलने आया है वो भी स्कूल के ब्लैक बोर्ड पर इशारे से  लिखकर उसने पहले ही बता दिया था और मैंने आने की हामी भी शरमाकर भरी थी, उसका क्या ? बड़े उम्मीद से विनती की थी उसने! साक्षी के आँखों में श्रीकांत का चेहरा घूम जाता है... प्य

आ जाओ कि.....

दोनों जोड़ी आँखें देहरी पर कब से टिके हैं... ऐसे समझो कि मैंने अपनी आँखें वही रख दी हैं और अब मैं अंधी हूँ...   दरवाजे पर मनी प्लांट लगा रखा है ताकि वो भी तुम्हारे आते ही पैरों से लिपट जाएँ... मैं कसम से बिलावजह बच्चों को डांटना छोड़ दूंगी ... लगातार पछिया चलने जो पेड़ पूरब के ओर झुक गए हैं... पानी देने पर भी गमले की उपरी मिटटी पपरी बन उखड गयी है. तुम्हारे जाने के बाद से द्वार को गोबर से नहीं लीपा  है. आ जाओ कि तुम्हारे आँखों के डोरे की गहराई नापे बहुत दिन हो गए.. कम से कम यही देख लूँ कि उन समंदर में अपने लिए कितने ज्वार-भाटा बचे हैं... आ जाओ कि तुम्हारे आँखों में खुद को ब्लिंक होना देखे बहुत दिन हो गए हैं...  इन दिनों तो चाँद के पास भी एक तारा दिखाई देता है.. दीवार पर बैठकर पाँव हिलाते तुम्हें सोचते हुए जाने कितने सूरज को डूबते देखा.... कि सूर्यास्त तो बहुत देखा सूर्योदय देख लूँ .. आ जाओ कि अब साँसें घनीभूत हो चुकी हैं और हवा का कितना भी तेज झोंका इन बादलों को उड़ा नहीं पायेगा; यह आज बरसना चाहती हैं... सिर में तुम्हारे यादों की धूल जमने से मेरे बाल बरगद की लटें हो गयी  हैं..

रेड लाइट...

दे भिखारी ! बच्चे ने जब बस में बैठे लोगों को इस तरह जोर से संबोधित किया तो लगा पूरी दुनिया को कह रहा हो. यह वही बच्चे हैं जिनके लिए ट्रेफिक जाम होना हमारे उलट ज्यादा फायदेमंद होता है.. दुनिया के खेल भी निराले हैं... जब हम बारिश का आनंद लेते हैं तो उसी दिन शाम को मोहल्ले में हाट नहीं लग पाता और कुछ बेहद जरूरतमंदों की कुछ भी कमाई नहीं हो पाती तुर्रा यह कि अगले दिन कई अखबारों में यह पढ़ने को मिलता है कि बारिश के कारण फलां फसल में कीड़े लगने के कारण वे खराब हो गए. तो बच्चे ने दुनिया को दे भिखारी का नारा दिया था... जिन्हें कोई और नारा देना चाहिए था... यह हिंदुस्तान के मुस्तकबिल है... मेरी जबान भी कितनी गन्दी है एकबारगी तो ख्याल आया “ हुजुर का मुस्तकबिल बुलंद हो ” . संसद भवन के गलियारों से कितना उलट है प्रगति मैदान के सबवे में खड़े एक साथ तीन को इशारे से निपटाते किन्नड...  यहीं बन रहा है आजकल कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए एक लोहे का पुल... समय भी अब कम है ना... शीला सरकार को अपनी लाज जो बचानी है... और उसी के नीचे नेशनल स्टेडियम के गेट पर लाल बत्ती पर भारत की  तरक्की को चुनौती दे रहे हैं यह