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Showing posts from February, 2011

मेघे ढाका तारा

कल कितना हसीन दिन होगा न दादा ! मुझे समय से भूख लगेगी और हम सवेरे सवेरे मंदिर जाएंगे, कम से कम अपना कर्म तो करेंगे। मैंने सोचा है कि बड़ी सी टेबल पर शीशे के ग्लास जो उल्टे करके रखे हैं उसी समय सीधा करके उसमें तुम्हारी फेवरेट रेड वाइन डालूंगी।  आखिरकार मैंने ठान लिया है दादा कि मैं कल सीलन लगी दीवार, इस मौसम के गिरते पत्तों की परवाह नहीं करूंगी। कल न उनसे अपने दिमाग की उलझनें जोड़ूंगी दादा। कसम से दादा। कल उधर ध्यान नहीं दूंगी दादा। दादा बुरा वक्त है जानती हूं लेकिन मैं खुश रह लेती हूं। तुम्हारे नाम की आड़ रखकर तो मैं कुछ भी कर लेती हूं दादा। दादा हम शरणार्थी। शिविर को कैसे घर मान सकते थे दादा ? चैकी के नीचे का रूठा पायल कुछ बोले, न बोले दादा हम तो कल खूब खुश रहने वाले हैं। दो शब्द बस दादा - खूब, खूब खुश। सच्ची। नए साल की तरह।  हमारे अंदर जब अच्छाई जागती है न दादा तो खूब जागती है इतनी कि कुछ भी अच्छा नहीं हो पाता। ऐसा कि खुद को ऊर्जा से भरपूर मानो दादा और सोचो कि आज सारे काम निपटा देंगे फिर कैसी गांठ जमती है मन में कि शाम तक बिस्तर से उतरना नहीं होता ? हाट जाने के सारे रस्ते इसी हो

पार्क में उड़ता पर्चा...

गन्ने का जूस निकालने वाले मशीन और जीवन में यही समानता है कि दोनों रस भरे आदमी का कचूमर निकाल देते हैं। कहीं कारखाने का मशीन भी ऐसा करती है तो कहीं किसी प्राईवेट आॅफिस में काम करने वाला मुलाजिम का भी यही हाल होता है। नया नया प्रेस ज्वाइन किया हुआ पत्रकार भी पिसता है। तो सिर्फ जवान और खूबसूरत होने की योग्यता, जब बोलने पर हावी हो जाए तो देर रात तक लम्बी शिफ्टों में समाचार पढ़ने वाली टी.वी. एंकर भी, जो चैनल वाले कम पैसों पर नियुक्त करते हैं। मतलब कि शोषण हर जगह है। मंटो से मुत्तासिर मैं सबसे पहले इसलिए हुआ कि उसने पचास बरस पहले यह लिख गया कि मौजूदा दौर किसी इंसान की गोश्त या खून की वाजिब कीमत अदा नहीं करता। अव्वल तो वो अदा करना नहीं चाहता। लेकिन मैं यह सब तुमसे क्यों कह रहा हूं? जाने कहां से ख्याल आया मुझे कि अधिकतर इंसान भी इंसान से एक खास समय तक ही मुहब्बत रखते हैं गोया वो इंसान नहीं जैसे एक रस भरा आम हो उसे सबसे जवान समय में चूसो और जब लगे कि उसमें कुछ बाकी न रहा हो तो कोई दूसरा खोजने में लग जाओ। इसे मेरी तल्खी से जोड़कर मत देखो कि तुम्हें भी ईश्क में जूनून चाहिए था जो मुझे जैसे आशि

ना बात पूरी हुई थी कि रात टूट गयी...

एक सुस्त सा मौसम चल रहा है गदर मचाता हुआ। जैसे सबसे फुर्सत वाले दिनों में ही हम गौर कर पाते हैं हर चीज का घटित होना। ये बात अलग है कि तब उसका एहसास नहीं होता और अत्यंत व्यस्ततम क्षणों में उसके लिए तरसते हैं, उसकी लज्जत महसूस होती है। इन दिनों जो सुन रहा हूं, देख रहा हूं सब ठहरी हुई हैं।  आसमान में ठहरा सफेद बादल बह रहा है, गमले में उगा पौधा भी बढ़ रहा है। दुनिया नित नई रोज आगे जा रही है (?) सरकार नए कदम उठा रही है। नए पनपते प्यार वादा कर रहे हैं। मिस्र में जनता की आवाज़ सुन ली गई है। बस अंधेरे उजालों में छिपता तुम्हारा हुस्न  मुकम्मल  नहीं होता।  एहसास वही हैं पर हर बार उन ख्यालों को नए शब्दों का पैरहन पहना रहा हू। इन ख्यालों के कपड़े उतारने के लिए नए कलफ चढ़ाने होते हैं। यह भी अजब है कि नंगे करने के लिए कपड़े पहनने होते हैं। हमने अपने मनोरंजन के लिए कितना कुछ बना रखा है। तुम्हारी याद के अक्स के इस बुखार का आज सांतवां दिन है। बिस्तर से उठ नहीं पा रहा लेकिन यह क्या है कि मेरे बदन पर पर सकून की गुदगुदी कुछ इस तरह से हो रही है जैसे गर्म पानी की बोतलें घुड़क रही हो।  मैं तुम्हारा पति न

बोल ऐ खूंखार तन्हाई किसे आवाज़ दूँ ?

ऑरकुट पर तुम्हारे फोटो पर ढेर सारे कमेन्ट आते हैं। आज भी साड़ी को कांधे पर पिन-अप वैसे ही करती हो जैसे मुझे अपने सीने पर लपेट रही हो। जाने कैसा हुस्न समेट रखा है। तुम जानती हो मुझे ज्यादा जलन नहीं होती। मेरी पहली प्रेमिका किसी और की हो गई, मुझे जलन नहीं हुई। लेकिन तुम्हारा किसी का होना मुझसे बर्दाश्त ना हो सका। यकीन जानो मैं अब भी जब तुम्हें तुम्हारे पति के पहलू में सोचता हूं तो मुझे जलन होती है। हालांकि तुम्हारी शादी को चार बरस, तुम्हारा मुझसे मिलना के दो बरस और हमारा बिछड़ना तीन बरस का हो गया। इन दौरान तुम्हारा बेटा भी दो साल का हो गया। क्या अजब है कि हम सब कुछ हम साल के हिसाब से हम नापते हैं। तुम्हारा बेटा ठीक तुम पर गया है। आँखें, होंठ सब वैसा ही, उसका चहकना भी ठीक वैसा ही. मैं जानता हूं तुम्हारा पति बहुत खूबसूरत है और तुम भी किसी पठानी शहजादी से कम नहीं हो। तुम्हारी जोड़ी भी अच्छी जमती है।  लेकिन यह आज भी उतना ही सच है कि तुम्हारा पति तुम्हें औरत नहीं बना पाया। तुम लड़की ही रह गई। तुम्हारी आखों में आज भी वो कवांरी लड़की ही मुस्कुराती है। सबको धोखा देने वाली चेहरे में वही चमक म

तूने दुनिया की निगाहों से जो बच कर लिख्खे

 -2- तुमने पूछा है - मैं क्या करती हूं! बहुत कुछ है कहने को मगर अब जबकि कहने बैठी हूं कि तो कोई बात बताने लायक लग नहीं रही। दिलचस्प तो नहीं होगा मैं फिर भी कोशिश करती हूं, बीच-बीच में ध्यान दे दिया करना।  आर्चीज की गैलरी अब नहीं जाती। इमोशंस से सूखे फूल खरीदने होते हैं ना ही अब दिल के बैकग्राउंड में इश्क विश्क का गाना बजता है। ना ही तुम्हारी गिफ्ट की हुई डायरी में (जो डायरी कम दिखने में खूबसूरत ज्यादा है, गो कि ताला भी लगाने का सिस्टम है) लिखने का कुछ दिल करता है। आईएससी (इंटरमीडिएट) का प्यार तो है नहीं कि तुम भी फरवरी में जहान भर के मालियों से दोस्ती गांठ कर मेरे लिए लाल, पीले और काले गुलाब ले आओगे। मैं भी कहां अब सजती हूं। थोड़ा बहुत भी बनाव श्रृंगार करने पर लगता है कब्रिस्तान जा रही हूं किसी की आत्मा शांति की प्रार्थना करने। ये बी.ए. तीसरे साल का प्यार है जहां तुम जानते हो कि मेरे बाद दो बहनें और हैं, मेरी घर की माली हालत भी तुमसे छुपी नहीं है। अब तुम नहीं चिढाते कि पड़ोस का लड़का मेरे खातिर एकतरफा प्यार में जहर पी कर मर गया।  तुम्हारे जिंदगी में में इस कदर घुल-मिल गई हूं कि तुम

खाई में उतरते हुए

पहाड़ों के बीच धुंध का अक्स किसी नायिका के खोलकर फैलाई हुई साड़ी सी लगती है। धरती के सीने से नर्मो नाजुक जज्बात उठकर आसमान में मिलते से लगते हैं। नायिका अपने बाल हाथों को उपर उठा शंकर के जटा की तरह बांधती है। वक्षस्थल थोड़ा तन जाता है। धुंध को मुठ्ठी में पकड़ने की कोशिश करता हूं। हथेली गीली होती है और गाल पर थोड़ा ठंडेपन का एहसास होता है। कपोलों पर उगे लाल सेब गायब हो जाते हैं। नायिका मानस पटल के चित्रपट पर एक कविता की तरह सामने खड़ी है। कमरे के कोने से आती सुनहरी रोशनी में पिघलती और सकुचाती। मेरी ग्लानि भी ऐसी ही है अपनी जगह गलती घुलती हूई। इसकी सुंदरता की आंच की तरह कभी ना खत्म होने वाली। उम्र की वहाव में रास्तों के उस उंच नीच का कोई अंत नहीं। जो मैं देखता हूं, महसूस करता हूं। ग्रहण करता हूं और अपने चोट लगे सीने से उठते लहर को दिखाने बताने के लिए मारा मारा फिरता हूं। चोट की खूबसूरती ऐसी ही होती है। बिल्ली के पंजों के निशान सी हसीन। किसी ऊंचाई पर उफनते चाय की केतली जो अपने ढ़क्कन से बार बार टकराती है। नीम अंधेरे में लैम्प पोस्ट से गिरती रोशनी में कोई जवान पेड़ शाॅवर लेती हुई लगती